ETV Bharat / state

Pressure on Tihar: जेलों में सुधार के लिए हो रहे हैं काम, सोचने का तरीका बदलना ही बदलाव है - जेल की व्यवस्था में सुधार के लिए कुछ सुझाव

दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल इन दिनों सुर्खियों में है. तिहाड़ में उसकी क्षमता के दोगुने से अधिक कैदी रह रहे हैं. ऐसे में तिहाड़ जेल के पूर्व लीगल एडवाइजर और प्रवक्ता सुनील कुमार गुप्ता ने जेल की व्यवस्था में सुधार के लिए कुछ सुझाव दिए हैं.

सुनील कुमार गुप्ता
सुनील कुमार गुप्ता
author img

By

Published : Apr 12, 2023, 6:19 PM IST

नई दिल्ली: जेलों में कैदियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इनमें बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है. जानकारों के अनुसार, जेलों की खराब स्थिति और उसमें क्षमता से अधिक कैदियों के होने का मुख्य कारण अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामले हैं. वहीं, दूसरा कराण न्यायिक प्रक्रिया का बहुत महंगा होना भी है. भारत की जेलों में करीब 70 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं. कैदियों की संख्या क्षमता से अधिक होने के कारण उनके लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी नहीं हो पाती है.

तिहाड़ जेल के पूर्व लीगल एडवाइजर और प्रवक्ता सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि जेलों में बंद कैदियों के सोचने का तरीका बदलना भी एक तरह का सुधार है. इसके लिए जेलों में धर्मगुरु की भी व्यवस्था होती है, जो कैदी के धर्म और मान्यताओं के अनुसार उसके रीति-रिवाजों के अनुसार उसके सोचने का तरीका बदलते हैं. उन्हें उनके धर्म की मान्यताओं के आधार पर बताया जाता है कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है. उन्हें अपनी गलती का एहसास कराया जाता है ताकि वह जेल से छूटने के बाद दोबारा कभी अपराध न करें.

गुप्ता ने कहा कि जेलों में दिन पर दिन बढ़ती भीड़ चिंताजनक है. कानून के अनुसार, जिस अपराध में अधिकतम सजा 7 साल की है, ऐसे कैदियों को आसानी से जमानत दे देनी चाहिए. वहीं, यदि विचाराधीन कैदी ने अपने अपराध की अधिकतम सजा से आधा समय जेल में बिता लिया है तो ट्रायल का फैसला आने तक उसे जेल से छोड़ दिया जाना चाहिए. कई मामलों में तो यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति अपने अपराध की अधिकतम सजा से ज्यादा समय तक जेल में रहता है और तब भी ट्रायल पूरा नहीं हो पाता.

सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि हर प्रदेश में अंडर ट्रायल रिमूव कमेटी होती है. कमेटी विचाराधीन मामलों पर अपनी राय और रिपोर्ट कोर्ट और जेल को देती है. देखा गया है कि यह कमेटियां समय पर अपना काम पूरा नहीं करती हैं, जिस कारण जेल में कैदियों की अनावश्यक भीड़ रहती है.

वोट बैंक नहीं है कैदी इसलिए राजनेता नहीं उठाते हैं इनका मुद्दा: जानकारों का मानना है कि जेल में बंद कैदी वोट बैंक नहीं होता है, इसलिए राजनेताओं को भी इनका मुद्दा उठाने में कोई रूचि नहीं होती है. इस कारण जेल में बंद कैदी हर तरफ से उपेक्षित ही रह जाते हैं. सिर्फ नजरबंद लोग ही वोटिंग कर सकते हैं. बहुत से विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है. कई बार तो ऐसा होता है कि जब तक अभियुक्त को बरी करने का फैसला होता है तब तक वह कई साल तक जेल काट चुका होता है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि एक निर्दोष व्यक्ति जिसने अपना कीमती समय जेल में बिताया, तो बरी होने के बाद उसका हिसाब कौन देगा.

निर्दोष व्यक्तियों को सजा देने पर कोर्ट को देना चाहिए मुआवजा: जानकार कहते हैं कि जिन मामलों में अभियुक्त को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया जाता है उसमें उसे कोई मुआवजा देने की व्यवस्था नहीं है. लेकिन जिन मामलों में अभियुक्त को बरी करते हुए कोर्ट भी मानता है कि व्यक्ति निर्दोष था. ऐसे मामलों में व्यक्ति को उचित मुआवजा जरूर दिया जाना चाहिए.

अदालतें इसे बहुत कम मामलों में अपने फैसले के साथ व्यक्ति के लिए मुआवजे का आदेश देती हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता है. यदि बरी होने के बाद व्यक्ति को मुआवजा लेना है तो उसे एक और मुकदमा लड़ना पड़ता है, जो काफी लंबी प्रक्रिया हो जाती है. इसलिए ज्यादातर लोग ऐसे मुआवजे की मांग ही नहीं करते. विशेषज्ञों का कहना है कि कानून में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि यदि व्यक्ति निर्दोष है और लंबी सुनवाई के बाद अगर वह बरी हो गया है तो उसे इस बात का मुआवजा दिया जाना चाहिए कि उसका कीमती समय जेल में बीता और वह मानसिक रूप से परेशान हुआ.

चलाए जाते हैं सुधार कार्यक्रम: राजधानी की जेल में कैदियों को मानसिक तनाव और अवसाद से बचाने, उनको स्वस्थ रखने के लिए योग, ध्यान और व्यायाम आदि की व्यवस्था है. इसके अलावा खेल, मनोरंजन और स्किल डेवलपमेंट के लिए भी कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. इसके लिए डीएसईयू के साथ ही विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को जोड़कर भी जेल सुधार की दिशा में काम किया जा रहा है.

