कुल्लू: रोशनी और सौभाग्य के महापर्व दीपावली के मौके पर मिट्टी के दीयों का अलग ही महत्व है. मान्यता है कि मिट्टी का दीपक जलाने से शौर्य और पराक्रम में वृद्धि होती है और परिवार में सुख समृद्धि आती है, लेकिन महंगाई के चलते अब दीयों का चलन कम हो गया है. तेल की महंगाई ने लोगों का रुझान मोमबत्ती और बिजली की झालरों की ओर कर दिया. इस बार भी सरसों के तेल की बढ़ती कीमतों और चाइनीज उत्पादों ने कुम्हारों के चेहरों पर निराशा लानी शुरू कर दी है.
देश में दीपावली का पर्व नजदीक है. दीपावली के पर्व पर अन्य मिट्टी के दीये बनाने वाले कारीगरों के कारोबार पर मिट्टी के दीये की बिक्री कम होने की वजह से रोजी-रोटी का संकट गहरा गया है. दीपावली के त्योहार को देखते हुए मिट्टी के दीये बनाने वाले कारीगर इन दिनों परेशानी वाला जीवन जीने को मजबूर हैं. पहले जहां दिवाली पर्व आते ही इनके चेहरों पर रौनक आ जाती थी तो वहीं अब मिट्टी से बने समान कि बिक्री नाममात्र को रह जाने से इनका कारोबार पूरी तरह चौपट होने के कगार पर है.
कारीगरों के हाथों से बनाए हुए दीये और मिट्टी के बर्तन जहां हर घर में दिवाली समेत और दिनों में भी रोशनी बिखरते रहे हैं, वहीं अब बाजार में आधुनिक सामान आ जाने की बजह से इसकी मांग अब बहुत कम हो गई है. कुल्लू पहुंचे बिलासपुर के कारीगर सुख राम ने बताया कि हमें अपने पुरखों से विरासत में यही काम मिला.
सुख राम ने कहते हैं कि, 'दिवाली में हमारे हाथों से बने दीप और मिट्टी के बर्तन कभी देश के कई हिस्सों के साथ विदेशों तक जाते थे, लेकिन आज इसकी मांग न होने की वजह से रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो है. बड़े बुजुर्ग के साथ ही छोटे-छोटे मासूम बच्चों के हाथों से बनने और संवरने वाले यह दीप और मिट्टी के बर्तनों की जगह भले ही आज इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और आधुनिक तकनीक से बने सामानों ने ले ली हो. पर सड़कों पर अपना बाजार सजाने वाले इन कारीगरों को यह आस है कि आज नहीं तो कल फिर जमाना इसी पर लौटेगा.'
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कारीगरों का कहना है कि जितनी मेहनत से मिट्टी के समान को तैयार किया जाता है उतनी आज इस काम पर मजदूरी भी नहीं निकल पा रही है. उन्होंने कहा कि लॉकडाउन के बाद से आर्थिक दंश झेल रहे कुम्हारों को भी उम्मीद है कि इस दीपावली में उनके नुकसान की भरपाई हो पाएगी. समय के अनुसार इस बार अपनी मिट्टी की कला में भी परिवर्तन किया है.
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