जींद: हरियाणा और पंजाब में पराली की आग के कारण फिर से इन दोनों राज्यों के साथ-साथ दिल्ली में भी ‘सियासी धुआं’ उठता नजर आ रहा है. एक बार फिर से पराली के धुएं को लेकर बढ़ रहे प्रदूषण के चलते सियासी बयानबाजी तेज हो गई है. दिल्ली में पराली के कारण बढ़े प्रदूषण के स्तर के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब-हरियाणा पर निशाना साध रहे हैं. वहीं पहले से ही कृषि कानूनों को लेकर हरियाणा और पंजाब में किसान आंदोलरत हैं. ऐसे में दोनों ही राज्यों में प्रशासन द्वारा संयम के साथ किसानों को पराली न जलाने की अपील की जा रही है.
बता दें कि, पंजाब व हरियाणा के खेतों में पराली जलाने से हवा में विषैली गैस मिलकर हजारों मील तक इसे प्रदूषित कर देती है. इससे चंडीगढ़, दिल्ली जैसे शहरों की हवा भी विषैली हो जाती है. एयर क्वालिटी इंडेक्स में बड़ा इजाफा हो जाता है. पंजाब व हरियाणा की सरकारों ने विभिन्न माध्यमों से किसानों को जागरूक करना शुरू कर दिया है. वहीं हरियाणा कृषि प्रबंधन एवं विस्तार प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक ने पराली प्रबंधन के लिए क्या कुछ तकनीकी हरियाणा में प्रयोग की जा रही हैं इसको लेकर ईटीवी भारत से विशेष बातचीत की.
निदेशक डॉ. करमचंद का कहना है कि पराली को प्रबंध करने के लिए हमने बहुत सी स्कीमें चलाई हैं. बहुत भारी संख्या में सब्सिडी के साथ कृषि यंत्र व आधुनिक मशीनें दिए गए हैं. किसानों को पराली प्रबंधन के लिए ट्रेनिंग दी गई है. पिछली बार जहां रेड जोन था उन 332 गांव में जा जाकर किसानों को समझाया है.
पराली प्रबंधन करने की मुख्य तकनीक-
- रिटेंशन तकनीक
- कारबोरेशन तकनीक
- डीकंपोजर तकनीक
- बायो गैस प्लांट को बेचकर
रिटेंशन तकनीक और कारबोरेशन तकनीक
प्रराली प्रबंधन करने की मुख्य रूप से दो तकनीक हैं, रिटेंशन तकनीक और कारबोरेशन तकनीक. रिटेंशन तकनीक में पराली को तोड़कर सतह के ऊपर बिछाया जाता है. कारबोरेशन तकनीक में पराली को कंबाइन के माध्यम से तोड़ मरोड़ कर जमीन में मिट्टी के साथ मिलाया दिया जाता है. इसके बाद जैसे-जैसे पानी दिया जाता है तो वो खाद बनना शुरू हो जाती है. रिटेंशन व कोबोरेशन तकनीक के तहत फसल अवशेष प्रबंधन 8 तरह की मशीनों के माध्यम से कई प्रकार से किया जा सकता है. कंबाइन हार्वेस्टर, हैप्पी सीडर, चापर, मल्चर, हे-रेक व बेलर फसल अवशेष प्रबंधन के प्रमुख कृषि यंत्र हैं.
डीकंपोजर तकनीक
वहीं डीकंपोजर तकनीक के जरिये पराली को खाद में बदलने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने 20 रुपये की कीमत वाली 4 कैप्सूल का एक पैकेट तैयार किया है. 4 कैप्सूल से छिड़काव के लिए 25 लीटर घोल बनाया जा सकता है और 1 हेक्टेयर में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. सबसे पहले 5 लीटर पानी में 100 ग्राम गुड़ उबालना है. पानी ठंडा होने के बाद घोल में 50 ग्राम बेसन मिलाकर कैप्सूल घोलना है.
इसके बाद घोल को 10 दिन तक एक अंधेरे कमरे में रखें. इसके बाद पराली पर छिड़काव के लिए पदार्थ तैयार हो जाता है. इस घोल को जब पराली पर छिड़का जाता है तो 15 से 20 दिन के अंदर पराली गलनी शुरू हो जाती है और किसान अगली फसल की बुवाई आसानी से कर सकता है. बाद में ये पराली पूरी तरह गलकर खाद में बदल जाती है और खेती की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है.
किसान पराली बेच कर खासा मुनाफा भी ले सकते हैं. किसान स्ट्रा बेलर मशीन से धान के अवशेषों की गांठ बनाकर पराली का प्रबंधन और उसे बेचने के लिए कृषि विभाग की वेबसाइट पर पंजीकरण करा सकते हैं. पराली को बायोगैस प्लांट द्वारा उपयोग करने के लिए खरीदा जाता है जिसके जरिए नेचुरल गैस तैयार जाती है और साथ ही बचे हुए माल से नेचुरल खाद भी तैयार होता है.
मार्केट में पराली का भाव
- स्ट्रा बेलर से गांठ बनाकर: 1800 रुपये प्रति टन
- खुली: 1200 रुपये प्रति टन
बता दें कि, प्रदेश में 20 प्लांट बायोगैस के प्रबंधन के लिए चल रहे हैं. एक प्लांट की 1.5 लाख टन पराली प्रबंधन की क्षमता है और 5 प्लांट की निर्माण प्रक्रिया चल रही है. प्लांट के जरिये कुल पराली प्रबधन 30 लाख मीट्रिक टन प्रति वर्ष किया जा रहा है.
साल 2019 में लिया गया सरकार का एक्शन
पराली जलाने वालों और इन घटनाओं को नियंत्रित करने में विफल रहने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भी प्रावधान है. इसमें पिछले साल 2,020 एफआईआर दर्ज करवाई गई. सात अधिकारियों को सस्पेंड किया गया और 23 अधिकारी चार्जशीट हुए हैं. ग्राम स्तर के 499 नोडल अधिकारियों को कारण बताओ नोटिस जारी किए गए हैं. ऐसी घटनाओं की सूचना देने वाले लोगों को 1000-1000 रुपये का नकद इनाम भी दिया गया है.
वहीं हाल ही में सरकार द्वारा घोषणा की गई है कि पराली प्रबंधन के लिए हरियाणा में करीब 200 सीबीजी प्लांट लगाए जाएंगे. पहले चरण में 66 कंपनियों को प्लांट लगाने की मंजूरी दी गई है. इस पहल से हरियाणावासियों को पराली से हर साल फैलने वाले प्रदूषण से काफी हद तक निजात मिलेगी. अनुमान के अनुसार प्रदेश में हर साल धान के सीजन में करीब 60 लाख मीट्रिक टन पराली निकलती है. इसमें से 30 लाख फसली अवशेषों का निस्तारण खेतों में ही हो जाता है बाकि 30 लाख मीट्रिक टन फसली अवशेष किसानों द्वारा जलाए जाते हैं.
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