फतेहाबाद: पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक सिलसिला चल निकाला, देश के सैनिकों के प्रति हमदर्दी का. यानि सैनिकों के प्रति हम कितने ईमानदार हैं? शहीद हो चुके सैनिकों के परिवारों के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियां हैं? हालाकि इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी नहीं, ये बात इस खबर को पढ़ने के बाद काफी हद तक साफ हो जाएगी.
हर कोई जानता है कि देश ने 1948-49, 1962, 1965, 1971 और 1999 में दुश्मन देशों के खिलाफ, मुल्क की हिफाजत के खातिर, ना केवल लड़ाई लड़ी, बल्कि ऐतिहासिक जीत भी दर्ज की हैं. लेकिन जिस तरह से मौजूदा दौर में शहीद हो रहे सैनिकों के मान-सम्मान के लिए समूचा देश गली-नुक्कड़ से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत यानि संसद भवन में हर तरह की जोर-आजमाइश कर रहा है, ऐसा पहला ना होता था.
बेशक मीडिया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है. तो क्या पहले के युद्धों में देश के खातिर शहीद हुए फौजियों के साथ नाइंसाफी जायज है, हरगिज नहीं. क्योंकि उन्होंने भी राजस्थान के कच्छ में, मई-जून की तपती रेत में और दिसंबर-जनवरी में जम्मू-कश्मीर में माइनस 20 डिग्री में देश की भौगोलिक सीमाओं की बाकायदा रक्षा की है. बहरहाल आज हम आपको एक ऐसे ही सैनिक की कहानी बताएंगे, जिसके बाद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे.
सन 71 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत की बड़ी जीत हुई और पाकिस्तान के टूकड़े होकर एक नया मुल्क दुनिया के मानचित्र पर आ गया, जिसे बांग्लादेश कहा जाता है, 1971 से पहले इसे ही पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था. बहरहाल इस युद्ध से जांबाज विजेता टीम के एक ऐसे जल सैनिक की कहानी भी जुड़ी हुई है, जिनका पार्थिव शव आज तक घर नहीं पहुंच पाया है, वैसे अब एक मुद्दत पहले ही परिजनों ने भी हार मानते हुए, आस छोड़ भी दी, भले ही मजबूरी के चलते, क्योंकि सब्र ही मुश्किल घड़ी पर प्रहार कर सकता है.
जी हां हम बात कर रहे हैं, हरियाणा के टोहाना से ताल्लुक रखने वाले जल सैनिक इंद्रजीत की. सन 1965 में हुई इंडो-पाक वॉर का इंद्रजीत के दिलो-दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि उसी समय इंद्रजीत ने ठान लिया कि मुझ हर-हालत में फौज में शामिल होकर देश की सेवा करना है..
मगर अफसोस की बात तो ये है कि भारत-पाक के युद्ध में जिस जल सैनिक का शव भी उसके परिवार को नसीब नहीं हुआ हो, उनके परिजनों को सुविधाएं मिलना तो दूर की बात है, आती-जाती सरकारों ने भी पूरी तरह से शहीद हुए जल सैनिक के परिवार को पूरी तरह से भूला दिया. देशभक्ति के बुखार में यह कहानी आपके शरीर में सिहरन पैदा कर देगी. आप खुद से सवाल करें, साथ में प्रश्न तो सरकारों से भी किए जाने चाहिएं कि वे दुश्मनों को नाकों चनें चबवा देने वाले सैनिकों के परिवार के प्रति और उनकी विरासत के प्रति कितनी ईमानदार रही हैं,
ये जगजाहिर है कि 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई में, महज 23 साल की उम्र में विजेता टीम का हिस्सा बने. आपको बता दें कि जब हिंदुस्तानी सैनिक कराची से जीत का जश्र मना कर वापस लौट रहे थे, तो आईएनएस खुखरी को दुश्मन की पनडुब्बी ने धवस्त कर दिया, इसमें टोहाना का जल सैनिक भी शामिल था, जिसका नाम था इंद्रजीत.
पहले परिवार को सूचना मिली कि इंद्रजीत लापता है, लेकिन वक्त बीतता गया और आखिरकार लाख कोशिशों के बावजूद भी परिजनों को इंद्रजीत का कुछ अता-पता नहीं चल सका. ये परिवार ऐसा बदनसीब रहा कि अपने जिगर के टुकड़े का पार्थिव शव भी उसके हिस्से में नहीं आ सका. इंद्रजीत के बड़े भाई गुरमीत सिंह गुजर चुके लम्हों को याद करते हुए कहते हैं कि प्रंशसा पत्र प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उस वक्त के मुख्यमंत्री बंसी लाल और सेना के बड़े से बड़े अफसरों के जरिए दिए गए.
इंद्रजीत की तारीफों के कसीदे पढ़े गए, टोहाना में एक गली का नाम इंद्रजीत मार्ग रखा गया. पर दो साल बाद उनके नाम का बोर्ड गायब हुआ, वैसे ही टोहाना के साथ शासन- प्रशासन ने भी उन्हें नजरअंदाज कर दिया. 1971 के बाद हर साल गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस, आते-जाते रहे, लेकिन कभी शहीद परिवार को किसी ने याद करने की जरुरत नहीं समझी. गुरमीत सिंह सवाल उठाते हैं कि जो कौम शहीदों को भुला देती है, आने वाला इतिहास उन्हें भी भुला देता है. तो सवाल यही उठता है कि आती-जाती सरकारें सैनिक परिवारों की सुध क्यों नहीं लेना चाहती, या फिर यह मान लिया जाना चाहिए कि एक वक्त के बाद सबको भुला देना ही प्रकृति का नियम है.