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जानिए 71 की लड़ाई में गुम हो चुके जल सैनिक इंद्रजीत की कहानी, जिसे सरकार और मीडिया ने भुला दिया

पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक सिलसिला चल निकाला है, देश के सैनिकों के प्रति हमदर्दी का. यानि सैनिकों के प्रति हम कितने ईमानदार हैं? शहीद हो चुके सैनिकों के परिवारों के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियां हैं? हालाकि इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं, ये बात इस खबर को पढ़ने के बाद काफी हद तक साफ हो जाएगी.

जल सैनिक इंद्रजीत की कहानी
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Published : Mar 4, 2019, 9:41 PM IST

फतेहाबाद: पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक सिलसिला चल निकाला, देश के सैनिकों के प्रति हमदर्दी का. यानि सैनिकों के प्रति हम कितने ईमानदार हैं? शहीद हो चुके सैनिकों के परिवारों के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियां हैं? हालाकि इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं, ये बात इस खबर को पढ़ने के बाद काफी हद तक साफ हो जाएगी.

हर कोई जानता है कि देश ने 1948-49, 1962, 1965, 1971 और 1999 में दुश्मन देशों के खिलाफ, मुल्क की हिफाजत के खातिर, ना केवल लड़ाई लड़ी, बल्कि ऐतिहासिक जीत भी दर्ज की हैं. लेकिन जिस तरह से मौजूदा दौर में शहीद हो रहे सैनिकों के मान-सम्मान के लिए समूचा देश गली-नुक्कड़ से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत यानि संसद भवन में हर तरह की जोर-आजमाइश कर रहा है, ऐसा पहला ना होता था.

बेशक मीडिया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है. तो क्या पहले के युद्धों में देश के खातिर शहीद हुए फौजियों के साथ नाइंसाफी जायज है, हरगिज नहीं. क्योंकि उन्होंने भी राजस्थान के कच्छ में, मई-जून की तपती रेत में और दिसंबर-जनवरी में जम्मू-कश्मीर में माइनस 20 डिग्री में देश की भौगोलिक सीमाओं की बाकायदा रक्षा की है. बहरहाल आज हम आपको एक ऐसे ही सैनिक की कहानी बताएंगे, जिसके बाद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे.

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सन 71 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत की बड़ी जीत हुई और पाकिस्तान के टूकड़े होकर एक नया मुल्क दुनिया के मानचित्र पर आ गया, जिसे बांग्लादेश कहा जाता है, 1971 से पहले इसे ही पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था. बहरहाल इस युद्ध से जांबाज विजेता टीम के एक ऐसे जल सैनिक की कहानी भी जुड़ी हुई है, जिनका पार्थिव शव आज तक घर नहीं पहुंच पाया है, वैसे अब एक मुद्दत पहले ही परिजनों ने भी हार मानते हुए, आस छोड़ भी दी, भले ही मजबूरी के चलते, क्योंकि सब्र ही मुश्किल घड़ी पर प्रहार कर सकता है.


जी हां हम बात कर रहे हैं, हरियाणा के टोहाना से ताल्लुक रखने वाले जल सैनिक इंद्रजीत की. सन 1965 में हुई इंडो-पाक वॉर का इंद्रजीत के दिलो-दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि उसी समय इंद्रजीत ने ठान लिया कि मुझ हर-हालत में फौज में शामिल होकर देश की सेवा करना है..

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मगर अफसोस की बात तो ये है कि भारत-पाक के युद्ध में जिस जल सैनिक का शव भी उसके परिवार को नसीब नहीं हुआ हो, उनके परिजनों को सुविधाएं मिलना तो दूर की बात है, आती-जाती सरकारों ने भी पूरी तरह से शहीद हुए जल सैनिक के परिवार को पूरी तरह से भूला दिया. देशभक्ति के बुखार में यह कहानी आपके शरीर में सिहरन पैदा कर देगी. आप खुद से सवाल करें, साथ में प्रश्न तो सरकारों से भी किए जाने चाहिएं कि वे दुश्मनों को नाकों चनें चबवा देने वाले सैनिकों के परिवार के प्रति और उनकी विरासत के प्रति कितनी ईमानदार रही हैं,

ये जगजाहिर है कि 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई में, महज 23 साल की उम्र में विजेता टीम का हिस्सा बने. आपको बता दें कि जब हिंदुस्तानी सैनिक कराची से जीत का जश्र मना कर वापस लौट रहे थे, तो आईएनएस खुखरी को दुश्मन की पनडुब्बी ने धवस्त कर दिया, इसमें टोहाना का जल सैनिक भी शामिल था, जिसका नाम था इंद्रजीत.

