करनाल: समय के साथ दुनिया आगे बढ़ी है. आधुनिकता के इस दौर में लोगों ने अपने रहन-सहन में भी बदलाव किया है. इसका सीधा असर उन जातियों और जन-जातियों को हुआ जो पुश्तैनी काम को रोजगार के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती रहीं हैं. इन्ही जातियों में एक है गडरिया समाज जिनका अस्तित्व अब खत्म होने के कागार पर है. समय की दौड़ में इनके पुश्तैनी काम से दो वक्त की रोजी रोटी का जुगाड़ कर पाना मुश्किल (Business Crisis Of Shepherd Society) हो चुका है.
हरियाणा के करनाल में भेंड़ पालन (sheep rearing business in karnal) का धंधा पहले बड़े पैमाने पर होता था. बड़थल गांव के भेड़ पालक कलीराम के बड़े-बुजुर्ग दशकों से भेंड़ पालन करते आ रहे हैं. कलीराम ने भी अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाया और भेड़ों का पालन करते रहे, लेकिन अब इस पुश्तैनी काम को उनकी अगली पीढ़ी नहीं अपनाएगी. कलिराम का कहना है कि भेड़ पालन घाटे का सौदा है. इस वजह से नए बच्चे इस काम में नहीं आना चाहते.
वहीं एक अन्य भेड़ पालक हरी राम ने कहा कि हमारी एक भेड़ से साल में तीन बार ऊन को लिया जाता है. 4 महीने में ऊन तैयार हो जाती है जो एक भेड़ से 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक मिल जाती है, लेकिन अब उनकी ऊन 15 सौ से दो हजार रुपये प्रति क्विंटल बिक रही है. उन्होंने कहा कि एक समय होता था जब कपास के बाद ऊन का सबसे ज्यादा प्रयोग कपड़ों में किया जाता था. उसी के चलते एशिया की सबसे बड़ी ऊन की मंडी कभी पानीपत में हुआ करती थी. अब वह भी खत्म हो चुकी है.
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एक अन्य भेड़ पालक बिछा राम ने कहा कि जब उन्होंने होश संभाला था तब ऊन सात से आठ हजार प्रति क्विंटल के हिसाब से बिक जाती थी, लेकिन मौजूदा समय में अब ऊन को मजबूरन कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ रही है. जो पहले सौ भेड़ रखते थे अब वह 30 भेड़ रखते हैं और आने वाले समय में और भी कम हो जाएंगे. उन्होंने सरकार से अपील की है कि गडरिया समाज के लिए कुछ कदम उठाए जाएं, ताकि उनका पुश्तैनी काम चल जाए.
वहीं गडरिया जाति के युवा सोनिपाल ने कहा कि उनका यह काम चौपट होता जा रहा है. उन्होंने कहा कि हम अपनी कच्ची ऊन बेच कर आते हैं, लेकिन वही जब ऊन जब बाजार में आती है तो काफी अच्छे भाव में आती है. जिसका मुनाफा व्यापारी लोग उठा रहे हैं जबकि किसानों की तरह गडरियों को इसका लाभ नहीं मिल रहा. उनके सामने रोजगार की बड़ी समस्या खड़ी हो रही है. आने वाली पीढ़ियां इसकी तरफ बिल्कुल नहीं जा रही, इसलिए सरकार को इन जातियों के प्रति कुछ कदम उठाने चाहिए. जिससे उनका उद्धार हो सके.
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गडरिया समाज दशकों से चरवाहे की जिंदगी जी रहा है. ऊन बेचकर गुजर बसर कर रहे हैं, लेकिन आधुनिकता के दौर में ऊन के सस्ते और फैंसी विकल्पों ने गडरियों के पुश्तैनी काम पर गहरा असर डाला है. गडरिया समाज के पास ना खुद की जमीन है, ना ही कोई ठिकाना, उनके पास सिर्फ दशकों से चली आ रही संस्कृति है, जिसका रक्षण समाज में संतुलन बनाने के लिए काफी जरूरी है.
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