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इस शिव मंदिर में दो धर्मों के अनुयायी एक साथ करते हैं पूजा, यहां पाप-पुण्य का भी होता है फैसला - हिमाचल में भगवान शिव का मंदिर

भगवान शिव का प्रिय सावन माह से शुरू हो गया है. इस महीने में भगवान भोलेनाथ का जल और दूध से अभिषेक किया जाता है. इस माह में भोलेनाथ की उपासना विशेष फल देने वाली मानी जाती है. लाहौल स्पीति में भी भगवान शिव का विश्व प्रसिद्ध मंदिर है. इस मंदिर में हिंदू और बौध धर्म के अनुयायी एक साथ पूजा-अर्चना करते हैं.

trilokinath temple.
लाहौल स्पीति में त्रिलोकीनाथ मंदिर.
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Published : Jul 25, 2021, 10:42 PM IST

लाहौल स्पीति: सावन माह शुरू हो गया है. सावन में भगवान शिव की उपासना विशेष फल देने वाली मानी जाती है और भगवान शिव की कृपा से हर मनोकामना पूरी होती है. देवभूमि के लाहौल स्पीति जिल के उदयपुर उपमंडल में बसे त्रिलोकीनाथ गांव में भगवान शिव का मंदिर देश दुनिया से आने वाले श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केंद्र है. इस मंदिर की खास बात यह है कि यहां हिंदू और बौद्ध धर्म के अनुयायी भगवान शिव की आराधना करते हैं. दुनिया में शायद यह इकलौता मंदिर है, जहां एक ही मूर्ति की पूजा दोनों धर्मों के लोग एक साथ करते हैं.

हिंदुओं में त्रिलोकीनाथ देवता को भगवान शिव का रूप माना जाता है, जबकि बौद्ध इनकी पूजा आर्य अवलोकितेश्वर के रूप में करते हैं. हिंदू मानते हैं कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था. वही, बौद्धों के अनुसार पद्मसंभव 8वीं शताब्दी में यहां पर आए थे और उन्होंने इसी जगह पर पूजा की थी. इस मंदिर की एक अन्य खास बात है कि इसके अंदरूनी मुख्य द्वार के दोनों छोर पर बने 2 स्तम्भ मनुष्य के पाप-पुण्य का फैसला करते हैं.

मान्यता है कि जिस व्यक्ति को अपने पाप और पुण्य के बारे में जानना हो वह इन संकरे शिला स्तंभों के मध्य से गुजर सकता है. यदि मनुष्य ने पाप किया होगा तो भले ही वह दुबला-पतला ही क्यों न हो वह इनके पार नहीं जा पाता. वहीं, यदि किसी मनुष्य ने पुण्य कमाया हो तो भले ही उसका शरीर विशालकाय क्यों न हो वह इन स्तंभों के पार चला जाता है. यहां एक ही छत के नीचे शिव और बुद्ध के लिए समर्पित दीप जलाए जाते हैं. लाहौल घाटी में हिंदू और बुद्ध दोनों ही धर्मों के लोग रहते हैं और सबका आपस में भाईचारे का रिश्ता है. मंदिर के कारदार वीर बहादुर सिंह का कहना है कि पाप-पुण्य की इस परंपरा का सदियों से निर्वहन होता आ रहा है. उन्होंने कहा कि स्तंभों के बीच फंसने वाला भविष्य में सद्मार्ग पर चलने का प्रण करके मंदिर से रुखसत होता है.

इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने वनवास के दौरान किया था. वही, अगस्त के महीने में त्रिलोकीनाथ के दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं. क्योंकि इस माहीने में पोरी मेला आयोजित होता है, जिसमें कई लोग शामिल होने आते हैं. पोरी मेला त्रिलोकीनाथ मंदिर और गांव में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला तीन दिनों का भव्य त्योहार है, जिसमें हिंदू और बौद्ध दोनों बड़े उत्साह के साथ शामिल होते हैं. इस पवित्र उत्सव के दौरान सुबह-सुबह, भगवान को दही और दूध से नहलाया जाता है और लोग बड़ी संख्या में मंदिर के आसपास इकट्ठा होते हैं और ढ़ोल नगाड़े बजाए जाते हैं. इस त्यौहार में मंदिर के अन्य अनुष्ठानों का पालन भी किया जाता है.

