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साहित्य अकादमी पुस्तक मेला 'पुस्तकायन' का छठा दिन, साहित्यिक पत्रिकाओं की चुनौतियों पर हुई चर्चा - साहित्य अकादमी पुस्तक मेला पुस्तकायन

Sahitya Akademi book fair Pustakyan: साहित्य अकादेमी पुस्तक मेला ‘पुस्तकायन’ के छठे दिन साहित्यिक पत्रिकाओं की मुश्किलों पर बात हुई. इस दौरान स्पेन से पधारे कवियों ने अपनी कविताएं प्रस्तुत की.

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By ETV Bharat Delhi Team

Published : Dec 7, 2023, 2:17 PM IST

साहित्यिक पत्रिकाओं की चुनौतियों पर हुई चर्चा

नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित पुस्तकायन पुस्तक मेले के छठे दिन बुधवार को साहित्यिक पत्रिकाओं की पहचान और उनकी भूमिकाओं पर चर्चा हुई. इस पैनल चर्चा की अध्यक्षता प्रख्यात साहित्यकार ममता कालिया ने की और शैलेंद्र सागर (कथाक्रम), संजय सहाय (हंस), एवं पल्लव (बनास जन) ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए.

सोशल मीडिया सबसे बड़ा चैलेंज: ममता कालिया ने 'ETV भारत' से खास बातचीत के लिए बताया कि वर्तमान में साप्ताहिक पत्रिकाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है. आजकल लोगों के अंदर धैर्य नहीं है. अगर पाठक को किताबों से बोरियत होती है, तो वह तुरंत फेसबुक, इंस्टाग्राम, रील्स, शॉर्ट्स और ट्विटर आदि खोल लेते हैं. वैसे तो सोशल मीडिया पर ही कई पत्रिकाएं भी मौजूद हैं, लेकिन मुद्रित पत्रिकाओं को पढ़ने का एक अलग आनंद है. वहीं डिजिटल डिवाइस पर पढ़ी जाने वाली कहानियां, लेख या कविताएं पाठक के स्मृति कोष का हिस्सा नहीं बन पाती है। अगर पाठक मुद्रित किताबों में कहानियों को पढ़ता है, तो स्टोरी उसके साथ साथ चलती है.

उन्होंने मुंशी प्रेम चंद का उदाहरण देते हुए बताया कि वह उस जमाने के लेखक थे, जब न तो सोशल मीडिया था और न ही रेडियो का ज्यादा चलन था. आज भी कई लोग उनकी मुद्रित पुस्तकों को पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं. इसके अलावा अगर महाभारत और रामायण की बात की जाए, तो यह सभी वाचिक ग्रंथ हैं. वर्तमान में पाठकों को आकर्षित करने के लिए कहानियों को वाचिक बनाने की जरूरत है.

पत्रिका और पुस्तकों के सामने चुनौतियां: ममता ने बताया कि पत्रिकाओं और पुस्तकों के सामने आने वाली चुनौतियों को देखते हुई, किताबों के मुद्रण और कहानियों को आकर्षक रूप देने की जरूरत है। खासतौर पर युवा पीढ़ी की समस्याओं पर लिखा जाना चाहिए. उनकी रुचि की कहानियों को पत्रिकाओं में प्रकाशित करने की जरूरत है. इसमें उनकी समस्याओं पर आधारित विषयों पर लिखना होगा. आजकल युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी समस्या करियर की है. इस तरीकों को अपना कर मुद्रित पत्रिकाओं का चलन बढ़ा सकते हैं.

उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं के समर्थ इतिहास को प्रस्तुत करते हुए बताया कि कैसे रवींद्र कालिया की इलाहाबाद स्थित प्रेस में लघु पत्रिकाएँ छापी जाती थीं और युवा पीढ़ी उन्हें खरीदने के लिए लालायित रहती थी. चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने हंस के संपादक संजय सहाय को आमंत्रित किया.

इसके अलावा, साहित्य अकादमी सायं 5.00 बजे एक ‘साहित्य मंच’ कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम में स्पेन से अतिथि पधारे थे, वहाँ की 4 भाषाओं के 4 कवियों - आंजेल्स ग्रेगोरी, कास्टिय्यो सुआरेस, चूस पातो तथा मारिओ ओब्रेरो ने अपनी कविताएँ अपनी मूल भाषा में प्रस्तुत कीं तथा उनका अंग्रेज़ी अनुवाद शुभ्रॅ बंद्योपाध्याय ने सुनाया. सर्वांतेस इंस्टीत्यूतो के निदेशक ऑस्कर पुजोल ने अंत में अपनी सारगर्भित टिप्पणी की. कार्यक्रम के आरंभ में साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने अतिथियों का अंगवस्त्रम् भेंट कर स्वागत किया और अपने संक्षिप्त वक्तव्य में भारत और स्पेन के सांस्कृतिक एवं साहित्य संबंधों की परंपरा पर भी प्रकाश डाला. कार्यक्रम का संयोजन कृष्णा किंबहुने, उपसचिव, साहित्य अकादेमी ने किया.

