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पद्मश्री राहीबाई पोपेरे : गरीबी के कारण नहीं गईं स्कूल, आज देश उन्हें 'सीड मदर' के नाम से जानता है - country knows her

महाराष्ट्र में बीज माता के नाम से सुविख्यात पद्मश्री राहीबाई पोपेरे (Padmashree Rahibai Popere) गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा सकीं, लेकिन अपने जज्बे की बदौलत आज देश उन्हें सीड मदर के नाम से जानता है( country knows her as 'Seed Mother'). आज ईटीवी भारत बता रहा है उनके जीवन संघर्ष की गाथा जो नारी सशक्तिकरण का एक अनुपम उदाहरण है.

आज देश उन्हें सीड मदर के नाम से जानता है
आज देश उन्हें सीड मदर के नाम से जानता है
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Published : Nov 26, 2022, 7:03 PM IST

नई दिल्ली: शिक्षा एक ऐसा हथियार है, जिसके दम पर जिंदगी की बड़ी से बड़ी लड़ाई जीती जा सकती है, लेकिन इस 21वी सदी में भी गांव देहात में बच्चों को शिक्षा से वंचित रखा जाता है. उन्हें शिक्षा देने के बजाय घरेलू कामों में झोंक दिया जाता है, जहां उनका बचपन ही नहीं बल्कि उनके सपने भी जल जाते हैं. कुछ ऐसे भी होते हैं जो शिक्षा के अभाव के बावजूद अपनी ऐसी पहचान बनाते हैं जिनको देश सलाम करता है. आज ईटीवी भारत पर हम आपको एक ऐसी महिला से रूबरू कराने जा रहे हैं जो (due to poverty) कभी स्कूल नहीं गई लेकिन आज पद्मश्री जैसे महान सम्मान से सम्मानित हैं. जी हां हम बात कर रहे हैं बीजमाता पद्मश्री राहीबाई पोपेरे की. उन्होंने ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान कहा कि बचपन गरीबी में गुजरा, लेकिन हिम्मत, हौसला बना कर रखा. आइए जानते है, इनके जीवन के सफर के बारे में.

महाराष्ट्र के इस गांव में हुआ जन्म : 72 साल की राहीबाई सोमा पोपेरे का महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अकोले आदिवासी ब्लॉक के कोम्बले गांव में जन्म हुआ. वह महादेव कोली आदिवासी समुदाय की रहने वाली हैं. रहीबाई सोमा पोपरे को स्वदेशी बीजों के संरक्षण के लिए 'सीड मदर' के रूप में जाना जाता है. राहीबाई, जिनके पांच भाई-बहन थे, गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा सकीं, लेकिन खेती करने में अपने माता-पिता की मदद करती थीं. 12 साल की उम्र में उसी गांव में उनकी शादी हो गई. शादी के बाद, उन्होंने विभिन्न फसलों की खेती में अपने पति सोमा की मदद की. हालांकि, उन्होंने पहाड़ी इलाकों में एक झोपड़ी में अपनी जिंदगी के 40 साल गुजारे. वहां पानी की समस्या विकट थी. प्रॉपर घर नहीं था. चार बच्चे भी हुए. वह कभी स्कूल तो नहीं गईं लेकिन पढ़ने का शौक था उनमें, इसलिए उन्होंने प्रकृति को ही स्कूल मान लिया.

ये भी पढ़ें :- ISRO: श्रीहरिकोटा से लॉन्च होने के बाद कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित हुआ ओशनसैट-3 और 8 नैनो सेटेलाइट, जानें क्या है खासियत?

