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आखिर अपने ही घर में कैसे मात खा गए दीपेंद्र हुड्डा? देखिए पूरी रिपोर्ट

हरियाणा की रोहतक लोकसभा सीट कांग्रेस के लिए बेहद खास रही है. जाट बहुल इस सीट पर अधिकतर समय कांग्रेस का ही कब्जा रहा है लेकिन इस बार ये सीट भी पार्टी के हाथ से निकल गई. रोहतक लोकसभा सीट के अंतर्गत नौ विधानसभा सीटें आती हैं जिनमें- रोहतक, बहादुरगढ़, बादली, झज्जर, गढ़ी-सांपला-किलोई, महम, कलानौर, बेरी और कोसली हैं.

deepender hooda's defeat
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Published : May 26, 2019, 8:19 PM IST

Updated : May 26, 2019, 11:24 PM IST

रोहतक: हरियाणा में भाजपा ने सभी दस लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन रोहतक सीट की चर्चा सबसे ज्यादा की जा रही है. मतगणना के दिन भी यहां प्रशासन, प्रत्याशियों और उनके समर्थकों की सांसें आखिर तक अटकी रहीं. प्रदेश में अगर कहीं टक्कर दिखी तो वह सिर्फ रोहतक में. यहां शुक्रवार सुबह 4 बजे जाकर परिणाम घोषित किया गया जिसमें अरविंद शर्मा ने अपने पुराने साथी दीपेंद्र हुड्डा का किला आखिर धवस्त कर दिया था.

आखिर क्या हैं दीपेंद्र हुड्डा की हार के कारण ? देखिए ये रिपोर्ट.

क्या हैं इस हार के कारण?
इस जीत के बाद भाजपा पूरी तरह से उत्साहित है लेकिन आखिर ये जीत मिली कैसे और हुड्डा के गढ़ में सेंध कैसे लगी. बेशक मोदी फैक्टर को नकारा नहीं जा सकता लेकिन मोदी लहर तो 2014 में भी थी तब भी दीपेंद्र अपना घर बचाने में कामयाब हो गए थे. दीपेंद्र की हार के कई कारण हैं जैसे कि बीजेपी की अचूक रणनीति, बीजेपी का गैर जाट प्रत्याशी को टिकट देना, कांग्रेस में आपसी मतभेद, बीजेपी के स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का बढ़ चढ़कर चुनाव प्रचार-प्रसार में हिस्सा लेना.

2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद रोहतक लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार दीपेंद्र हुड्डा ने भाजपा प्रत्याशी को 1 लाख 70 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर यहां कांग्रेस का झंडा बुलंद किया था. इससे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में भी दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने इनेलो के प्रत्याशी नफे सिंह राठी को करीब चाढ़े चार लाख वोटों से हराया था. दीपेंद्र के दादा रणबीर सिंह हुड्डा एक स्वतंत्रता सेनानी थे. आजादी के बाद वह तत्कालीन पंजाब सरकार में मंत्री भी रहे. दीपेंद्र के पिता भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी हरियाणा की सांपला सीट से चुनाव जीतकर 2 बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं.

पहली बार अपने दम पर जीतीं बीजेपी

भाजपा को जनसंघ के बैनर तले सिर्फ दो बार ही 1962 और 1971 में यहां से जीत हासिल हुई थी. उसके बाद से रोहतक सीट जीतने की भाजपा की तमाम कोशिशें विफल रही हैं. हालांकि, 1999 चुनाव में भाजपा और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के गठबंधन के बाद इनेलो प्रत्याशी कैप्टन इंदर सिंह यहां से जीतने में कामयाब रहे थे. उसके बाद रोहतक सीट कांग्रेस के ही कब्जे में रही है. जाट बाहुल्य सीट पर हुड्डा घराने की मजबूत पकड़ की वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां प्रचंड मोदी लहर फेल हो गई थी. मगर इस बार बीजेपी की अचूक रणनीति से कांग्रेस को इस इकलौती बची सीट पर भी हार झेलनी पड़ी.

