नई दिल्ली: बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बाघेल गांव के रहने वाले बिंदेश्वर पाठक का मंगलवार को निधन हो गया. उन्होंने अपने जीवन में जिस आंदोलन की शुरुआत की, उससे पूरा देश बदल गया. उन्होंने एक बार बताया था कि बचपन में घर में शौचालय की सुविधा नहीं थी. इसका उनके मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने इस व्यवस्था से लड़कर इसे पूरी तरह बदल दिया. हालांकि, उनके लिए रास्ते बिल्कुल आसान नहीं थे.
उनका जन्म 2 अप्रैल 1943 को ब्राह्मण परिवार में हुआ था. परिवार के साथ वो जिस घर में रहते थे, जहां वे पले बढ़े, वहां रहने के लिए तो 9 कमरे थे, लेकिन शौचालय नहीं था. हर दिन महिलाएं शौच के लिए बाहर जातीं थी. हर किसी को खुले में शौच करते देखते थे. यहीं से उनको सुलभ जैसी योजना को साकार करने की प्रेरणा मिली.
गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति से हुई शुरुआत: पाठक के सहयोगी मदन बताते हैं कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1964 में समाजशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई की. उसके बाद 1980 में पटना विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री हासिल की. 1985 में उन्हें पीएचडी की उपाधि मिल गई. 1968-69 में बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति में उन्हें सुरक्षित और सस्ती शौचालय विकसित करना का काम दिया गया, जहां से उन्होंने सुलभ की शुरुआत की. उन्हें दलितों के सम्मान के लिए काम करने को भी कहा गया था.
उन्होंने समाज में स्वच्छता और स्वास्थ्य को लेकर जागरुकता फैलाने की शुरुआत की और देश को स्वच्छ मुक्त करने को लेकर वो लगातार काम करने लगे. उस दौर में मैला ढोने की समस्या और खुले में शौच की समस्या समाज में हावी थी. 1970 में उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की. यह एक सामाजिक संगठन था, जो मुख्यतः मानव अधिकार, पर्यावरण, स्वच्छता और शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है.
पिता से लेकर ससुर तक थे नाराजः तब के समाज में बिहार जैसे राज्य में एक उच्च जाति के पढ़े-लिखे युवक के लिए यह सब इतना आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने इसमें काम किया और अपने जीवन को एक नई दिशा दी. अच्छे वक्ता और उच्च कोटि के लेखक के रूप में बिंदेश्वर पाठक अपनी अलग पहचान बनाने लगे.
हालांकि, इन्हें अपनों से भी विरोध का सामना करना पड़ा. इनके पिता रमाकांत पाठक इससे नाराज हो गए. आसपास के लोग भी ज्यादा खुश नहीं रहते थे. उनके ससुर भी इनसे ज्यादा खुश नहीं थे. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि जब ससुर से लोग पूछते थे कि आपका दमाद क्या करता है, तो वह जवाब देने में असहज महसूस करते थे. हालांकि, बिंदेश्वर पाठक सभी को एक ही जवाब देते थे कि मुझे गांधीजी के सपने को पूरा करना है.
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सुलभ सौचालय बना इंटरनेशनल ब्रांड: सुलभ शौचालय की स्थापना के लिए उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. इसके अलावा देश-विदेश के विभिन्न अलग-अलग पुरस्कारों से वह सम्मानित हो चुके हैं. बिंदेश्वर पाठक ने 2001 में वर्ल्ड टॉयलेट डे भी मनाया था. उनके प्रयासों की वजह से सुलभ इंटरनेशनल को संयुक्त राष्ट्र में 19 नवंबर पर वर्ल्ड क्वालिटी की मान्यता साल 2013 में मिली. सुलभ इंटरनेशनल के देश ही नहीं विदेशों में भी सैकड़ों शाखाएं हैं. पाठक ने अपनी कड़ी मेहनत से इसे इंटरनेशनल ब्रांड बनाया. बीते तीन दशक से वह दिल्ली में ही स्थायी तौर पर रहते थे. सुलभ इंटरनेशनल का मुख्य कार्यालय पश्चिमी दिल्ली में है.
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