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फैमिली कोर्ट शादी टूटने के आधार पर तलाक नहीं दे सकती: दिल्ली हाईकोर्ट - family court cannot grant divorce

Family court cannot grant divorce on the basis of breakdown of marriage: दिल्ली हाईकोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक देने के पारिवारिक न्यायालय के फैसले को गलत बताया है. कोर्ट ने कहा कि विवाह के अपूरणीय टूटने के आधार पर पारिवारिक न्यायालय फैसला नहीं ले सकता है. ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय भी कारकों के आधार पर फैसला लेती है.

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 20, 2023, 5:45 PM IST

नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में स्पष्ट किया कि फैमिली कोर्ट यानि पारिवारिक अदालतें विवाह के टूटने के आधार पर तलाक नहीं दे सकती हैं. हाइकोर्ट ने एक मामले को निपटाते हुए कहा कि पारिवारिक अदालत को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों के अनुसार सख्ती से कार्य करना चाहिए. इस मामले में हिंदू पक्ष शामिल थे.

कोर्ट ने कहा कि न्यायमूर्ति संजीव सचदेवा और विकास महाजन की खंडपीठ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि शादी का अपूरणीय टूटना हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक का आधार नहीं है. हाइकोर्ट द्वारा इस तरह के आधार पर तलाक देने के पारिवारिक अदालत के फैसले को रद्द कर दिया गया.

पारिवारिक न्यायालय नहीं ले सकता फैसला: हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विवाह के अपूरणीय टूटने के आधार पर तलाक देने की शक्ति का प्रयोग केवल संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है. कोर्ट ने कहा कि ऐसी शक्ति पारिवारिक न्यायालयों को तो छोड़ ही दें, उच्च न्यायालयों में भी निहित नहीं है. न्यायालय में क्रूरता और परित्याग के आधार पर अपने पति की तलाक की याचिका को अनुमति देने के पारिवारिक न्यायालय के 2018 के फैसले के खिलाफ एक महिला की अपील पर सुनवाई हो रही थी. इस जोड़े ने 2002 में शादी की और 2007 में उनकी एक बेटी का जन्म हुआ. जल्द ही वे अलग रहने लगे.

हाई कोर्ट ने कहा कि पारिवारिक अदालत ने वैवाहिक संबंध से इनकार के आधार पर तलाक को मंजूरी दे दी थी, भले ही इस पहलू के संबंध में अस्पष्ट और विशिष्टताओं के बिना आरोप लगाए गए थे. इसमें आगे पाया गया कि कभी भी पूरी तरह से इनकार नहीं किया गया क्योंकि पति ने स्वीकार किया था कि उसे 30-35 बार वैवाहिक संबंधों का आनंद लेने की अनुमति दी गई थी.

कोर्ट ने कहा कि लड़की का जन्म वैवाहिक अधिकारों से इनकार के आरोप को खारिज करता है. शादी टूट जाने की बात पर अदालत ने कहा कि पत्नी ने लगातार कहा था कि वह पति के साथ रहना चाहती थी, लेकिन उसने बार-बार उसके साथ रहने से इनकार कर दिया था. इसलिए कोर्ट ने कहा कि महिला स्पष्ट रूप से दोषी नहीं थी. युवक ने पत्नी को छोड़ दिया और फिर उसकी ओर से परित्याग की दलील दी. उन्हें इस आधार पर वैवाहिक गठबंधन से बाहर निकलने की इजाजत (तलाक) नहीं दी जा सकती.

ये भी पढ़ें: Asian Games 2023: कॉमनवेल्थ गेम्स के गोल्ड पदक विजेता अमित पंघाल का नाम एशियन गेम्स से बाहर, पहुंचे दिल्ली हाई कोर्ट

उच्च न्यायालय भी कारकों के आधार पर लेती है फैसला: हाई कोर्ट ने बताया कि ऐसी शक्ति पारिवारिक न्यायालय को प्रदान नहीं की गई है. कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग पर विचार करते समय कई कारकों को ध्यान में रखता है. न्यायालय ने कहा कि अलगाव की अवधि की लंबी अवधि केवल ऐसे कारकों में से एक है. वर्तमान मामले में पारिवारिक न्यायालय ने तलाक देने की अपनी शक्तियों के दायरे से परे जाकर गलती की है. तलाक दिए जाने के विरुद्ध महिला की अपील का अधिवक्ता लोहित गांगुली, अजय कुमार और मोहित खत्री ने प्रतिनिधित्व किया. प्रतिवादी (पति) का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता डीके पांडे और विक्रम पंवार ने किया.