जाट और गैर-जाट की राजनीति ने दिखाया असर

रोहतक में कुल 16.66 लाख वोटर्स में छह लाख से अधिक जाट मतदाताओं की संख्या को देखते हुए यह मिथक कायम था कि यहां से जाट प्रत्याशी ही जीतेगा. मगर बीजेपी ने एक रणनीति के तहत इस बार गैर जाट कार्ड खेलकर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की, यह दांव सफल भी रहा. बीजेपी के रणनीतिकारों का मानना था कि जाटों के वोट पर हुड्डा परिवार की मजबूत पकड़ है, ऐसे में गैर जाट उम्मीदवार खड़ा कर गैर जाट वोटों पर फोकस करना जरूरी है.

चुनाव में मोदी लहर की वजह से जहां बीजेपी कुछ जाट वोट बैंक में भी सेंध लगाने में सफल रही, वहीं गैर जाट वोटर्स भी एकजुट हो गए. रोहतक के जातीय समीकरण देखें तो यहां जाटों के बाद सबसे ज्यादा चार लाख दलित हैं, इसके अलावा करीब दो लाख यादव व अन्य जातियों के वोटर हैं. गैर जाटों के एकजुट होकर बीजेपी को वोट करने से जाट बहुल इस सीट पर कांग्रेस तीन बार के सांसद दीपेंद्र हुड्डा अपनी सीट नहीं बचा सके.

सीएम मनोहर लाल और उनके मंत्री भी हैं जीत का एक कारण

बेशक भाजपा ने ये चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा, लेकिन केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार की नीतियों को सीएम, मंत्रिमंडल और पार्टी कार्यकर्ताओं ने घर-घर तक पहुंचाया. फिर चाहे वो उज्जवला योजना, हर घर शौचालय, किसान सम्मान निधि, सौभाग्य व जन-धन योजना के अलावा हरियाणा में ग्रुप डी के साथ ही बड़े पैमाने पर भर्ती का भाजपा को चुनाव में बड़ा लाभ मिला.

वहीं सहकारिता राज्य मंत्री मनीष ग्रोवर भी लोकसभा चुनाव में एक तरह से किंगमेकर बनकर उभरे हैं. रोहतक नगर निगम मेयर का चुनाव जीतने के बाद ही मंत्री ग्रोवर ने दावा किया था कि रोहतक से दीपेंद्र सिंह हुड्डा को हरा सकते हैं और हराएंगे. साथ ही अरविंद शर्मा के लिए रोहतक का क्षेत्र नया रहा, मगर उन्होंने सुबह छह से लेकर रात दो बजे तक सक्रिय रहकर संसदीय सीट के 80 से 85 प्रतिशत इलाकों में मौजूदगी दर्ज कराई. यह अपने आप में रिकॉर्ड है. पोलिंग के आखिरी दिनों में जनता उनके पक्ष में झुक गई और नतीजा आज सामने है.

रोहतक: हरियाणा में भाजपा ने सभी दस लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन रोहतक सीट की चर्चा सबसे ज्यादा की जा रही है. मतगणना के दिन भी यहां प्रशासन, प्रत्याशियों और उनके समर्थकों की सांसें आखिर तक अटकी रहीं. प्रदेश में अगर कहीं टक्कर दिखी तो वह सिर्फ रोहतक में. यहां शुक्रवार सुबह 4 बजे जाकर परिणाम घोषित किया गया जिसमें अरविंद शर्मा ने अपने पुराने साथी दीपेंद्र हुड्डा का किला आखिर धवस्त कर दिया था.

आखिर क्या हैं दीपेंद्र हुड्डा की हार के कारण ? देखिए ये रिपोर्ट.

