नई दिल्ली : श्रद्धा हत्याकांड में आरोपी आफताब की सच्चाई उगलवाने के लिए दिल्ली पुलिस पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट कराने की तैयारी कर रही है. इस संबंध में अदालत ने भी पुलिस को इजाजत दे दी है. यह टेस्ट पुलिस कब कराएगी, यह अभी तय नहीं हुआ है, लेकिन इस हत्याकांड का खुलासा हुए 8 दिन से अधिक बीत जाने के बाद आफताब जिस तरह से पुलिस को गुमराह कर रहा है, इससे अभी तक पुलिस के हाथ खाली हैं.
एक्सपर्ट बताते हैं कि मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आफताब श्रद्धा की हत्या (Shraddha murder case) से लेकर सबूत मिटाने तक में होशियारी दिखाई है, जिस तरह वह ड्रग्स का सेवन करता है, ऐसे शातिर (culprit is vicious) नार्को टेस्ट में भी बच निकलते हैं.
द्वितीय विश्व युद्घ के समय शुरू हुआ था नार्को टेस्ट : ब्रिटिश मेडिकल काउंसिल के पूर्व वैज्ञानिक और स्वीडन की उपासला यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ राम एस उपाध्याय बताते हैं कि नार्को टेस्ट द्वितीय विश्व युद्घ के समय शुरू हुआ था. इसे नार्को एनालिसिस टेस्ट भी कहते हैं. इसमें जो दवाइयां दी जाती हैं वे हैं सोडियम पेंटोथल व सोडियम मेंटॉल. इसे ट्रुथ सिरम के नाम से भी जाना जाता है. यह दवा हमारे ब्रेन फंक्शन के सेंट्रल नर्वस सिस्टम को स्लोडाउन कर देता है.
डॉक्टरों की टीम यह तय करती है कि जिसका नार्को टेस्ट हो रहा है, उसके शरीर का मापदंड क्या है. उसकी लंबाई, चौड़ाई, वजन आदि के हिसाब से दवाओं का डोज तय किया जाता है. जब यह डोज़ दे दिया जाता है तो आधे से 1 घंटे के लिए शख्स के दिमाग का नर्वस सिस्टम स्लो डाउन हो जाता है. मतलब कोई व्यक्ति जो किसी सवाल का जवाब देने से पहले सोच विचार कर जवाब देता था, इस दवा के असर के चलते उसके सोचने की क्षमता स्थूल हो जाती है. उससे जो पूछा जाता है वह बिना दिमाग पर जोर डाले तुरंत जवाब दे देता है. जिससे जांच करने वाली एजेंसी को सबूत तलाशने व अपनी जांच की कड़ियां जोड़ने में मदद मिल जाती है.
नार्को व पॉलीग्राफ टेस्ट रिपोर्ट अदालत में वैध नहीं मानी जाती, लेकिन इस रिपोर्ट की मदद से पुलिस व अन्य जांच एजेंसियां कोई सबूत अदालत में पेश करती है तो वह एक लीगल एविडेंस के तौर माना जाता है.
पता चल जाने पर अलर्ट हो जाता है अपराधी : अलर्ट हो जाता हैडॉ उपाध्याय के मुताबिक लेकिन आफताब ने अभी तक जो जानकारी दी है उसमें हत्या करने से लेकर लाश को ठिकाने के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल किया है, वह उसकी सोची समझी साजिश का हिस्सा है. ऐसे में जब आरोपी को टेस्ट होने से पहले ही पता चल जाए कि उसका नार्को टेस्ट या पॉलीग्राफ टेस्ट होना है तो वह अलर्ट हो जाता है. ऐसे अपराधी पुलिस हिरासत में खाना-पीना छोड़ कर अपना वजन कम करने की कोशिश करेगा.
पानी का सेवन अधिक करेगा ताकि उसे बार-बार पेशाब आए. जब उसे टेस्ट के लिए ले जाया जाता है तो उसके शारीरिक मापदंड के हिसाब से जितनी दवाई के डोज़ की जरूरत होगी, उससे कम मात्रा में डॉक्टर को इस्तेमाल करना पड़ेगा. ट्रुथ सीरम का इस्तेमाल कम होने से आरोपी का ब्रेन सिस्टम पूरी तरह से स्लोडाउन नहीं हो पाएगा. इस दौरान आरोपी अगर पेशाब करता है तो दवाई का असर भी कम होगा. तब उससे पूछताछ होगी तो वह पहले की तरह ही जवाब देकर गुमराह कर सकता है. इसकी संभावना अधिक है.
आरोपी को भनक नहीं लगनी चाहिए : डॉ राम एस उपाध्याय कहते हैं कि इस तरह के टेस्ट के लिए यह सावधानी बरतनी चाहिए कि आरोपी को इसकी भनक तक न लगे. आफताब चूंकि ड्रग्स भी लेता था तो दवा का असर भी कम होने की संभावना है. इसीलिए इस पर नार्को टेस्ट से जो एग्रेसिव रिपोर्ट पुलिस चाहती है, इसकी संभावना कम है.