स्थानीय मान्यता के अनुसार भगवान शिव इस दिन घोड़े पर बैठकर गांव आते हैं. इसी वजह से इस उत्सव के दौरान एक घोड़े को मंदिर के चारों ओर ले जाया जाता है. एक भव्य मेला भी आयोजित किया जाता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस मंदिर से जुड़े कई रहस्य बरकरार हैं, जिनसे कभी पर्दा नहीं उठ सका. ऐसा ही एक मशहूर किस्सा कुल्लू के राजा से जुड़ा हुआ है. मान्यता है कि वह भगवान की इस मूर्ति को अपने साथ ले जाना चाहते थे, हालांकि मूर्ति इतनी भारी हो गई कि इसे उठाया ही नहीं जा सका. संगमरमर की इस मूर्ति की दाईं टांग पर एक निशान भी है. माना जाता है कि यह निशान उसी दौरान कुल्लू के एक सैनिक की तलवार से बना था. मंदिर को कैलाश और मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है.

मंदिर के इतिहास के बारे में एक गड़रिए और त्रिलोकीनाथ के पत्थर होने की कहानी भी इस स्थान से जुड़ी है. पहले इस गांव का नाम तुंदा बताया जाता है. इस गांव की कुछ दूरी पर हिन्सा गांव था. जहां टिंडणू गड़रिया रहता था. जो गांव वालों की भेड़-बकरियां चराता था. पर इन बकरियों का दूध कोई दुह लेता था. इसका न तो गांव वालों को और न ही गड़रिए को पता चलता था. गांव वालों ने मिथ्या आरोप टिंडणू पर जड़ दिए कि वह उनकी बकरियों का दूध चुरा लेता है. इस आरोप से टिंडणू तिलमिला गया. गड़रिया अपमान के घूंट पीकर रह गया था, लेकिन उसने इस आरोप को झूठा साबित करने और चोर को ढूंढ निकालने का संकल्प लिया.

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उसने एक स्थान पर देखा कि एक पानी के स्रोत से सात मानव आकृतियां निकलीं और उन्होंने बकरियों को दुहना शुरू कर दिया. उन्हें पकड़ने की टिंडणू ने कोशिश की लेकिन सफेद कपड़ों में एक व्यक्ति को ही पकड़ पाया. इस व्यक्ति ने टिंडणू से उसे छोड़ने का आग्रह किया, लेकिन टिंडणू पर तो चोर को पकड़ने से अधिक वह अपने मिथ्या आरोप को झुठलाना चाहता था. वह उसे गांव हिन्सा तक ले आया. वहां गांव वालों को उसने इस चोर के बारे में बताया, लेकिन ग्रामीणों को लगा कि यह व्यक्ति मानव नहीं है. उन्हें लगा कि यह कोई देवता हैं. जिस कारण वहां के लोगों ने घी और दूध से उस व्यक्ति की पूजा की.

इसके बाद उसने बताया कि वह त्रिलोकीनाथ हैं और यहीं कहीं वह रहना चाहेंगे. उन्हें तुंदा गांव बहुत पसंद आया. बाद में उन्होंने टिंडणू को कहा कि वह उस जगह पर भी पूजा करके आएं जहां से वह उन्हें लेकर आया है. इस दौरान गड़रिये को पीछे मुड़कर न देखने की त्रिलोकीनाथ ने उसे सलाह दी. पूजा करने गए टिंडणू को वहां सात झरने दिखाई दिए. जिन्हें अब सप्तधारा के नाम से जाना जाता है.