क्या हैं इस हार के कारण?
इस जीत के बाद भाजपा पूरी तरह से उत्साहित है लेकिन आखिर ये जीत मिली कैसे और हुड्डा के गढ़ में सेंध कैसे लगी. बेशक मोदी फैक्टर को नकारा नहीं जा सकता लेकिन मोदी लहर तो 2014 में भी थी तब भी दीपेंद्र अपना घर बचाने में कामयाब हो गए थे. दीपेंद्र की हार के कई कारण हैं जैसे कि बीजेपी की अचूक रणनीति, बीजेपी का गैर जाट प्रत्याशी को टिकट देना, कांग्रेस में आपसी मतभेद, बीजेपी के स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का बढ़ चढ़कर चुनाव प्रचार-प्रसार में हिस्सा लेना.

2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद रोहतक लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार दीपेंद्र हुड्डा ने भाजपा प्रत्याशी को 1 लाख 70 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर यहां कांग्रेस का झंडा बुलंद किया था. इससे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में भी दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने इनेलो के प्रत्याशी नफे सिंह राठी को करीब चाढ़े चार लाख वोटों से हराया था. दीपेंद्र के दादा रणबीर सिंह हुड्डा एक स्वतंत्रता सेनानी थे. आजादी के बाद वह तत्कालीन पंजाब सरकार में मंत्री भी रहे. दीपेंद्र के पिता भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी हरियाणा की सांपला सीट से चुनाव जीतकर 2 बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं.

पहली बार अपने दम पर जीतीं बीजेपी

भाजपा को जनसंघ के बैनर तले सिर्फ दो बार ही 1962 और 1971 में यहां से जीत हासिल हुई थी. उसके बाद से रोहतक सीट जीतने की भाजपा की तमाम कोशिशें विफल रही हैं. हालांकि, 1999 चुनाव में भाजपा और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के गठबंधन के बाद इनेलो प्रत्याशी कैप्टन इंदर सिंह यहां से जीतने में कामयाब रहे थे. उसके बाद रोहतक सीट कांग्रेस के ही कब्जे में रही है. जाट बाहुल्य सीट पर हुड्डा घराने की मजबूत पकड़ की वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां प्रचंड मोदी लहर फेल हो गई थी. मगर इस बार बीजेपी की अचूक रणनीति से कांग्रेस को इस इकलौती बची सीट पर भी हार झेलनी पड़ी.

जाट और गैर-जाट की राजनीति ने दिखाया असर

रोहतक में कुल 16.66 लाख वोटर्स में छह लाख से अधिक जाट मतदाताओं की संख्या को देखते हुए यह मिथक कायम था कि यहां से जाट प्रत्याशी ही जीतेगा. मगर बीजेपी ने एक रणनीति के तहत इस बार गैर जाट कार्ड खेलकर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की, यह दांव सफल भी रहा. बीजेपी के रणनीतिकारों का मानना था कि जाटों के वोट पर हुड्डा परिवार की मजबूत पकड़ है, ऐसे में गैर जाट उम्मीदवार खड़ा कर गैर जाट वोटों पर फोकस करना जरूरी है.

चुनाव में मोदी लहर की वजह से जहां बीजेपी कुछ जाट वोट बैंक में भी सेंध लगाने में सफल रही, वहीं गैर जाट वोटर्स भी एकजुट हो गए. रोहतक के जातीय समीकरण देखें तो यहां जाटों के बाद सबसे ज्यादा चार लाख दलित हैं, इसके अलावा करीब दो लाख यादव व अन्य जातियों के वोटर हैं. गैर जाटों के एकजुट होकर बीजेपी को वोट करने से जाट बहुल इस सीट पर कांग्रेस तीन बार के सांसद दीपेंद्र हुड्डा अपनी सीट नहीं बचा सके.