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पहले परिवार को सूचना मिली कि इंद्रजीत लापता है, लेकिन वक्त बीतता गया और आखिरकार लाख कोशिशों के बावजूद भी परिजनों को इंद्रजीत का कुछ अता-पता नहीं चल सका. ये परिवार ऐसा बदनसीब रहा कि अपने जिगर के टुकड़े का पार्थिव शव भी उसके हिस्से में नहीं आ सका. इंद्रजीत के बड़े भाई गुरमीत सिंह गुजर चुके लम्हों को याद करते हुए कहते हैं कि प्रंशसा पत्र प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उस वक्त के मुख्यमंत्री बंसी लाल और सेना के बड़े से बड़े अफसरों के जरिए दिए गए.

इंद्रजीत की तारीफों के कसीदे पढ़े गए, टोहाना में एक गली का नाम इंद्रजीत मार्ग रखा गया. पर दो साल बाद उनके नाम का बोर्ड गायब हुआ, वैसे ही टोहाना के साथ शासन- प्रशासन ने भी उन्हें नजरअंदाज कर दिया. 1971 के बाद हर साल गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस, आते-जाते रहे, लेकिन कभी शहीद परिवार को किसी ने याद करने की जरुरत नहीं समझी. गुरमीत सिंह सवाल उठाते हैं कि जो कौम शहीदों को भुला देती है, आने वाला इतिहास उन्हें भी भुला देता है. तो सवाल यही उठता है कि आती-जाती सरकारें सैनिक परिवारों की सुध क्यों नहीं लेना चाहती, या फिर यह मान लिया जाना चाहिए कि एक वक्त के बाद सबको भुला देना ही प्रकृति का नियम है.

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फतेहाबाद: पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक सिलसिला चल निकाला, देश के सैनिकों के प्रति हमदर्दी का. यानि सैनिकों के प्रति हम कितने ईमानदार हैं? शहीद हो चुके सैनिकों के परिवारों के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियां हैं? हालाकि इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं, ये बात इस खबर को पढ़ने के बाद काफी हद तक साफ हो जाएगी.

हर कोई जानता है कि देश ने 1948-49, 1962, 1965, 1971 और 1999 में दुश्मन देशों के खिलाफ, मुल्क की हिफाजत के खातिर, ना केवल लड़ाई लड़ी, बल्कि ऐतिहासिक जीत भी दर्ज की हैं. लेकिन जिस तरह से मौजूदा दौर में शहीद हो रहे सैनिकों के मान-सम्मान के लिए समूचा देश गली-नुक्कड़ से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत यानि संसद भवन में हर तरह की जोर-आजमाइश कर रहा है, ऐसा पहला ना होता था.

बेशक मीडिया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है. तो क्या पहले के युद्धों में देश के खातिर शहीद हुए फौजियों के साथ नाइंसाफी जायज है, हरगिज नहीं. क्योंकि उन्होंने भी राजस्थान के कच्छ में, मई-जून की तपती रेत में और दिसंबर-जनवरी में जम्मू-कश्मीर में माइनस 20 डिग्री में देश की भौगोलिक सीमाओं की बाकायदा रक्षा की है. बहरहाल आज हम आपको एक ऐसे ही सैनिक की कहानी बताएंगे, जिसके बाद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे.

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सन 71 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत की बड़ी जीत हुई और पाकिस्तान के टूकड़े होकर एक नया मुल्क दुनिया के मानचित्र पर आ गया, जिसे बांग्लादेश कहा जाता है, 1971 से पहले इसे ही पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था. बहरहाल इस युद्ध से जांबाज विजेता टीम के एक ऐसे जल सैनिक की कहानी भी जुड़ी हुई है, जिनका पार्थिव शव आज तक घर नहीं पहुंच पाया है, वैसे अब एक मुद्दत पहले ही परिजनों ने भी हार मानते हुए, आस छोड़ भी दी, भले ही मजबूरी के चलते, क्योंकि सब्र ही मुश्किल घड़ी पर प्रहार कर सकता है.


जी हां हम बात कर रहे हैं, हरियाणा के टोहाना से ताल्लुक रखने वाले जल सैनिक इंद्रजीत की. सन 1965 में हुई इंडो-पाक वॉर का इंद्रजीत के दिलो-दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि उसी समय इंद्रजीत ने ठान लिया कि मुझ हर-हालत में फौज में शामिल होकर देश की सेवा करना है..