पूछताछ के लिए जांच एजेंसियां थर्ड डिग्री टॉर्चर भी करती है, जिस अपराधी पर किसी कारण से नहीं कर सकती, उससे सच उगलवाने के लिए नार्को व पॉलीग्राफ टेस्ट का इस्तेमाल किया जाता है. पॉलीग्राफ़ टेस्ट में हार्टबीट, ईसीजी, दिमाग में इलेक्ट्रोड आदि लगाकर उसके जो रिजल्ट होते हैं वह नापा जाता है.सवाल पूछे जाने के बाद अपराधी के दिमाग में कैसी तरंगे उत्पन्न हो रही है, उसके जरिये निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है. एक तरीका ब्रेन मैपिंग का भी है. इसमें भी दवाइयों का इस्तेमाल कर आरोपी से सवाल पूछा जाता है और वह जो जवाब देता है, उसकी मॉनिटरिंग की जाती है. इसकी मॉनिटरिंग के लिए पूरी एक टीम होती है.
जानिए क्या होता है नार्को टेस्ट : नार्को टेस्ट एक तरह की एनेस्थीसिया होता है, जिसमें आरोपी न पूरी तरह होश में होता है और ना ही बेहोश होता है. नार्को टेस्ट का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब उस आरोपी को इस बारे में पता हो और उसने इसके लिए हामी भरी हो. यह टेस्ट तभी करवाया जाता है जब आरोपी सच्चाई नहीं बता रहा हो या बताने में असमर्थ हो. इस टेस्ट की मदद से आरोपी के मन से सच्चाई निकलवाने का काम किया जाता है.
अधिकतर आपराधिक मामलों में ही नार्को टेस्ट किया जाता है. यह भी हो सकता है कि व्यक्ति नार्को टेस्ट के दौरान भी सच न बोले. इस टेस्ट में व्यक्ति को ट्रुथ सीरम इंजेक्शन दिया जाता है. इस दौरान मॉलिक्यूलर लेवल पर किसी शख्स के नर्वस सिस्टम में दखल देकर उसकी हिचक कम की जाती है. जिससे व्यक्ति स्वाभविक रूप से सच बोलने लगता है.
कैसे होता है नार्को टेस्ट : नार्को टेस्ट जांच अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, डॉक्टर और फोरेंसिक एक्सपर्ट की उपस्थिति में किया जाता है. इस दौरान जांच अधिकारी आरोपी से सवाल पूछता है और इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती है.नार्को टेस्ट एक परीक्षण प्रक्रिया होती है, जिसमें शख्स को ट्रुथ ड्रग नाम से आने वाली एक साइकोएक्टिव दवा दी जाती है. खून में दवा पहुंचते ही आरोपी अर्धबेहोशी की अवस्था में पहुंच जाता है. हालांकि कई मामलों में सोडियम पेंटोथोल का इंजेक्शन भी दिया जाता है.
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जानिए क्या होता है पॉलीग्राफ टेस्ट : कोई भी इंसान झूठ बोल रहा है या नहीं, इसका पता लगाने लिए लाई डिटेक्टर टेस्ट किया जाता है. इसे पॉलीग्राफ टेस्ट भी कहते हैं. यह टेस्ट करने के लिए एक मशीन का प्रयोग किया जाता है. जिसे आम भाषा में झूठ पकड़ने वाली मशीन भी कहा जाता है. अब आसान भाषा में इस मशीन के काम करने के तरीके को समझते हैं. यह एक ऐसी मशीन है जो शरीर में आने वाले बदलावों को दर्ज करती है और बताती है कि इंसान सच बोल रहा है या झूठ. जानिए, यह मशीन कैसे झूठ का पता लगा लेती है.पॉलीग्राफ का मतलब है किसी ग्राफ में कई तरह के बदलाव का आना.
इस टेस्ट के दौरान भी शरीर में आने वाले कई तरह के बदलाव को देखा जाता है. जैसे- सवाल-जवाब के दौरान कैंडिडेट का हार्ट रेट या ब्लड प्रेशर घटना-बढ़ना, सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया में बदलाव आना और पसीना आना. जब इंसान झूठ बोलता है तो उसके शरीर में एक डर और घबराहट पैदा होती है. पॉलीग्राफ मशीन इसी को रिकॉर्ड करती है. पॉलीग्राफ मशीन से कई वायर निकले होते हैं. कुछ तारों में सेंसर्स होते हैं. कुछ वायर ब्लड प्रेशर और हार्ट रेट को मॉनिटर करते हैं. कुछ सांस के घटने-बढ़ने पर नजर रखते हैं. इन सब चीजों की जानकारी टेस्ट लेने वाला अधिकारी मॉनिटर पर देखता रहता है. शरीर के अंग असामान्य तौर पर काम करने पर तथ्यों को छिपाने की पुष्टि होती है.
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