कुल्लू: अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा 2022 (International Kullu Dussehra) कल से शुरू हो रहा है. 3 साल बाद एक बार फिर से कुल्लू का ढालपुर मैदान अपने पुराने रंग में नजर आ रहा है. दरअसल कोरोना संक्रमण के कारण पिछले दो साल कार्यक्रम का आयोजन सूक्ष्म स्तर पर किया गया था. सप्ताह भर चलना वाला ये उत्सव इसलिए अनूठा है क्योंकि जब देश के बाकी हिस्सों में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है तब इसका आयोजन किया जाता है. कहा जाता है कि इस अद्भुत पर्व में स्वर्ग से धरती पर देवी-देवता आते हैं और लोगों की उत्सव को लेकर अटूट आस्था जुड़ी हुई है.
देवी देवताओं के महाकुंभ के नाम से मशहूर दशहरे का आगाज बीज पूजा और देवी हिडिंबा, बिजली महादेव और माता भेखली का इशारा मिलने के बाद ही होता है. इस साल कुल्लू दशहरा उत्सव कई मायने में खास है. यह पहला मौके होगा जब देश के प्रधान मंत्री अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में शिरकत करेंगे. (PM Modi in International Kullu Dussehra)
उत्सव से पहले देवी हिडिंबा देती हैं विशेष संकेत: देवी देवताओं के महाकुंभ के नाम से मशहूर दशहरे का आगाज बीज पूजा और देवी हिडिंबा, बिजली महादेव और माता भेखली का इशारा मिलने के बाद ही होता है. उसके बाद भगवान रघुनाथ जी की पालकी निकाली जाती है. भगवान रघुनाथ की पालकी और रथयात्रा निकलने के दौरान यहां पुलिस नहीं बल्कि उनके आगे चलने वाले देवता (धूमल नाग) ट्रैफिक का नियंत्रण करते हैं. कुल्लू दशहरा का वास्तविक नाम विजयादशमी से जोड़ा जाता है.
भगवान रघुनाथ का देवभूमि कुल्लू से विशेष नाता: आयोध्या से कुल्लू लाए गए भगवान रघुनाथ जी का देवभूमि कुल्लू से भी अटूट व गहरा नाता है. कुल्लू दशहरा का इतिहास साढ़े तीन सौ वर्ष से अधिक पुराना है. दशहरा के आयोजन के पीछे भी एक रोचक घटना का वर्णन मिलता है. इसका आयोजन 17वीं सदी में कुल्लू के राजा जगत सिंह के शासनकाल में आरंभ हुआ. राजा जगत सिंह ने वर्ष 1637 से 1662 ईसवी तक शासन किया. उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी.
1660 में कुल्लू में स्थापित की थीं मूर्तियां: 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया. राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने. कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना इष्ट मान लिया. इससे राजा को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई और फिर दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई. श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की. आज भी यह परंपरा जीवित है.
कुल्लू दशहरा में पुलिस नहीं देवता करते हैं लाखों लोगों की भीड़ को नियंत्रित: देवभूमि की संस्कृति और परंपरा अपने आप में एक मिसाल है और यही इसे अद्भुत भी बनाती है. अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा में एक ऐसे देवता भाग लेते हैं जो लाखों लोगों की भीड़ को बखूबी संभालते हैं. वैसे तो इनका नाम धूमल नाग है, लेकिन इन्हें ट्रैफिक इंचार्ज की भी संज्ञा दी गई है.
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