साहित्यिक पत्रिकाओं की चुनौतियों पर हुई चर्चा

नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित पुस्तकायन पुस्तक मेले के छठे दिन बुधवार को साहित्यिक पत्रिकाओं की पहचान और उनकी भूमिकाओं पर चर्चा हुई. इस पैनल चर्चा की अध्यक्षता प्रख्यात साहित्यकार ममता कालिया ने की और शैलेंद्र सागर (कथाक्रम), संजय सहाय (हंस), एवं पल्लव (बनास जन) ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए.

सोशल मीडिया सबसे बड़ा चैलेंज: ममता कालिया ने 'ETV भारत' से खास बातचीत के लिए बताया कि वर्तमान में साप्ताहिक पत्रिकाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है. आजकल लोगों के अंदर धैर्य नहीं है. अगर पाठक को किताबों से बोरियत होती है, तो वह तुरंत फेसबुक, इंस्टाग्राम, रील्स, शॉर्ट्स और ट्विटर आदि खोल लेते हैं. वैसे तो सोशल मीडिया पर ही कई पत्रिकाएं भी मौजूद हैं, लेकिन मुद्रित पत्रिकाओं को पढ़ने का एक अलग आनंद है. वहीं डिजिटल डिवाइस पर पढ़ी जाने वाली कहानियां, लेख या कविताएं पाठक के स्मृति कोष का हिस्सा नहीं बन पाती है। अगर पाठक मुद्रित किताबों में कहानियों को पढ़ता है, तो स्टोरी उसके साथ साथ चलती है.

उन्होंने मुंशी प्रेम चंद का उदाहरण देते हुए बताया कि वह उस जमाने के लेखक थे, जब न तो सोशल मीडिया था और न ही रेडियो का ज्यादा चलन था. आज भी कई लोग उनकी मुद्रित पुस्तकों को पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं. इसके अलावा अगर महाभारत और रामायण की बात की जाए, तो यह सभी वाचिक ग्रंथ हैं. वर्तमान में पाठकों को आकर्षित करने के लिए कहानियों को वाचिक बनाने की जरूरत है.

पत्रिका और पुस्तकों के सामने चुनौतियां: ममता ने बताया कि पत्रिकाओं और पुस्तकों के सामने आने वाली चुनौतियों को देखते हुई, किताबों के मुद्रण और कहानियों को आकर्षक रूप देने की जरूरत है। खासतौर पर युवा पीढ़ी की समस्याओं पर लिखा जाना चाहिए. उनकी रुचि की कहानियों को पत्रिकाओं में प्रकाशित करने की जरूरत है. इसमें उनकी समस्याओं पर आधारित विषयों पर लिखना होगा. आजकल युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी समस्या करियर की है. इस तरीकों को अपना कर मुद्रित पत्रिकाओं का चलन बढ़ा सकते हैं.

उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं के समर्थ इतिहास को प्रस्तुत करते हुए बताया कि कैसे रवींद्र कालिया की इलाहाबाद स्थित प्रेस में लघु पत्रिकाएँ छापी जाती थीं और युवा पीढ़ी उन्हें खरीदने के लिए लालायित रहती थी. चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने हंस के संपादक संजय सहाय को आमंत्रित किया.

इसके अलावा, साहित्य अकादमी सायं 5.00 बजे एक ‘साहित्य मंच’ कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम में स्पेन से अतिथि पधारे थे, वहाँ की 4 भाषाओं के 4 कवियों - आंजेल्स ग्रेगोरी, कास्टिय्यो सुआरेस, चूस पातो तथा मारिओ ओब्रेरो ने अपनी कविताएँ अपनी मूल भाषा में प्रस्तुत कीं तथा उनका अंग्रेज़ी अनुवाद शुभ्रॅ बंद्योपाध्याय ने सुनाया. सर्वांतेस इंस्टीत्यूतो के निदेशक ऑस्कर पुजोल ने अंत में अपनी सारगर्भित टिप्पणी की. कार्यक्रम के आरंभ में साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने अतिथियों का अंगवस्त्रम् भेंट कर स्वागत किया और अपने संक्षिप्त वक्तव्य में भारत और स्पेन के सांस्कृतिक एवं साहित्य संबंधों की परंपरा पर भी प्रकाश डाला. कार्यक्रम का संयोजन कृष्णा किंबहुने, उपसचिव, साहित्य अकादेमी ने किया.

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