नारी सशक्तिकरण का सटीक उदाहरण : खेती के दौरान उन्होंने देखा कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से फसलों का उत्पादन बढ़ता है, लेकिन खेती की लागत भी बढ़ जाती है. रासायनिक उर्वरकों से उगाई गई फसलों के उपभोग से भी स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है जिसके परिणामस्वरूप चिकित्सा पर अधिक व्यय होता है. जहरीले रासायनिक उर्वरकों और फसलों से सजी फसलों के उपभोग से बचने के लिए उन्होंने जैविक उत्पादों को अपनाकर किचन गार्डन में सब्जियां उगानी शुरू की. किचन गार्डन के विकास के लिए, उन्हें BAIF की ओर से कार्यान्वित जनरल मिल्स की जनजातीय विकास परियोजना से सहायता मिली. राहीबाई किचन गार्डन के विकास में जुट गईं. उसने सब्जियों और फसलों की विभिन्न देशी प्रजातियों के बीज एकत्र किए. धीरे-धीरे उन्होंने जैविक पद्धतियों के साथ सब्जियों और फसलों की स्वदेशी किस्मों की बुवाई पर ध्यान केंद्रित किया. इसके बाद उन्होंने सैकड़ों देशी किस्मों के संरक्षण और किसानों को पारंपरिक फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए काम किया. राहीबाई सोमा पोपेरे नारी सशक्तिकरण को पेश करने वाली एक बेहतरीन उदाहरण हैं.'सीड मदर' ने जैविक खेती को एक नया मुकाम दिया है. स्वयं सहायता समूहों के जरिए उन्होंने 50 एकड़ जमीन पर 17 से ज्यादा देसी फसलों को उगाने का काम किया है. दो दशक पहले शुरू किए अपने इस काम को आज उन्होंने स्वयं सहायता समूहों के जरिए बहुत से किसानों को जोड़ लिया है.

सैकड़ों किसान के लिए प्रेरणादायक हैं : राहीबाई को समुदाय प्यार से बीज माता (बीज माता) के रूप में जानता है. वह हजारों छोटे और गरीब किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई हैं. वह कहती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में बीज बैंक वाणिज्यिक बैंकों की तरह सर्वव्यापी होने चाहिए. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, वह स्कूलों और कॉलेजों में युवा पीढ़ी की ताकत का लाभ उठाकर किसानों को संगठित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं. एक स्वस्थ जीवन के लिए स्थानीय किस्मों और फसलों की स्वदेशी किस्मों के महत्व के बारे में छात्रों में जागरूकता पैदा करने के लिए एक कार्य योजना विकसित की हैं. राहीबाई की योजना है कि कार्यक्रम को समुदाय तक ले जाने के लिए BAIF, सरकारी विभागों और अनुसंधान संस्थानों जैसे विकास संगठनों से समर्थन प्राप्त किया जाएगा.

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नई दिल्ली: शिक्षा एक ऐसा हथियार है, जिसके दम पर जिंदगी की बड़ी से बड़ी लड़ाई जीती जा सकती है, लेकिन इस 21वी सदी में भी गांव देहात में बच्चों को शिक्षा से वंचित रखा जाता है. उन्हें शिक्षा देने के बजाय घरेलू कामों में झोंक दिया जाता है, जहां उनका बचपन ही नहीं बल्कि उनके सपने भी जल जाते हैं. कुछ ऐसे भी होते हैं जो शिक्षा के अभाव के बावजूद अपनी ऐसी पहचान बनाते हैं जिनको देश सलाम करता है. आज ईटीवी भारत पर हम आपको एक ऐसी महिला से रूबरू कराने जा रहे हैं जो (due to poverty) कभी स्कूल नहीं गई लेकिन आज पद्मश्री जैसे महान सम्मान से सम्मानित हैं. जी हां हम बात कर रहे हैं बीजमाता पद्मश्री राहीबाई पोपेरे की. उन्होंने ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान कहा कि बचपन गरीबी में गुजरा, लेकिन हिम्मत, हौसला बना कर रखा. आइए जानते है, इनके जीवन के सफर के बारे में.