सीएम मनोहर लाल और उनके मंत्री भी हैं जीत का एक कारण

बेशक भाजपा ने ये चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा, लेकिन केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार की नीतियों को सीएम, मंत्रिमंडल और पार्टी कार्यकर्ताओं ने घर-घर तक पहुंचाया. फिर चाहे वो उज्जवला योजना, हर घर शौचालय, किसान सम्मान निधि, सौभाग्य व जन-धन योजना के अलावा हरियाणा में ग्रुप डी के साथ ही बड़े पैमाने पर भर्ती का भाजपा को चुनाव में बड़ा लाभ मिला.

वहीं सहकारिता राज्य मंत्री मनीष ग्रोवर भी लोकसभा चुनाव में एक तरह से किंगमेकर बनकर उभरे हैं. रोहतक नगर निगम मेयर का चुनाव जीतने के बाद ही मंत्री ग्रोवर ने दावा किया था कि रोहतक से दीपेंद्र सिंह हुड्डा को हरा सकते हैं और हराएंगे. साथ ही अरविंद शर्मा के लिए रोहतक का क्षेत्र नया रहा, मगर उन्होंने सुबह छह से लेकर रात दो बजे तक सक्रिय रहकर संसदीय सीट के 80 से 85 प्रतिशत इलाकों में मौजूदगी दर्ज कराई. यह अपने आप में रिकॉर्ड है. पोलिंग के आखिरी दिनों में जनता उनके पक्ष में झुक गई और नतीजा आज सामने है.

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आखिर अपने ही घर में कैसे मात खा गए दीपेंद्र हुड्डा? पढ़िए पूरी रिपोर्ट



रोहतक: हरियाणा में भाजपा ने सभी दस लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन रोहतक सीट की चर्चा सबसे ज्यादा की जा रही है. मतगणना के दिन भी यहां प्रशासन, प्रत्याशियों और उनके समर्थकों की सांसें आखिर तक अटकी रहीं. प्रदेश में अगर कहीं टक्कर दिखी तो वह सिर्फ रोहतक में. यहां शुक्रवार सुबह 4 बजे जाकर परिणाम घोषित किया गया जिसमें अरविंद शर्मा ने अपने पुराने साथी दीपेंद्र हुड्डा का किला आखिर धवस्त कर दिया था.

इस जीत के बाद भाजपा पूरी तरह से उत्साहित है लेकिन आखिर ये जीत मिली कैसे और हुड्डा के गढ़ में सेंध कैसे लगी. बेशक मोदी फैक्टर को नकारा नहीं जा सकता लेकिन मोदी लहर तो 2014 में भी थी तब भी दीपेंद्र अपना घर बचाने में कामयाब हो गए थे. दीपेंद्र की हार के कई कारण हैं जैसे कि बीजेपी की 

अचूक रणनीति, बीजेपी का गैर जाट प्रत्याशी को टिकट देना, कांग्रेस में आपसी मतभेद, बीजेपी के स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का बढ़ चढ़कर चुनाव प्रचार-प्रसार में जुटना.  

हरियाणा की रोहतक लोकसभा सीट कांग्रेस के लिए बेहद खास रही है. जाट बहुल इस सीट पर अधिकतर समय कांग्रेस का ही कब्जा रहा है. रोहतक लोकसभा सीट के अंतर्गत नौ विधानसभा सीटें आती हैं जिनमें- रोहतक, बहादुरगढ़, बादली, झज्जर, गढ़ी-सांपला-किलोई, महम, कलानौर, बेरी और कोसली है.

2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद रोहतक लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार दीपेंद्र हुड्डा ने भाजपा प्रत्याशी को 1 लाख 70 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर यहां कांग्रेस का झंडा बुलंद किया था. इससे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में भी दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने इनेलो के प्रत्याशी नफे सिंह राठी को करीब चाढ़े चार लाख वोटों से हराया था. दीपेंद्र के दादा रणबीर सिंह हुड्डा एक स्वतंत्रता सेनानी थे. आजादी के बाद वह तत्कालीन पंजाब सरकार में मंत्री भी रहे. दीपेंद्र के पिता भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी हरियाणा की सांपला सीट से चुनाव जीतकर 2 बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं. 

