चंडीगढ़: भारतीय सेना में अहीर रेजिमेंट के गठन (ahir regiment in indian army) की मांग को लेकर अहीर समुदाय के लोग एक बार फिर प्रदर्शन कर रहे हैं. हरियाणा के अहीरवाल इलाके के गुरुग्राम में ये लोग 4 फरवरी से खेड़की दौला टोल के पास अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं. 23 मार्च को शहीद-ए-आजम भगत सिंह के शहीदी दिवस पर इस धरने में देशभर से बड़ी संख्या में अहीर समुदाय के लोग इकट्ठा हुए और गुरुग्राम मार्च निकाला. अहीर रेजिमेंट की मांग को लेकर लोगों ने जमकर शक्ति प्रदर्शन किया.
कौन कर रहा है अहीर रेजिमेंट की मांग- दक्षिण हरियाणा के अहीर समुदाय के नेताओं के समूह 'संयुक्त अहीर रेजिमेंट मोर्चा' के बैनर तले ये विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. इस मोर्चे को मार्च 2021 में एक ट्रस्ट के रूप में रजिस्टर्ड किया गया था. मोर्चा के सदस्यों ने 2018 में भी विरोध प्रदर्शन किया था. बाद में कुछ नेताओं के आश्वासन के बाद ये धरना खत्म कर दिया गया था. हरियाणा में यादव यानि अहीर समुदाय काफी प्रभावी है. यहां अहीरवाल इलाके जिसमें रेवाड़ी, गुरुग्राम और महेंद्रगढ़ जिले आते हैं, में ये समुदाय राजनीतिक और सामाजिक रूप से काफी असरदार है. आंदोलन की अगुवाई कर रहे अहीर रेजिमेंट मोर्चा का कहना है कि भारतीय सेना में कई जाति-आधारित रेजिमेंट हैं. सेना में अहीरों का बड़ा प्रतिनिधित्व है. इसी आधार पर वो भी अहीरों के लिए एक अलग रेजिमेंट चाहते हैं.
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मोर्चा के संस्थापक सदस्य मनोज यादव ने कहा कि अलग अहीर या यादव रेजिमेंट की मांग उनके सम्मान और अधिकारों की लड़ाई है. यह पूरे देश में यादवों के अधिकारों की मांग है. अहीर समुदाय ने सभी युद्धों में बलिदान दिया है और उन्होंने कई वीरता पुरस्कार जीते हैं. 1962 में रेजांग ला की लड़ाई में 120 जवानों में 114 अहीर थे. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अहीरों को अन्य समुदायों की तरह मान्यता नहीं मिली है. सिख, गोरखा, जाट, गढ़वाल और राजपूतों के लिए अलग जाति आधारित रेजिमेंट है. इसीलिए हम सेना में अहीर रेजिमेंट के गठन की मांग करते हैं.
सेना में जाति आधारित रेजिमेंट का इतिहास- भारतीय सेना में जाति आधारित रेजिमेंट की स्थापना काफी पुरानी है. इसकी शुरुआत उस दौर में हुई जब हमारे देश पर अंग्रोजों का शासन था और 'फूट डालो राज करो' उनका एक मात्र एजेंडा था. इस दौर में भारत की शासन व्यवस्था संभालने और युद्ध जीतने के लिए अंग्रेजों ने कई अलग-अलग जातियों के आधार पर सेना में भर्ती की. अंग्रेजों ने इन जातियों को लड़ाकू और गैर-लड़ाकू वर्ग के आधार पर बांटा था.
1857 के सिपाही विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सेना में जाति और क्षेत्र-आधारित भर्ती की गई ताकि इसे मार्शल और गैर-मार्शल दौड़ में विभाजित किया जा सके. जोनाथन पील आयोग को वफादार सैनिकों की भर्ती के लिए सामाजिक समूहों और क्षेत्रों की पहचान करने का काम सौंपा गया था. आजादी का विद्रोह भारत के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों से था, इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सेना में भर्ती नहीं किया और भर्ती के केंद्र को उत्तरी भारत में बदल दिया. बाद में आजादी के बाद भी भारत ने जाति और क्षेत्र-आधारित रेजिमेंटों को जारी रखा.