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मगर अफसोस की बात तो ये है कि भारत-पाक के युद्ध में जिस जल सैनिक का शव भी उसके परिवार को नसीब नहीं हुआ हो, उनके परिजनों को सुविधाएं मिलना तो दूर की बात है, आती-जाती सरकारों ने भी पूरी तरह से शहीद हुए जल सैनिक के परिवार को पूरी तरह से भूला दिया. देशभक्ति के बुखार में यह कहानी आपके शरीर में सिहरन पैदा कर देगी. आप खुद से सवाल करें, साथ में प्रश्न तो सरकारों से भी किए जाने चाहिएं कि वे दुश्मनों को नाकों चनें चबवा देने वाले सैनिकों के परिवार के प्रति और उनकी विरासत के प्रति कितनी ईमानदार रही हैं,

ये जगजाहिर है कि 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई में, महज 23 साल की उम्र में विजेता टीम का हिस्सा बने. आपको बता दें कि जब हिंदुस्तानी सैनिक कराची से जीत का जश्र मना कर वापस लौट रहे थे, तो आईएनएस खुखरी को दुश्मन की पनडुब्बी ने धवस्त कर दिया, इसमें टोहाना का जल सैनिक भी शामिल था, जिसका नाम था इंद्रजीत.

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पहले परिवार को सूचना मिली कि इंद्रजीत लापता है, लेकिन वक्त बीतता गया और आखिरकार लाख कोशिशों के बावजूद भी परिजनों को इंद्रजीत का कुछ अता-पता नहीं चल सका. ये परिवार ऐसा बदनसीब रहा कि अपने जिगर के टुकड़े का पार्थिव शव भी उसके हिस्से में नहीं आ सका. इंद्रजीत के बड़े भाई गुरमीत सिंह गुजर चुके लम्हों को याद करते हुए कहते हैं कि प्रंशसा पत्र प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उस वक्त के मुख्यमंत्री बंसी लाल और सेना के बड़े से बड़े अफसरों के जरिए दिए गए.

इंद्रजीत की तारीफों के कसीदे पढ़े गए, टोहाना में एक गली का नाम इंद्रजीत मार्ग रखा गया. पर दो साल बाद उनके नाम का बोर्ड गायब हुआ, वैसे ही टोहाना के साथ शासन- प्रशासन ने भी उन्हें नजरअंदाज कर दिया. 1971 के बाद हर साल गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस, आते-जाते रहे, लेकिन कभी शहीद परिवार को किसी ने याद करने की जरुरत नहीं समझी. गुरमीत सिंह सवाल उठाते हैं कि जो कौम शहीदों को भुला देती है, आने वाला इतिहास उन्हें भी भुला देता है. तो सवाल यही उठता है कि आती-जाती सरकारें सैनिक परिवारों की सुध क्यों नहीं लेना चाहती, या फिर यह मान लिया जाना चाहिए कि एक वक्त के बाद सबको भुला देना ही प्रकृति का नियम है.