भाजपा को जनसंघ के बैनर तले सिर्फ दो बार ही 1962 और 1971 में यहां से जीत हासिल हुई थी. उसके बाद से रोहतक सीट जीतने की भाजपा की तमाम कोशिशें विफल रही हैं. हालांकि, 1999 चुनाव में हुए भाजपा और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के गठबंधन के बाद इनेलो प्रत्याशी कैप्टन इंदर सिंह यहां से जीतने में कामयाब रहे थे. उसके बाद रोहतक सीट कांग्रेस के ही कब्जे में रही है. जाट बाहुल्य सीट पर हुड्डा घराने की मजबूत पकड़ की वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां प्रचंड मोदी लहर फेल हो गई थी. मगर इस बार बीजेपी की अचूक रणनीति से कांग्रेस को इस इकलौती बची सीट पर भी हार झेलनी पड़ी. 

रोहतक में कुल 16.66 लाख वोटर्स में छह लाख से अधिक जाट मतदाताओं की संख्या को देखते हुए यह मिथक कायम था कि यहां से जाट प्रत्याशी ही जीतेगा. मगर बीजेपी ने एक रणनीति के तहत इस बार गैर जाट कार्ड खेलकर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की, यह दांव सफल भी रहा. बीजेपी के रणनीतिकारों का मानना था कि जाटों के वोट पर हुड्डा परिवार की मजबूत पकड़ है, ऐसे में गैर जाट उम्मीदवार खड़ा कर गैर जाट वोटों पर फोकस करना जरूरी है.

चुनाव में मोदी लहर की वजह से जहां बीजेपी कुछ जाट वोटबैंक में भी सेंध लगाने में सफल रही, वहीं गैर जाट वोटर्स भी एकजुट हो गए. रोहतक के जातीय समीकरण देखें तो यहां जाटों के बाद सबसे ज्यादा चार लाख दलित हैं, इसके अलावा करीब दो लाख यादव व अन्य जातियों के वोटर हैं. गैर जाटों के एकजुट होकर बीजेपी को वोट करने से जाट बहुल इस सीट पर कांग्रेस तीन बार के सांसद दीपेंद्र हुड्डा अपनी सीट नहीं बचा सके.

बेशक भाजपा ने ये चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की मनोहर सरकार की नीतियों को पार्टी कार्यकर्ताओं ने घर-घर तक पहुंचाया. फिर चाहे वो उज्जवला योजना, हर घर शौचालय, किसान सम्मान निधि, सौभाग्य व जन-धन योजना के अलावा हरियाणा में ग्रुप डी के साथ ही बड़े पैमाने पर बिना पर्ची और खर्ची के भर्ती का भाजपा को चुनाव में बड़ा लाभ मिला.

वहीं सहकारिता राज्य मंत्री मनीष ग्रोवर भी लोकसभा चुनाव में एक तरह से किंगमेकर बनकर उभरे हैं. रोहतक नगर निगम मेयर का चुनाव जीतने के बाद ही मंत्री ग्रोवर ने दावा किया था कि रोहतक से दीपेंद्र सिंह हुड्डा को हरा सकते हैं और हराएंगे. 

साथ ही अरविंद शर्मा के लिए रोहतक का क्षेत्र नया रहा, मगर उन्होंने सुबह छह से लेकर रात दो बजे तक सक्रिय रहकर संसदीय सीट के 80 से 85 प्रतिशत इलाकों में मौजूदगी दर्ज कराई. यह अपने आप में रिकॉर्ड है. पोलिंग के आखिरी दिनों में जनता उनके पक्ष में झुक गई और नतीजा आज सामने है. 





 


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Last Updated : May 26, 2019, 11:24 PM IST
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