महाराष्ट्र के इस गांव में हुआ जन्म : 72 साल की राहीबाई सोमा पोपेरे का महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अकोले आदिवासी ब्लॉक के कोम्बले गांव में जन्म हुआ. वह महादेव कोली आदिवासी समुदाय की रहने वाली हैं. रहीबाई सोमा पोपरे को स्वदेशी बीजों के संरक्षण के लिए 'सीड मदर' के रूप में जाना जाता है. राहीबाई, जिनके पांच भाई-बहन थे, गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा सकीं, लेकिन खेती करने में अपने माता-पिता की मदद करती थीं. 12 साल की उम्र में उसी गांव में उनकी शादी हो गई. शादी के बाद, उन्होंने विभिन्न फसलों की खेती में अपने पति सोमा की मदद की. हालांकि, उन्होंने पहाड़ी इलाकों में एक झोपड़ी में अपनी जिंदगी के 40 साल गुजारे. वहां पानी की समस्या विकट थी. प्रॉपर घर नहीं था. चार बच्चे भी हुए. वह कभी स्कूल तो नहीं गईं लेकिन पढ़ने का शौक था उनमें, इसलिए उन्होंने प्रकृति को ही स्कूल मान लिया.

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नारी सशक्तिकरण का सटीक उदाहरण : खेती के दौरान उन्होंने देखा कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से फसलों का उत्पादन बढ़ता है, लेकिन खेती की लागत भी बढ़ जाती है. रासायनिक उर्वरकों से उगाई गई फसलों के उपभोग से भी स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है जिसके परिणामस्वरूप चिकित्सा पर अधिक व्यय होता है. जहरीले रासायनिक उर्वरकों और फसलों से सजी फसलों के उपभोग से बचने के लिए उन्होंने जैविक उत्पादों को अपनाकर किचन गार्डन में सब्जियां उगानी शुरू की. किचन गार्डन के विकास के लिए, उन्हें BAIF की ओर से कार्यान्वित जनरल मिल्स की जनजातीय विकास परियोजना से सहायता मिली. राहीबाई किचन गार्डन के विकास में जुट गईं. उसने सब्जियों और फसलों की विभिन्न देशी प्रजातियों के बीज एकत्र किए. धीरे-धीरे उन्होंने जैविक पद्धतियों के साथ सब्जियों और फसलों की स्वदेशी किस्मों की बुवाई पर ध्यान केंद्रित किया. इसके बाद उन्होंने सैकड़ों देशी किस्मों के संरक्षण और किसानों को पारंपरिक फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए काम किया. राहीबाई सोमा पोपेरे नारी सशक्तिकरण को पेश करने वाली एक बेहतरीन उदाहरण हैं.'सीड मदर' ने जैविक खेती को एक नया मुकाम दिया है. स्वयं सहायता समूहों के जरिए उन्होंने 50 एकड़ जमीन पर 17 से ज्यादा देसी फसलों को उगाने का काम किया है. दो दशक पहले शुरू किए अपने इस काम को आज उन्होंने स्वयं सहायता समूहों के जरिए बहुत से किसानों को जोड़ लिया है.

सैकड़ों किसान के लिए प्रेरणादायक हैं : राहीबाई को समुदाय प्यार से बीज माता (बीज माता) के रूप में जानता है. वह हजारों छोटे और गरीब किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई हैं. वह कहती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में बीज बैंक वाणिज्यिक बैंकों की तरह सर्वव्यापी होने चाहिए. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, वह स्कूलों और कॉलेजों में युवा पीढ़ी की ताकत का लाभ उठाकर किसानों को संगठित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं. एक स्वस्थ जीवन के लिए स्थानीय किस्मों और फसलों की स्वदेशी किस्मों के महत्व के बारे में छात्रों में जागरूकता पैदा करने के लिए एक कार्य योजना विकसित की हैं. राहीबाई की योजना है कि कार्यक्रम को समुदाय तक ले जाने के लिए BAIF, सरकारी विभागों और अनुसंधान संस्थानों जैसे विकास संगठनों से समर्थन प्राप्त किया जाएगा.

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