ये भी पढ़ें: दिल्ली हाई कोर्ट ने तेजाब हमले के आरोपी की जमानत खारिज की, कहा- पीड़िता के दर्द के प्रति आंखें नहीं बंद कर सकते

नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में स्पष्ट किया कि फैमिली कोर्ट यानि पारिवारिक अदालतें विवाह के टूटने के आधार पर तलाक नहीं दे सकती हैं. हाइकोर्ट ने एक मामले को निपटाते हुए कहा कि पारिवारिक अदालत को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों के अनुसार सख्ती से कार्य करना चाहिए. इस मामले में हिंदू पक्ष शामिल थे.

कोर्ट ने कहा कि न्यायमूर्ति संजीव सचदेवा और विकास महाजन की खंडपीठ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि शादी का अपूरणीय टूटना हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक का आधार नहीं है. हाइकोर्ट द्वारा इस तरह के आधार पर तलाक देने के पारिवारिक अदालत के फैसले को रद्द कर दिया गया.

पारिवारिक न्यायालय नहीं ले सकता फैसला: हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विवाह के अपूरणीय टूटने के आधार पर तलाक देने की शक्ति का प्रयोग केवल संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है. कोर्ट ने कहा कि ऐसी शक्ति पारिवारिक न्यायालयों को तो छोड़ ही दें, उच्च न्यायालयों में भी निहित नहीं है. न्यायालय में क्रूरता और परित्याग के आधार पर अपने पति की तलाक की याचिका को अनुमति देने के पारिवारिक न्यायालय के 2018 के फैसले के खिलाफ एक महिला की अपील पर सुनवाई हो रही थी. इस जोड़े ने 2002 में शादी की और 2007 में उनकी एक बेटी का जन्म हुआ. जल्द ही वे अलग रहने लगे.

हाई कोर्ट ने कहा कि पारिवारिक अदालत ने वैवाहिक संबंध से इनकार के आधार पर तलाक को मंजूरी दे दी थी, भले ही इस पहलू के संबंध में अस्पष्ट और विशिष्टताओं के बिना आरोप लगाए गए थे. इसमें आगे पाया गया कि कभी भी पूरी तरह से इनकार नहीं किया गया क्योंकि पति ने स्वीकार किया था कि उसे 30-35 बार वैवाहिक संबंधों का आनंद लेने की अनुमति दी गई थी.

कोर्ट ने कहा कि लड़की का जन्म वैवाहिक अधिकारों से इनकार के आरोप को खारिज करता है. शादी टूट जाने की बात पर अदालत ने कहा कि पत्नी ने लगातार कहा था कि वह पति के साथ रहना चाहती थी, लेकिन उसने बार-बार उसके साथ रहने से इनकार कर दिया था. इसलिए कोर्ट ने कहा कि महिला स्पष्ट रूप से दोषी नहीं थी. युवक ने पत्नी को छोड़ दिया और फिर उसकी ओर से परित्याग की दलील दी. उन्हें इस आधार पर वैवाहिक गठबंधन से बाहर निकलने की इजाजत (तलाक) नहीं दी जा सकती.

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उच्च न्यायालय भी कारकों के आधार पर लेती है फैसला: हाई कोर्ट ने बताया कि ऐसी शक्ति पारिवारिक न्यायालय को प्रदान नहीं की गई है. कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग पर विचार करते समय कई कारकों को ध्यान में रखता है. न्यायालय ने कहा कि अलगाव की अवधि की लंबी अवधि केवल ऐसे कारकों में से एक है. वर्तमान मामले में पारिवारिक न्यायालय ने तलाक देने की अपनी शक्तियों के दायरे से परे जाकर गलती की है. तलाक दिए जाने के विरुद्ध महिला की अपील का अधिवक्ता लोहित गांगुली, अजय कुमार और मोहित खत्री ने प्रतिनिधित्व किया. प्रतिवादी (पति) का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता डीके पांडे और विक्रम पंवार ने किया.

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