नई दिल्ली: मजदूरों की दशा देखने के लिए सबसे पहले हमने एक कंस्ट्रक्शन साइट को चुना, जहां पर करीब दर्जनभर मजदूर काम कर रहे थे. उन सभी से हमने बातचीत की और उनसे जानने की कोशिश की कि क्या जिन सपनों को लेकर वे अपने गांव घर से हजारों किलोमीटर दूर राजधानी में आए थे, वे सपने पूरे होते दिख रहे हैं.
बिहार के कई जिलों, यूपी के बनारस और झांसी जैसे शहरों से आए ये सभी मजदूर सर पर ईंट, बालू, बजरी ढोते हैं. जिस दिन काम ना करें उस दिन दिहाड़ी तो दूर, निवाले के लिए भी सोचना पड़ता है और हर दिन के काम के बाद भी उतना नहीं मिल पाता, जितने के लिए ये अपना घर बार छोड़कर दिल्ली आए थे.
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र से आए सुनील कुमार बताते हैं कि बेहतर जिंदगी का सपना लेकर दिल्ली आया था, लेकिन मजदूरी में पिस रहा हूं. इसी तरह बिहार के मधेपुरा से आए एक मजदूर ने कहा कि काम तो मधेपुरा में भी है लेकिन इतने पैसे नहीं मिलते, जितने दिल्ली में मिलते हैं. हालांकि दिल्ली में उन्हें मिलने वाले पैसे को यहां के खर्च के हिसाब से देखें तो शायद रहने और खाने जैसी रोजमर्रा की जरूरतों के बाद इतना भी नहीं बच पाता, जो घरवालों की जरूरतों के लिए पर्याप्त हो.
लगभग सभी मजदूरों के ऐसे ही दर्द थे. एक ने बताया कि अपना घर बनाने का सपना लेकर दिल्ली आया था, लेकिन आज दूसरों के घर के लिए पसीना बहा रहे हैं. अब भी उम्मीद नहीं है कि अपना घर बन ही जाएगा. दिल्ली में काम कर रहे मजदूरों के लिए क्या दिल्ली सरकार के कोई नियम हैं, इसे लेकर हमने दिल्ली सरकार के श्रम मंत्री गोपाल राय से बातचीत की.
'देश तभी आगे बढ़ेगा जब मजदूर आगे बढ़ेगा'
गोपाल राय का कहना था कि उनकी सरकार ने मजदूरों के हित की दिशा में बहुत काम किए हैं. उन्होंने बताया कि हमने दिल्ली में मिनिमम वेज बढ़ाकर 9 हजार से 14 हजार कर दिया है. खासकर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स के लिए 15 से ज्यादा पॉलिसी बनाई गई हैं. लेबर कोर्ट में मजदूरों के केस पेंडिंग न रहें, इसके लिए हमने अतिरिक्त अधिकारियों को लगा कर जल्दी से केस निपटाए. लेकिन क्या दिल्ली सरकार दिल्ली से बाहर के रहने वाले मजदूरों को ये सभी सुविधाएं मुहैया कराती है, इसके जवाब में गोपाल राय ने कहा कि दिल्ली में काम करने वाले मजदूरों का लेबर कार्ड बनता है, जिसके पास यह कार्ड होता है उसे ये सारी सुविधाएं मिलती हैं. गोपाल राय ने कहा कि हम जानते हैं कि देश तभी आगे बढ़ेगा जब मजदूर आगे बढ़ेगा.
'पैसे नहीं हैं किराए का घर ले सकें'
पूरे दिन के काम के बाद आदमी के लिए चैन की नींद जरूरी होती है, लेकिन शायद मजदूरों को यह भी मयस्सर नहीं. पुरानी दिल्ली के एक इलाके में हमें सड़कों के बीचों-बीच डिवाइडर पर एक लाइन में लगातार दर्जनभर से ज्यादा मजदूर सोते दिखे. उनमें से एक ने बातचीत में बताया कि वे 2001 में आसाम से दिल्ली कमाने के लिए आए थे, तब से अब तक वे ठेला खींचकर या मजदूरी कर 2 जून की रोटी जुटाते हैं, लेकिन इतने पैसे नहीं मिल पाते कि अपने लिए किराए का घर ले सकें.
यह सिर्फ एक मजदूर की नहीं, दिल्ली में रहने वाले हजारों मजदूरों की दशा है. हर दिन हजारों लोग सड़कों के किनारे आसमान के नीचे रात बिताने को मजबूर हैं. इत्तेफाक से जब विश्व मजदूर दिवस मना रहा है, अपने देश में चुनाव भी चल रहे हैं. लेकिन अफसोस कि अब तक किसी भी दल के किसी भी नेता ने अपने किसी भी चुनावी वादे में मजदूर और कामगारों के हक की बात नहीं की है. स्पष्ट है कि मजदूर दिवस भी महज औपचारिकता भर बनकर रह गया है और किसी कवि की ये पंक्तियां कभी ना बदलने वाला सच बनकर रह गई हैं कि
'दुनिया बदली सत्ता बदली
बदली गांव जवार,
पर मजदूर का हाल न बदला,
आई गई सरकार....'