उस दौरान टिंडणू ने मुड़कर अपने गांव हिन्सा को देखा. ऐसा करने से त्रिलोकीनाथ और स्वयं टिंडणू भी पत्थर हो गए. जिसके चलते तुंदा गांव का नाम त्रिलोकीनाथ पड़ा और यहां पर भगवान शिव का मंदिर बना. कई दशकों से दोनों धर्मों को अनुयायी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं.

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लाहौल स्पीति: सावन माह शुरू हो गया है. सावन में भगवान शिव की उपासना विशेष फल देने वाली मानी जाती है और भगवान शिव की कृपा से हर मनोकामना पूरी होती है. देवभूमि के लाहौल स्पीति जिल के उदयपुर उपमंडल में बसे त्रिलोकीनाथ गांव में भगवान शिव का मंदिर देश दुनिया से आने वाले श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केंद्र है. इस मंदिर की खास बात यह है कि यहां हिंदू और बौद्ध धर्म के अनुयायी भगवान शिव की आराधना करते हैं. दुनिया में शायद यह इकलौता मंदिर है, जहां एक ही मूर्ति की पूजा दोनों धर्मों के लोग एक साथ करते हैं.

हिंदुओं में त्रिलोकीनाथ देवता को भगवान शिव का रूप माना जाता है, जबकि बौद्ध इनकी पूजा आर्य अवलोकितेश्वर के रूप में करते हैं. हिंदू मानते हैं कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था. वही, बौद्धों के अनुसार पद्मसंभव 8वीं शताब्दी में यहां पर आए थे और उन्होंने इसी जगह पर पूजा की थी. इस मंदिर की एक अन्य खास बात है कि इसके अंदरूनी मुख्य द्वार के दोनों छोर पर बने 2 स्तम्भ मनुष्य के पाप-पुण्य का फैसला करते हैं.

मान्यता है कि जिस व्यक्ति को अपने पाप और पुण्य के बारे में जानना हो वह इन संकरे शिला स्तंभों के मध्य से गुजर सकता है. यदि मनुष्य ने पाप किया होगा तो भले ही वह दुबला-पतला ही क्यों न हो वह इनके पार नहीं जा पाता. वहीं, यदि किसी मनुष्य ने पुण्य कमाया हो तो भले ही उसका शरीर विशालकाय क्यों न हो वह इन स्तंभों के पार चला जाता है. यहां एक ही छत के नीचे शिव और बुद्ध के लिए समर्पित दीप जलाए जाते हैं. लाहौल घाटी में हिंदू और बुद्ध दोनों ही धर्मों के लोग रहते हैं और सबका आपस में भाईचारे का रिश्ता है. मंदिर के कारदार वीर बहादुर सिंह का कहना है कि पाप-पुण्य की इस परंपरा का सदियों से निर्वहन होता आ रहा है. उन्होंने कहा कि स्तंभों के बीच फंसने वाला भविष्य में सद्मार्ग पर चलने का प्रण करके मंदिर से रुखसत होता है.

इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने वनवास के दौरान किया था. वही, अगस्त के महीने में त्रिलोकीनाथ के दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं. क्योंकि इस माहीने में पोरी मेला आयोजित होता है, जिसमें कई लोग शामिल होने आते हैं. पोरी मेला त्रिलोकीनाथ मंदिर और गांव में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला तीन दिनों का भव्य त्योहार है, जिसमें हिंदू और बौद्ध दोनों बड़े उत्साह के साथ शामिल होते हैं. इस पवित्र उत्सव के दौरान सुबह-सुबह, भगवान को दही और दूध से नहलाया जाता है और लोग बड़ी संख्या में मंदिर के आसपास इकट्ठा होते हैं और ढ़ोल नगाड़े बजाए जाते हैं. इस त्यौहार में मंदिर के अन्य अनुष्ठानों का पालन भी किया जाता है.

