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भाई-भतीजावाद, बॉलीवुड और राजनीति

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Published : Aug 5, 2020, 11:08 AM IST

फिल्म अभिनेता रहे सुशांत सिंह राजपूत की रहस्मयी मौत के बाद पूरा बॉलीवुड हिल गया है. कई लोग इस मौत को एक सोची समझी साजिश मान रहे हैं. वहीं अन्य ने इसे बॉलीवुड में भाई-भतीजावाद का शिकार माना है. राजनीति में भी नेपोटिज्म सात दशक से चला आ रहा है. बॉलीवुड में नेपोटिज्म खत्म करने के लिए अभिनेत्री कंगना रनौत ने मुद्दा उठाया है कि इस पर गंभीर बहस होनी चाहिए और गंदगी दूर की जानी चाहिए. पढ़े ईवीटी भारत का विशेष लेख...

sushant singh rajput suicide case
सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या का मामला

नई दिल्ली : फिल्म अभिनेता रहे सुशांत सिंह राजपूत की अचानक रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत ने बॉलीवुड में जो भी गलत है, उन सब पर बड़ी बहस छेड़ दी है. विशेष रूप से उस पर जो फिल्म बिरादरी के भीतर मौजूद कौटुम्बिक अनाचार है और शत्रुता नहीं भी कहें, लेकिन 'बाहरी' लोगों को हतोत्साहित तो किया ही जाता है.

मुंबई पुलिस अभी सुशांत की मौत के कारणों की जांच कर रही है. फिल्म इंडस्ट्री में सुशांत की सहयोगी रहीं कंगना रनौत ने मुंबई में 'मूवी माफिया' की मौजूदगी और माफिया द्वारा भाई भतीजावाद को बढ़ावा देने की बात कहकर बर्र के छत्ते को हिला दिया है. कंगना रनौत को भी फिल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था. उन्हें भी बाहरी माना जाता है.

हाल ही में एक निजी टेलीविजन चैनल को दिए विस्तृत साक्षात्कार को लेकर बहुत विवाद हुआ और भाई-भतीजावाद (नेपोटिज्म) का मुद्दा मुख्य रूप से उभरकर सामने आया.

सुशांत सिंह की दुखद मौत के बाद 'बॉलीवुड माफिया' के खिलाफ लगाए जाने वाले आरोपों में यह भी है कि यह बाहरी प्रतिभाओं को फिल्म उद्योग व्यवसाय से बाहर कर देता है, जबकि फिल्मी सितारों के साधारण प्रतिभा वाले बच्चों को आगे बढ़ाता है. कहने का मतलब यह नहीं है फिल्मी सितारों के बच्चे प्रतिभावान नहीं हैं, उनमें से कई सारे बेहतरीन अभिनेता के रूप में उभर कर सामने आए हैं, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके पास एक सुरक्षा कवच है.

दिलचस्प यह है कि मुंबई की फिल्मी दुनिया में जो बात सच है, वही दिल्ली और देश के अन्य जगहों की राजनीति में भी सच है. भाई-भतीजावाद ने अपनी पकड़ ऐसी मजबूत कर ली है कि अब यह हमारे जीवन के केंद्र में है. भले ही थोड़ी देर हो, लेकिन किसी को भी इस प्रवृत्ति को पहचानना और बाहर कर देना चाहिए, क्योंकि यह लोकतांत्रिक धर्म के प्रतिकूल है. लोकतंत्र सबके लिए एक समान अवसर मुहैया कराने की बात करता है.

कंगना के आरोपों के निशाने पर रहे निर्माता-निर्देशक करण जौहर ने फिल्मी दुनिया में नेपोटिज्म की भूमिका से इनकार नहीं किया है. उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि जब कोई निर्माता किसी स्टार के बच्चे को लांच करता है तो वह वास्तव में कम्फर्ट जोन में रहना चाहता है, क्योंकि अंतत: यह भी एक व्यावसायिक चीज है. एक बड़े फिल्मी सितारे के बेटे को लोग देखना चाहते हैं. आप कोई और मौका लेना नहीं चाहते. आखिरी यह पैसा है. दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा कि निर्माता जब नेपोटिज्म के दायरे में होते हैं, तो अपने को संरक्षित महसूस करते हैं.

राजनीति में भी क्या यह सच नहीं है? जिस तरह से संसदीय चुनाव में पार्टी के टिकट बांटे जाते हैं, आप सिर्फ उस पर नजर डालें तो आपको महसूस होता है कि 'जुड़ा होना' बहुत मायने रखता है. जिस लोकतंत्र की आप बात कर रहे हैं, वह दौर तो स्वतंत्रता के बाद से चला गया. नेपोटिज्म सात दशक से चला आ रहा है. वास्तव में भाई-भतीजावाद ऐसी मजबूत पकड़ बनाए हुए है कि जिन लोगों ने कई दशक पहले राष्ट्रीय स्तर पर सरकार का नेतृत्व किया, उनके बच्चे और उनके बच्चों के बच्चे उनके निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करना लगभग अपना अधिकार मानते हैं, जहां से उनके दादा या दादी जीतकर आते थे.