इसे भी पढ़ें: Pressure on Tihar: जेलों में बढ़ती भीड़ से बिगड़ रहा सामाजिक ताना-बाना

नई दिल्ली: जेलों में कैदियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इनमें बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है. जानकारों के अनुसार, जेलों की खराब स्थिति और उसमें क्षमता से अधिक कैदियों के होने का मुख्य कारण अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामले हैं. वहीं, दूसरा कराण न्यायिक प्रक्रिया का बहुत महंगा होना भी है. भारत की जेलों में करीब 70 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं. कैदियों की संख्या क्षमता से अधिक होने के कारण उनके लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी नहीं हो पाती है.

तिहाड़ जेल के पूर्व लीगल एडवाइजर और प्रवक्ता सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि जेलों में बंद कैदियों के सोचने का तरीका बदलना भी एक तरह का सुधार है. इसके लिए जेलों में धर्मगुरु की भी व्यवस्था होती है, जो कैदी के धर्म और मान्यताओं के अनुसार उसके रीति-रिवाजों के अनुसार उसके सोचने का तरीका बदलते हैं. उन्हें उनके धर्म की मान्यताओं के आधार पर बताया जाता है कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है. उन्हें अपनी गलती का एहसास कराया जाता है ताकि वह जेल से छूटने के बाद दोबारा कभी अपराध न करें.

गुप्ता ने कहा कि जेलों में दिन पर दिन बढ़ती भीड़ चिंताजनक है. कानून के अनुसार, जिस अपराध में अधिकतम सजा 7 साल की है, ऐसे कैदियों को आसानी से जमानत दे देनी चाहिए. वहीं, यदि विचाराधीन कैदी ने अपने अपराध की अधिकतम सजा से आधा समय जेल में बिता लिया है तो ट्रायल का फैसला आने तक उसे जेल से छोड़ दिया जाना चाहिए. कई मामलों में तो यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति अपने अपराध की अधिकतम सजा से ज्यादा समय तक जेल में रहता है और तब भी ट्रायल पूरा नहीं हो पाता.

सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि हर प्रदेश में अंडर ट्रायल रिमूव कमेटी होती है. कमेटी विचाराधीन मामलों पर अपनी राय और रिपोर्ट कोर्ट और जेल को देती है. देखा गया है कि यह कमेटियां समय पर अपना काम पूरा नहीं करती हैं, जिस कारण जेल में कैदियों की अनावश्यक भीड़ रहती है.

वोट बैंक नहीं है कैदी इसलिए राजनेता नहीं उठाते हैं इनका मुद्दा: जानकारों का मानना है कि जेल में बंद कैदी वोट बैंक नहीं होता है, इसलिए राजनेताओं को भी इनका मुद्दा उठाने में कोई रूचि नहीं होती है. इस कारण जेल में बंद कैदी हर तरफ से उपेक्षित ही रह जाते हैं. सिर्फ नजरबंद लोग ही वोटिंग कर सकते हैं. बहुत से विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है. कई बार तो ऐसा होता है कि जब तक अभियुक्त को बरी करने का फैसला होता है तब तक वह कई साल तक जेल काट चुका होता है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि एक निर्दोष व्यक्ति जिसने अपना कीमती समय जेल में बिताया, तो बरी होने के बाद उसका हिसाब कौन देगा.

निर्दोष व्यक्तियों को सजा देने पर कोर्ट को देना चाहिए मुआवजा: जानकार कहते हैं कि जिन मामलों में अभियुक्त को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया जाता है उसमें उसे कोई मुआवजा देने की व्यवस्था नहीं है. लेकिन जिन मामलों में अभियुक्त को बरी करते हुए कोर्ट भी मानता है कि व्यक्ति निर्दोष था. ऐसे मामलों में व्यक्ति को उचित मुआवजा जरूर दिया जाना चाहिए.

अदालतें इसे बहुत कम मामलों में अपने फैसले के साथ व्यक्ति के लिए मुआवजे का आदेश देती हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता है. यदि बरी होने के बाद व्यक्ति को मुआवजा लेना है तो उसे एक और मुकदमा लड़ना पड़ता है, जो काफी लंबी प्रक्रिया हो जाती है. इसलिए ज्यादातर लोग ऐसे मुआवजे की मांग ही नहीं करते. विशेषज्ञों का कहना है कि कानून में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि यदि व्यक्ति निर्दोष है और लंबी सुनवाई के बाद अगर वह बरी हो गया है तो उसे इस बात का मुआवजा दिया जाना चाहिए कि उसका कीमती समय जेल में बीता और वह मानसिक रूप से परेशान हुआ.

चलाए जाते हैं सुधार कार्यक्रम: राजधानी की जेल में कैदियों को मानसिक तनाव और अवसाद से बचाने, उनको स्वस्थ रखने के लिए योग, ध्यान और व्यायाम आदि की व्यवस्था है. इसके अलावा खेल, मनोरंजन और स्किल डेवलपमेंट के लिए भी कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. इसके लिए डीएसईयू के साथ ही विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को जोड़कर भी जेल सुधार की दिशा में काम किया जा रहा है.

इसे भी पढ़ें: Pressure on Tihar: जेलों में बढ़ती भीड़ से बिगड़ रहा सामाजिक ताना-बाना

ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.