जयपुर : पूरी दुनिया में फैले कोरोना संक्रमण के कारण सबकुछ अस्त-व्यस्त हो गया है. शिक्षा जगत भी इससे अछूता नहीं रहा है. संक्रमण फैलने के साथ ही स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए थे, जो अभी तक नहीं खुले हैं. ऐसे में विकल्प के तौर पर ऑनलाइन एजुकेशन का चलन एकाएक बढ़ गया है. हालांकि इसे लेकर गरीब और मध्यमवर्गीय छात्र-अभिभावक दोनों ही दबाव में हैं.
फोन या लैपटॉप पर तीन से चार घंटे रोजाना पढ़ाई करने से एक ओर जहां छात्रों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है, तो वहीं अभिभावक भी लंबे खर्चे की चपेट में आ गए हैं. ज्यादातर अभिभावक और छात्र ऑनलाइन क्लासेज के विरोध में हैं, लेकिन स्कूल प्रशासन के दबाव के आगे वे को बेबस सा महसूस कर रहे हैं. बच्चों का कहना है कि ऑनलाइन क्लासेज में यदि कुछ समझ में नहीं आता तो दोबारा पूछ भी नहीं पाते. इसके अलावा बीच-बीच में नेटवर्क खराब होने से भी दिक्कत होती है.
सरहदी जिले बाड़मेर में ऑनलाइन एजुकेशन को लेकर अभिभावक असमंजस की स्थिति में नजर आए. एक अभिभावक डालू राम चौधरी का कहना है कि यहां नेटवर्क भी ठीक से नहीं आता है. लोगों की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि परिवार के सभी बच्चों के लिए मोबाइल उपलब्ध करवाया जा सके.
एक अन्य अभिभावक कौशलाराम ने बताया कि ग्रामीण इलाकों में ऑनलाइन एजुकेशन संभव ही नहीं है. ग्रामीण इलाकों में गरीब परिवार के बच्चों के पास फोन नहीं होता है तो पढ़ाई कहां से संभव होगी.
वहीं, अभिभावक प्रवीण बोथरा ने कहा कि हम जिस इलाके में वहां इंटरनेट सबसे अंतिम में देखा जाता है.
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इस मामले में मनोचिकित्सक आरके सोलंकी से बात की गई तो उन्होंने बताया कि ऑनलाइन क्लासेज से मेंटल स्ट्रेस भी बढ़ता है और बच्चे ध्यान भी केंद्रित नहीं कर पाते. इसके अलावा शारीरिक थकान भी अधिक महसूस होती है.
वैसे तो पारंपरिक शिक्षा का अलग ही महत्व है, लेकिन कोरोना काल में यह संभव नहीं है. ऐसे में 'कुछ ना' से 'कुछ' के विकल्प को चुनते हुए ऑनलाइन एजुकेशन को बढ़ावा दिया जा रहा है. ऑनलाइन एजुकेशन छात्र और शिक्षक के बीच आशा की किरण तो बनकर उभरी है, लेकिन साथ ही यह अपने साथ कई तरह की 'चुनौतियां' और 'समस्याएं' भी लेकर आई है. ऐसे में छात्रों के साथ अभिभावकों के लिए भी यह टेढ़ी खीर ही साबित हो रही है.
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