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फतेहाबाद
कितने ईमानदार है हम सैनिकों के परिवारों के प्रति, कितना याद रखा, कितना रखा उनके परिवार का ख्खयाल। भारत-पाक 71 युद्ध के जांबाज विजेता टीम के जलसैनिक इन्द्रजीत की कहानी उसके पार्थिव शव की तरह समय की गुमनाम गलियों में खो गई। एक गली का नाम उसके नाम पर रखा उसका बोर्ड भी दो साल बाद गायब हो गया। परिवार को मिली 500रूपए लगभग पैंशन मिले व नेताओं उस समय के प्रंशसा पत्र।  सुविधाए मिलना तो दूर की बात है इस परिवार को पुरी तरह से स्थानिय निवासियों ने व आती-जाती सरकारों ने भूला दिया। देशभक्ति के बुखार में यह कहानी आपके शरीर में सिहरन पैदा कर देगी। आप खुद से सवाल करे साथ में सरकारों से भी सवाल करे कितने ईमानदार है हम सैनिकों के प्रति उनके परिवार के प्रति उनकी विरासत के प्रति। 
एंकर वाईस -
भारत-पाक 1971 का जलसैनिक जिसका शव भी उसके परिवार को नसीब नहीं हुआ। परिवार को सुविधाएं क्या मिलनी थी उसके नाम पर रखी गई सड़क का बोर्ड भी गायब हो गया। मां-बाप ने भेजा तो उसे आईटीआई मे दाखिला लेने, लेकिन वो नैवी में भर्ती हो गया। भारत-पाक 1971 के युद्ध में 23 साल की उम्र में विजेता टीम का हिस्सा बना। जब कराची से जीत का जश्र मना कर लौट रहे थे तो आईएनएस खुखरी को दुश्मन की पनडुब्बी ने धवस्त कर दिया(विकिपिडया पर इस युद्ध का ब्यौरा मौजूदा है जिसमें इस जलपोत का जिक्र किया गया है)। इसमें टोहाना का जलसैनिक भी शामिल था नाम था इन्द्रजीत। पहले परिवार को सुचना मिली की इन्द्रजीत लापता है। बाद में सुचना मिली कि उसका कुछ पता नहीं चला इसलिए उसके नाम को भी मृतकों की लिस्ट में शामिल कर लिया गया। ये परिवार ऐसा बदनसीब रहा कि पार्थिव शव भी उनके हिस्से में नहीं आया। परिवार ने अपना नौजवान देश की सेवा में लगा दिया। उसकी याद को लेकर एक सड़क का नाम रख्ख्खा गया बोर्ड लगाया गया पर दो साल में ही वो गायब हो गया। कोई नहीं जानता कि इस सड़क का नाम कभी इन्द्रजीत मार्ग रखा गया था। परिवार को कभी भी न तो विशेष तौर पर किस कार्यक्रम में बुलाया गया ना ही कोई विशेष सुविधा मिली। परिवार स्वाभिमान में रहा कि उनके बेटे की शहादत का कोई मोल नहीं पर रह-रह कर यह टीस जरूर उठती है कि क्या सारी देशभक्ति,सैनिकों के लिए प्रेम दिखाने भर के लिए होता है बाद में उनहें इसी तरह से भुला दिया जाता है।
    इन्द्रजीत की कहानी उस किशोर की है जिसे चाव था सेना में भर्ती होने का, छोटी उम्र में भर्ती हो गया जिसे आम बोली में बच्चा फौज कहा जाता थातकनीकी भाषा में जलसैना बुआएं सीमेन कहा जाता था।। उनके बडे भाई गुरमीत सिंह बताते है कि इन्द्रजीत पर तत्कालीन भारत पाक-65 युद्ध का ख्पुर्ण प्रभाव था वही से उठा जज्बा उसे सेना में ले आया। टोहाना के ही सरकारी स्कूल में उसने शिक्षा ग्रहण की दसवी कक्षा उर्तीण की। उसके जोश व काबलियत को देखते हुए जल्दी ही पदोउन्नति दी गई। वर्ष 65 उपरान्त 71 की भारत-पाक युद्ध में उनके नौसैनिक पोत को जो टारगेट मिली उसके तहत उन्होंने पाक के कराची बन्दगाह में पहुच कर पाक की तमाम सप्लाई को काट दिया। इसके बाद सभी नौसैनिक युद्ध पोत आईएनएस खुखरी में जश्र मानते हुए वापिस आ रहे थे कि दुश्मन की पन्नडुब्बी ने हमला कर दिया। रूस के मजबुत बने युद्धपोत ने तीन हमले बडे झेले पर इस बीच अमरीकी तकनीक की बनी पन्नडुब्बी ने हमला उनका जलपोत तीन टुकडों में बाट दिया। सब सैनिक समुद्र में कुद गए। किश्तियां पानी मे उतारी गई। लाईफ जैकट पहनी गई। भारतिय सेना की तरफ से हवाई मदद भी ली गई पर मौसम ने साथ नहीं दिया। पुर्मिणा होने के चलते ज्वारा-भाटा उभार पर था। 350 में से लगभग 66 सैनिकों को ही बख्चाया जा सका। इन्द्रजीत का परिवार उनही बदनसीब परिवारों में शामिल था जिन्हें उनके बेटे का पार्थिव शव भी नहीं मिला।
    तत्कालीन समय की बात करे तो प्रंशसा पत्र प्रधानमत्री इन्दिरा गांधी, मुखयमन्त्री बंशी लाल सेना के अफसरों के द्वारा दिए गए। खुब प्रंशसा की गई टोहाना में एक गली का नाम उनके नाम पर इन्द्रजीत मार्ग रखा गया। पर दो साल बाद उनके नाम का जैसे बोर्ड गायब हुआ वैसे ही टोहाना के साथ शासन प्रशासन ने उसे भुला दिया। गणतन्त्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस कभी परिवार को याद नहीं किया गया। मदद की तो बात ही छोड दे। गुरमीत सिंह सवाल उडाते है कि जो कौम शहीदों को भुला देती है आने वाला इतिहास उन्हे भुला देता है। आती-जाती सरकारों को लोगों को सैनिक परिवारों की मदद रखनी चाहिए। केवल नारों से मंचीय भाषणों से कुछ नहीं होने वाला।
बाईट - गुरमीत सिंह नौसैनिक इन्द्रजीत का बडा भाई।









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