कुल्लू: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिमला में मंगलवार को रिज मैदान से जनसभा में कुल्लू को याद (PM Modi remembers Kullu) किया. प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath Temple) में पुजारियों व सुरक्षा कर्मियों के पहने जाने वाली पुहलों को लेकर कुल्लू को याद कर उन्हें भेजने के लिए कुल्लू वासियों का आभार जताया.
मंडी में किया था पुहलों का जिक्र: राज्य सरकार के 4 साल पूरा होने के उपलक्ष्य पर नरेंद्र मोदी 27 दिसंबर को हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में आए थे. उस दौरान उन्होंने वाराणसी के काशी विश्वनाथ के मंदिर में कार्यरत सेवादारों पुजारियों के लिए लिए पुहलों के बारे में चर्चा की थी. कुल्लू प्रशासन ने भी भांग के रेशों से बनने वाली पुहलों को काशी विश्वनाथ मंदिर भेजा था. अब काशी विश्वनाथ मंदिर में पुजारी व सेवादार अपने रोजमर्रा के कामों में इसका उपयोग करते हैं.
बदलते परिवेश में कम देखा जाता: भांग के रेशों से तैयार होने वाली पुहलों को लेकर ग्रामीण क्षेत्र के लोग काफी जागरूक हैं. हालांकि ,समय के साथ बदलते परिवेश में आज पुहलों को काफी कम देखा जाता है, लेकिन देव कार्यों में आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में भांग के रेशों से बनी हुई पुहलोंका ही प्रयोग किया जाता है.
अनूठा शिल्प गायब हो रहा: कुल्लू के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर सूरत ठाकुर (Historian Dr. Surat Thakur) ने बताया पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत में उत्पादित होने वाले भांग से बनने वाले उत्पाद अब बाजार से गायब हैं. एक समय था जब भांग के उत्पाद बनाकर पहाड़ के लोग अपनी आजीविका चलाते थे, लेकिन भांग की खेती को प्रतिबंधित किए जाने के बाद से इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की कमर टूट गई.अब इन्हें न किसी तरह की सरकार से मदद मिल रही न ही कोई मदद. नतीजा एक अनूठा शिल्प गायब होता जा रहा है.
उत्तराखंड और हिमाचल में वस्तुएं बनाने की परंपरा रही: डॉक्टर सूरत ठाकुर ने बताया उत्तराखंड और हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में भांग के पौधे से अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने की परंपरा वर्षों से चली आ रही थी. भांग के पौधे के रेशे को कपड़े बनाने में प्रयोग किया जाता था. पहाड़ी इलाकों में लोग इसके रेशे से कपड़ा तैयार करते थे.
ऐसे किया जाता कपड़ों का निर्माण: भांग के पौधे से वस्त्र निर्माण में मोटे तने वाली भांग के पौधे को काटकर इसकी छाल निकाली जाती थी. इसको पानी के पोखरों में 10 से 15 दिन तक मुलायम होने को डाल दिया जाता था. मुलायम हो चुकी छाल को निकाल कर इसे धोबी के कपड़ों की तरह किसी बड़े पत्थर पर पीटा जाता था. पतले रेशे बनाकर उसे हल्की धूप में भूरा होने तक सुखा लिया जाता था, फिर रेशे को सूत की तरह बट लिया जाता था. इसके बाद धागों को पानी से भरे बर्तन में चार घंटे तक उबालते थे. फिर सफेदी के लिए धो लिया जाता था. बट किए रेशे का गोला बनाकर इसकी दरी पट्टी आदि मनचाही वस्तुएं बनाई जाती थी. भांग की बनी वस्तुएं मजबूत टिकाऊ और सुंदर होती हैं.
सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडा : पहाड़ी लोग भांग के रेशे निकालकर रसिया व जूते की तरह प्रयोग में आने वाली पुहलों को बुन खाली समय का सदुपयोग करते थे. भांग से बने वस्त्रों की विशेषता है कि यह सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडा होता है. सामान की ढुलाई, अनाज भरने, खाद ढोने में भांग के रेशे से बने थैलों का खूब चलन था, लेकिन यह शिल्प अब दम तोड़ रहा है. सूरत ठाकुर का कहना है कि हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में देवी-देवताओं के परंपराएं काफी समृद्ध और यहां पर चमड़े के जूते सहित अन्य कई नशीली वस्तुओं का प्रवेश भी वर्जित है. ऐसे में बर्फबारी व सर्दी के दौरान ठंड में भी देवी -देवताओं की पूजा समय पर विधि विधान के साथ हो सके. इसके लिए भांग के रेशों से बनी हुई पुहलों का पुजारी व अन्य हारियान इसका प्रयोग करते हैं. यह परंपरा आज भी चली आ रही ,क्योंकि घास से बनी होने के चलते इन्हें मंदिरों में ले जाना भी पवित्र माना जाता है.
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