नई दिल्ली : राजधानी दिल्ली में एक बार फिर से दिल्ली की चुनी हुई सरकार और उपराज्यपाल आमने-सामने हैं. उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल को पत्र लिखा है. इस पत्र में मनीष सिसोदिया ने कहा है कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार के दायरे में आने वाले कार्यों पर भी बिना संबंधित मंत्रियों को सूचित किए, अधिकारियों को बैठक में बुलाकर दिशा-निर्देश दिए जा रहे हैं.
मनीष सिसोदिया ने इस पत्र में लिखा है, उपराज्यपाल कार्यालय के अधिकारी सरकार के अधिकारियों पर अपने निर्णय को लागू करने के लिए दबाव बना रहे हैं. सिसोदिया ने कहा है, ऐसी बैठकों में लिए जाने वाले निर्णय न केवल असंवैधानिक हैं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन भी है. सिसोदिया ने कहा है कि सरकार को दरकिनार कर अधिकारियों को मीटिंग में बुलाया जाना और निर्णय लेना जनतंत्र की हत्या है.
उपराज्यपाल को सम्बोधित करते हुए मनीष सिसोदिया ने लिखा है कि विगत कुछ महीनों से आप दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों के प्रमुख अधिकारियों को अपने दफ्तर में बुलाकर उनकी मीटिंग ले रहे हैं और उन्हें उनके विभाग से संबंधित कार्यों के संबंध में दिशानिर्देश भी दे रहे हैं. मेरे संज्ञान में यह भी आया है कि आप दिल्ली की चुनी हुई सरकार के दायरे में आने वाले कार्यों के बारे में भी मंत्रियों को सूचित किए बिना, संबंधित अधिकारियों को अपनी बैठक में बुलाकर उन्हें दिशा निर्देश दे रहे हैं.
मनीष सिसोदिया ने कहा है कि उपराज्यपाल कार्यालय के अधिकारी सरकार के अधिकारियों पर उन निर्णयों को लागू करने के लिए लगातार दबाव बनाते हैं. हालांकि इस पत्र में सिसोदिया ने व्यक्तिगत रूप से उपराज्यपाल की तारीफ भी की है. उन्होंने लिखा है, मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूं कि आप एक बहुत अच्छे और नेक नीयत इंसान हैं और इसके लिए मैं आपका बहुत सम्मान करता हूं. यह पत्र लिखने से पहले मैंने अपने मन में कम से कम 100 बार विचार किया होगा कि मैं आपकी उपरोक्त गतिविधियों के विरोध में आपको यह पत्र लिखूं या न लिखूं.
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लेकिन यहां बात व्यक्तिगत संबंधों और सम्मान की नहीं है. जनतंत्र की रक्षा की है, संविधान की रक्षा की है. हम और आप कल रहें या न रहें. इन पदों पर कल हम और आप बैठे हों या न बैठे हों, लेकिन जनतंत्र हमेशा रहना चाहिए. संविधान हमेशा रहना चाहिए. मनीष सिसोदिया ने लिखा है, हम इस साल आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं. यह आजादी हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों की कई पीढ़ियों ने अपना खून बहा कर दी है. यह जनतंत्र हमारे देश के बाबा साहब जैसे नीति नियंताओं ने बहुत सूझबूझ और कड़ी तपस्या से स्थापित किया है.
सिसोदिया ने लिखा है, यह जनतंत्र बचा रहना चाहिए. अगर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपाल और उपराज्यपाल ही जनता की चुनी हुई सरकारों को किनारे कर सभी विषयों पर निर्णय लेने लगेंगे तो हमारे पूर्वजों, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा इतनी लंबी लड़ाई के बाद हासिल किया गया जनतंत्र तो खत्म हो जाएगा. हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने 75 साल पहले देश को इसलिए आजाद नहीं कराया था कि आजादी के 75 साल के अंदर ही चुनी हुई सरकारों को किनारे कर लोगों की जिंदगी से जुड़े हुए निर्णय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल और उपराज्यपालों के दफ्तरों में लिए जाने लगें.
मनीष सिसोदिया ने लिखा है, संविधान में कहीं भी दिल्ली के उपराज्यपाल को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि वे दिल्ली की चुनी हुई सरकार के तहत आने वाले विषयों पर संबंधित विभागों के अधिकारियों की सीधे बैठक बुलाएं, निर्णय लें और उन्हें दिशा निर्देश जारी करें. संविधान ने आपको दिल्ली के उपराज्यपाल के रूप में केवल तीन विषयों पुलिस लैंड और पब्लिक ऑर्डर के बारे में निर्णय लेने का अधिकार दिया है. संविधान ने उपराज्यपाल की जिम्मेदारी तय की है कि इन तीन विषयों को छोड़कर सरकार चलाने के बाकी सभी विषयों पर आप केवल चुनी हुई सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार काम करेंगे.