स्थानीय मान्यता के अनुसार भगवान शिव इस दिन घोड़े पर बैठकर गांव आते हैं. इसी वजह से इस उत्सव के दौरान एक घोड़े को मंदिर के चारों ओर ले जाया जाता है. एक भव्य मेला भी आयोजित किया जाता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस मंदिर से जुड़े कई रहस्य बरकरार हैं, जिनसे कभी पर्दा नहीं उठ सका. ऐसा ही एक मशहूर किस्सा कुल्लू के राजा से जुड़ा हुआ है. मान्यता है कि वह भगवान की इस मूर्ति को अपने साथ ले जाना चाहते थे, हालांकि मूर्ति इतनी भारी हो गई कि इसे उठाया ही नहीं जा सका. संगमरमर की इस मूर्ति की दाईं टांग पर एक निशान भी है. माना जाता है कि यह निशान उसी दौरान कुल्लू के एक सैनिक की तलवार से बना था. मंदिर को कैलाश और मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है.

मंदिर के इतिहास के बारे में एक गड़रिए और त्रिलोकीनाथ के पत्थर होने की कहानी भी इस स्थान से जुड़ी है. पहले इस गांव का नाम तुंदा बताया जाता है. इस गांव की कुछ दूरी पर हिन्सा गांव था. जहां टिंडणू गड़रिया रहता था. जो गांव वालों की भेड़-बकरियां चराता था. पर इन बकरियों का दूध कोई दुह लेता था. इसका न तो गांव वालों को और न ही गड़रिए को पता चलता था. गांव वालों ने मिथ्या आरोप टिंडणू पर जड़ दिए कि वह उनकी बकरियों का दूध चुरा लेता है. इस आरोप से टिंडणू तिलमिला गया. गड़रिया अपमान के घूंट पीकर रह गया था, लेकिन उसने इस आरोप को झूठा साबित करने और चोर को ढूंढ निकालने का संकल्प लिया.

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उसने एक स्थान पर देखा कि एक पानी के स्रोत से सात मानव आकृतियां निकलीं और उन्होंने बकरियों को दुहना शुरू कर दिया. उन्हें पकड़ने की टिंडणू ने कोशिश की लेकिन सफेद कपड़ों में एक व्यक्ति को ही पकड़ पाया. इस व्यक्ति ने टिंडणू से उसे छोड़ने का आग्रह किया, लेकिन टिंडणू पर तो चोर को पकड़ने से अधिक वह अपने मिथ्या आरोप को झुठलाना चाहता था. वह उसे गांव हिन्सा तक ले आया. वहां गांव वालों को उसने इस चोर के बारे में बताया, लेकिन ग्रामीणों को लगा कि यह व्यक्ति मानव नहीं है. उन्हें लगा कि यह कोई देवता हैं. जिस कारण वहां के लोगों ने घी और दूध से उस व्यक्ति की पूजा की.

इसके बाद उसने बताया कि वह त्रिलोकीनाथ हैं और यहीं कहीं वह रहना चाहेंगे. उन्हें तुंदा गांव बहुत पसंद आया. बाद में उन्होंने टिंडणू को कहा कि वह उस जगह पर भी पूजा करके आएं जहां से वह उन्हें लेकर आया है. इस दौरान गड़रिये को पीछे मुड़कर न देखने की त्रिलोकीनाथ ने उसे सलाह दी. पूजा करने गए टिंडणू को वहां सात झरने दिखाई दिए. जिन्हें अब सप्तधारा के नाम से जाना जाता है.

उस दौरान टिंडणू ने मुड़कर अपने गांव हिन्सा को देखा. ऐसा करने से त्रिलोकीनाथ और स्वयं टिंडणू भी पत्थर हो गए. जिसके चलते तुंदा गांव का नाम त्रिलोकीनाथ पड़ा और यहां पर भगवान शिव का मंदिर बना. कई दशकों से दोनों धर्मों को अनुयायी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं.

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