फरीदाबाद: किसी भी सभ्यता और संस्कृति के विकास में कला और शिल्प का खास महत्व होता है. हरियाणा के फरीदाबाद जिले में आयोजित होने वाला सूरजकुंड अंतरराष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला भी कई मायनों में खास है. यह मेला देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में खास पहचान रखता है. मेले में भारत के साथ-साथ प्रतिभागी देशों के शिल्पकारों को अपने-अपने देशों की कला और शिल्प की विरासत को दुनिया के सामने पेश करने का मौका मिलता है. इन्हीं कलाकारों में शामिल हैं उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के शिल्पकार जलालुद्दीन.
भैंस की हड्डी से तैयार करते हैं श्रृंगार का सामान- 35वें अंतरराष्ट्रीय सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में लखनऊ से आए शिल्पकार जलालुद्दीन अनोखी कला में लेकर आये हैं. जिसके बारे में जानकर हर किसी को हैरानी होगी. जलालुद्दीन भैंस की हड्डियों से महिलाओं के श्रृंगार का सामान तैयार करते हैं. हड्डियों से तैयार किए गए इन सामान को देश ही नहीं, बल्कि अमेरिका, जापान, सउदी अरब, कुवैत, चीन, आस्ट्रेलिया तक बेच रहे हैं. इस बोर कारबिन कला के क्षेत्र में इन्हें वर्ष 2001-02 में स्टेट अवॉर्ड और साल 2009-10 में नेशनल अवॉर्ड तक मिल चुका है.
मुगल काल में हाथी के दांत पर होती थी कला- जलालुद्दीन करीब 36 साल से इस क्षेत्र में लगे हैं. यही कला इनके परिवार की आमदनी का जरिया बन गई है. हड्डियों से ज्वैलरी व डेकोरेशन का सामान तैयार कर रहे हैं. इन सामानों की कीमत बाजार में 8 हजार रुपये तक है. पहले बोन कारबिन कला मुगलों के जमाने में हाथी के दांत पर हुआ करती थी, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगने के बाद अब ये कला भैंस की हड्डियों (बफैलो बोन) पर की जाने लगी.
इस तरह तैयार होता है सामान- शिल्पकार जलालुद्दीन बताते हैं कि स्लाटर हाउस से भैंस का वध होने के बाद उसका मांस निकलने के बाद बची हुई हड्डियों को 50 से 80 रुपए प्रति किलो की दर से खरीदकर लाते हैं. उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर सुखाने के बाद छोटे-छोटे औजारों से आकार देकर आकर्षक बनाते हैं. हड्डी से महिलाओं का श्रृंगार सामान बनाकर उसे तीन घंटे तक सोड़े में पकाते है ताकि मांस आदि का गंध हट जाए. इसके बाद 6 घंटे तक हाइड्रोजन में डालते हैं. इससे हड्डी में चमक आने लगती है.
2 सौ से ज्यादा लोगों को बना चुके हैं आत्मनिर्भर- बोन कारबिन कला उन्होंने अपने मामू बाराबंकी निवासी अब्दुल हसन से सीखी थी. जलालुद्दीन इस कला के जरिए सात लोगों को रोजगार दिया है. अब तक वे 200 अधिक लोगों को प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बना चुके हैं. उन्होंने बताया कि 36 साल पहले दिनभर काम करने पर पांच रुपए मिलते थे. अब रोजाना करीब 1500 रुपए कमाते हैं. बोन कारबिन कला अब इनके परिवार का जीवकोपार्जन का माध्यम बन गया है. चिकनकारी की कला में इनकी पत्नी रहमतुन्निसा को भी स्टेट अवॉर्ड मिल चुका है.
1987 में पहली बार हुआ था मेले का आयोजन- कोविड-19 महामारी के कारण पिछले साल इस मेले का आयोजन नहीं किया जा सका था. सूरजकुंड शिल्प मेला 1987 में पहली बार भारत की हस्तशिल्प, हथकरघा और सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि और विविधता को प्रदर्शित करने के लिए आयोजित किया गया था. मेला ग्राउंड 43.5 एकड़ में फैला हुआ है. यह मेला केंद्रीय पर्यटन, कपड़ा, संस्कृति, विदेश मंत्रालय और हरियाणा सरकार के सहयोग से सूरजकुंड में हर साल आयोजित किया जाता है.
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