सिसोदिया ने, उपराज्यपाल को मिले वीटो पावर का भी जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है, देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली के उपराज्यपाल को संविधान ने वीटो पावर दी है कि दिल्ली की चुनी सरकार के किसी निर्णय से सहमत होने की स्थिति में आप अपनी अलग राय व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन उपराज्यपाल के इस अधिकार को स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने बहुत जोर देकर 4 जुलाई 2018 के निर्णय में इस बात को कहा है कि उपराज्यपाल को यह अधिकार बेहद चुनिंदा स्थितियों में यदा-कदा बहुत ही असाधारण परिस्थितियों में इस्तेमाल करने के लिए दिया गया है.
मनीष सिसोदिया ने इस पत्र में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी जिक्र किया है. सिसोदिया ने लिखा है, सुप्रीम कोर्ट की पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने आदेश में स्पष्ट कहा है कि दिल्ली के उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र निर्णय लेने का कोई भी अधिकार नहीं है. संविधान में उपराज्यपाल के पास केवल दो ही अधिकार हैं, या तो वह चुनी हुई सरकार के निर्णय से सहमत होंगे और उसके अनुसार काम करेंगे और अगर असहमत होंगे तो फिर अपनी असहमति राष्ट्रपति के पास भेजेंगे.
हालांकि सिसोदिया ने यह भी लिखा है, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि उपराज्यपाल को इस प्रकार असहमत होकर किसी मामले को निर्णय के लिए राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार बेहद असाधारण परिस्थितियों के लिए ही दिया गया है. इसके आगे मनीष सिसोदिया ने कहा है, मुझे नहीं मालूम कि पिछले तीन महीने के दौरान ऐसा क्या हो गया है कि आप संविधान में दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधीन आने वाले विषयों पर भी लगातार अधिकारियों की बैठक बुला रहे हैं. खुद निर्णय ले रहे हैं और सीधे अधिकारियों को निर्देश दे रहे हैं.
भाजपा को भी इस पत्र के जरिए सिसोदिया ने निशाने पर लिया है. उन्होंने लिखा है, मैं इस तथ्य से भलीभांति वाकिफ हूं कि उपराज्यपाल पद पर आप की नियुक्ति भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की सरकार ने की है. जाहिर है, भाजपा के लोग, उनके नेता, उनके कार्यकर्ता आपके ऊपर दिल्ली की चुनी हुई सरकार के खिलाफ काम करने के लिए दबाव बनाते होंगे. लेकिन उनके कार्यकर्ता और नेताओं को जो राजनीति करनी है, उनकी वह जानें, लेकिन मैं आप याद दिलाना चाहता आप भाजपा के कार्यकर्ता नहीं हैं. आप इस समय दिल्ली के महामहिम उपराज्यपाल हैं.
सिसोदिया ने लिखा है, उपराज्यपाल पद पर होते हुए आज आपके पास अवसर है. आप चाहें, तो इस अवसर का इस्तेमाल ऐसे कामों में कर सकते हैं, जिससे आने वाली पीढ़ियों को एक कमजोर और लचर लोकतंत्र मिले और इतिहास में आपका नाम एक ऐसे उपराज्यपाल के रूप में दर्ज हो जो आदमी तो अच्छा था, लेकिन जनतंत्र को कमजोर कर के गया और आप चाहें तो इस अवसर का इस्तेमाल कर अपने पद का उपयोग जनतंत्र को और मजबूत करने में कर सकते हैं, और लोग आपको एक ऐसे उपराज्यपाल के रूप में याद करें कि आदमी के ऊपर भारतीय जनता पार्टी ने दबाव तो बहुत डाला लेकिन अपने व्यक्तित्व के दम पर वह जनतंत्र को मजबूत करके गया.
सिसोदिया ने लिखा है, मेरी और आपकी राजनीतिक निष्ठाएं अलग हो सकतीं हैं, लेकिन मेरा और आपका देश एक ही है. इस देश के भविष्य की नींव जनतंत्र पर टिकी है. अंत में सिसोदिया ने लिखा है कि चुनी हुई सरकार को दरकिनार करके आपके द्वारा अधिकारियों की मीटिंग बुलाया जाना और उसमें निर्णय लेना जनतंत्र की हत्या है. आपके ऊपर राजनीतिक दबाव चाहे जो भी हो लेकिन आप दिल्ली के उपराज्यपाल के पद पर रहते हुए वही करें जो जनतंत्र को और मजबूत करने के लिए जरूरी है.