1903 में, पहली और तीसरी ब्राह्मण इन्फैंट्री के रूप में एक जाति-आधारित रेजिमेंट बनाई गई थी, जिसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद भंग कर दिया गया था. दूसरी जाति-आधारित रेजिमेंट, 'चमार रेजिमेंट' का गठन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किया गया था. उसे भी दिसंबर 1946 में भंग कर दिया गया. 1941 में, पहली लिंगायत बटालियन बनाई गई. जिसने शुरू में एक पैदल सेना इकाई के रूप में और फिर एक टैंक-विरोधी रेजिमेंट के रूप में काम किया. 1940 के दशक के अंत में इस बटालियन को भी भंग कर दिया गया था.
अहीरों का शौर्य और वीरता का इतिहास- भारतिया सेना में अहीर रेजिमेंट बनाने की मांग को लेकर अहीर समुदाय के लोगों का कहना है कि अहीर या यादव पहले से ही सेना में अच्छी संख्या में मौजूद हैं. उन्होंने सेना के लिए कई शानदार लड़ाइयां लड़ी हैं. रेजांगला का युद्ध (Rezang La War) अहीरों की वीरता का अद्भुत उदाहरण है. यह लड़ाई 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान लद्दाख सेक्टर में हुई थी. कुमाऊं रेजिमेंट की अहीर कंपनी को चोसुल हवाई क्षेत्र के सामने एक नाले की रक्षा करने के लिए कहा गया था. 18 नवंबर 1962 को, हरियाणा के रेवाड़ी क्षेत्र से भर्ती किए गए 120 अहीर जवानों की इस कंपनी और एक अधिकारी, मेजर शैतान सिंह पर चीनी सेना की एक विशाल टुकड़ी ने हमला किया. जिसमें लगभग 5,000 पैदल सेना और भारी तोपखाने शामिल थे. युद्ध में, 114 अहीर जवानों ने अपनी जान दे दी, पांच को चीनी सेना ने पकड़ लिया और एक को दुनिया को कहानी सुनाने के लिए वापस भेज दिया गया. रेजांग ला की लड़ाई पर कई बॉलीवुड फिल्में भी बन चुकी हैं. इनमें 1964 में बनी फिल्म हकीकत शामिल है. कवि प्रदीप द्वारा लिखा गया गाना 'ऐ मेरे वतन के लोगों' इन्हीं शहीदों को समर्पित है.
पुलवामा हमला: 14 फरवरी 2019 को हुए पुलवामा हमले में 40 सैनिक मारे गए थे. इसमें अहीर समुदाय के सैनिक सबसे ज्यादा थे. एक पत्रिका द्वारा किए गए पुलवामा शहीदों के जाति विश्लेषण ने कई सवाल खड़े किए थे. आंकड़ों के आधार पर देखें तो सेना में हर दसवां सैनिक हरियाणा का है. इसमें दक्षिणी के अहीरवाल क्षेत्र का योगदान बड़ा है. हरियाणा के अहीरवाल समेत, पूर्वी राजस्थान और पश्चिमी यूपी के अहीर समुदाय के युवा बड़ी संख्या में शामिल हैं.
राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की भर्ती- भारतीय राष्ट्रपति का अंगरक्षक एक छोटी इकाई है जिसमें लगभग 150 सैनिक होते हैं. जिन्हें अभी भी तीन जातियों- हिंदू जाट, जाट सिख और राजपूत से चुना जाता है. राष्ट्रपति की अंगरक्षक इकाई का गठन वर्ष 1773 में तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स द्वारा किया गया था. भारतीय सेना ने सुप्रीम कोर्ट में हवाला दिया है कि इन तीनों जातियों से भर्ती विशुद्ध रूप से कार्यात्मक (कद, कांठी और लंबाई) आवश्यकता के आधार पर की जाती है न कि जाति और धर्म के आधार पर.
क्या सभी रेजिमेंट पूरी तरह से जाति पर आधारित हैं- हलांकि सेना में सभी रेजिमेंट जाति आधारित नहीं हैं. जैसे, राजपूताना राइफल्स में राजपूतों और जाटों की संख्या बराबर है. इसी तरह राजपूत रेजिमेंट में राजपूत, गुर्जर और मुसलमान हैं. इसके अलावा, आयुद्ध और तकनीकी हथियार विभाग जाति आधारित नहीं हैं.
अहीर रेजिमेंट की मांग को राजनीतिक दलों का समर्थन- हरियाणा के अहिरवाल क्षेत्र(गुड़गांव, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़) में अहीरों के लिए एक अलग रेजिमेंट के गठन की मांग लंबे समय से हो रही है. अहीर रेजिमेंट के गठन को लेकर चल रहे धरने को केंद्रीय राज्यमंत्री और गुरुग्राम से बीजेपी सांसद राव इंद्रजीत सिंह, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद दीपेंद्र हुड्डा, पूर्व मंत्री और बीजेपी नेता राव नरबीर सिंह समेत कई सांसदों और विधायकों का समर्थन मिल चुका है. कांग्रेस सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने तो ये मुद्दा राज्यसभा में भी उठाया था.
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राज्यसभा में दीपेंद्र हुड्डा ने क्या कहा- दीपेंद्र हुड्डा ने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान कहा कि यदुवंशी शौर्य का इतिहास किसी परिचय का मोहताज नहीं है. इस संबंध में अहीरवाल क्षेत्र का संक्षिप्त परिचय देना चाहता हूं. जो दिल्ली के डाबर क्षेत्र से दक्षिणी हरियाणा और पूर्व-उत्तरी राजस्थान तक फैला है. जब-जब देश पर कोई आक्रमण हुआ है इतिहास ये बताता है, चाहे वो 1318 में तैमूर के आक्रमण के समय दुर्जनसाल सिंह और जगराम सिंह ने आक्रमणकारियों का सामना किया हो. चाहे 1739 में नादिरशाह के आक्रमण के समय रेवाड़ी नरेश राव बालकृष्ण के नेतृत्व में 5 हजार अहीर भाइयों का सीमाओं की रक्षा करते अपना बलिदान हो. या 1857 की क्रांति में अहीरवाल नरेश राव तुलाराम जी की शौर्यगाधा को कौन नहीं जानता. 1857 के विद्रोह के बाद इसका खामियाजा भी आहीर समुदाय को भुगतना पड़ा. ब्रिटिश फौज ने अहीरों की भर्ती पर रोक लगा दी. जब प्रथम विश्वयुद्ध हुआ तो अहीर भाइयों की वीरता को याद करते हुए दोबारा 19 हजार से ज्यादा अहीर सैनिकों की भर्ती हुई.
दूसरे विश्व युद्ध में 39 हजार अहीर सैनिकों की भर्ती की गई. विक्टोरिया क्रॉस तोपखाने में अकेले हवलदार उमराव सिंह का शौर्य आज भी याद किया जाता है. सिंगापुर में अहीर सैनिकों ने ब्रिटिश फौज से बगावत करके सुभाष चंद्र बोस की सेना आईएनए ज्वाइन किया. 1962 रेजांगला, 1971 भारत पाकिस्तान युद्ध या फिर कारगिल का युद्ध रहा हो. अहीर भाइयों ने हमेशा अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है.
अहीर रेजिमेंट पर राजनीति- 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में सत्ता में आने पर जाति-आधारित अहीर इन्फैंट्री रेजिमेंट बनाने का वादा किया था. साथ ही, भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनी चमार रेजिमेंट की दोबारा बहाली की मांग भी की थी. जाति आधारित रेजिमेंट न केवल राजनीतिक एजेंडा था बल्कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने भी इस कदम का समर्थन किया था. आयोग ने तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को चमार रेजिमेंट की बहाली के लिए पत्र भी लिखा था.
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