लुटियंस की दिल्ली में वह उसी घर में रहते भी हैं, जिनमें उनके पूर्वज रहा करते थे. वह उन घरों से इतना अधिक जुड़ जाते हैं कि कुछ समय बाद वह यह भी भूल जाते हैं कि यह आशियाना सार्वजनिक संपत्ति है. यदि किसी वजह से उन घरों में नहीं रहते हैं, तो दूसरी या तीसरी पीढ़ी के ऐसे नेताओं की मांग रहती है कि उन्हें स्मारक या समाधि में बदल दिया जाए. राष्ट्रीय राजनीति और दिल्ली में इस प्रवृत्ति की असली शुरुआत करने वाले नेहरू-गांधी हैं. पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दिनों से यह तब शुरू हुआ जब उन्होंने 1959 में अपनी बेटी इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति सुनिश्चित की. भारत के लोगों को इसके बाद जो हुआ उसके बारे में अच्छी तरह से पता है. इस परिवार के एक सदस्य के प्रधानमंत्री बनने के बाद दूसरा व्यक्ति उसकी जगह लेता गया. इस परिवार के साथ हमारा गणतांत्रिक संविधान कमजोर पड़ता गया और यह सोचा जाने लगा भारत में वास्तव में राजतंत्र है.

यह परिवार अपनी स्थिति मजबूत करता गया. उसके बाद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. नेहरूवादी स्कूल हावी होता गया और महत्वाकांक्षी नौकरशाह शिक्षाविद, प्रमुख विचारक, कलाकार, मीडियाकर्मी और व्यवसाई इसका हिस्सा बन गए. इनमें से सभी ने यह महसूस किया कि केवल वही नौकरशाही, शिक्षा, मीडिया आदि में ऊपर पहुंच सकता है, जो इस कारवां का हिस्सा है. कुछ अपवाद को छोड़ दें तो सभी राज्यपाल, उपकुलपति, अखबार के संपादक, टीवी एंकर, पद्म पुरस्कार विजेता इस स्कूल के सदस्य थे. विविधता या अन्य वैचारिक दृष्टिकोण के लिए सम्मान जैसी कोई चीज नहीं थी. राजनीति में जिन दिनों कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था लोकसभा और राज्यसभा पहुंचने के लिए उन्हें इसी वैचारिक बिरादरी का हिस्सा बनना पड़ा या उनके साथ चलना पड़ा. इस वजह से इस परिवार की इच्छा और सनक ही कानून बन गई और इससे परिवार का भाई-भतीजा वाला रवैया तब और दुनिया में चर्चित हो गया, जब इसने अपने वफादारों के बच्चों और उनके बच्चों को बढ़ावा दिया.

जब तक मई 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन गए तब तक यह बे रोक-टोक चलता रहा. मोदी एक कट्टर विरोधी बनकर उभरे और उन्होंने लुटियन की दिल्ली में बराबरी का अवसर पैदा करने की दिशा में काफी काम किया.

कंगना बॉलीवुड में ऐसा ही कर रही हैं. वह निडर होकर उन लोगों के खिलाफ आवाज उठा रही हैं, जो बेशर्मी के साथ हिंदी फिल्म उद्योग में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देते हैं और यहां तक कि बॉलीवुड में अपने लिए जगह की तलाशने का साहस करने वाले प्रतिभाशाली 'बाहरी' लोगों पर से हमला बोलते हैं. उदाहरण के रूप में शाहरुख खान और शाहिद कपूर ने आईआईएफए के पुरस्कार वितरण समारोह में सुशांत सिंह राजपूत को जिस तरह‌ से किस किया था, वैसी घटना टेलीविजन शो या सार्वजनिक आयोजनों में नए आए लोगों का किस तरह मजाक उड़ाया जाता है, इसका एक उदाहरण है.

कंगना रनौत कुछ बेहद चिंताजनक स्थितियों के बारे में भी कहती हैं. जैसे बॉलीवुड के एक मशहूर निर्देशक ने सुशांत सिंह को कहा था- 'वह बह नहीं, बल्कि डूब रहा है.'
सुशांत सिंह बिहार के पूर्णिया जिले के मालडीहा के रहने वाले थे. भौतिकी में राष्ट्रीय ओलंपियाड विजेता रहे. इंजीनियरिंग कॉलेज की दाखिलs की परीक्षा में रैंक धारक रहे. पढ़ने में गणित से लेकर खगोल विज्ञान और नृत्य-संगीत और सिनेमा तक में उनकी व्यापक रुचि रही. क्या वह बॉलीवुड के लिए बहुत अधिक बुद्धिजीवी थे? क्योंकि बहुत सारे फिल्मी सितारों के शिक्षा के खराब रिकॉर्ड को सार्वजनिक तौर पर देखा गया है. वास्तव में करण जौहर ने कबूल किया है कि उन्हें बचपन में बताया गया था कि यदि वह हिंदी फिल्म बनाना चाहते हैं, तो आपको बहुत पढ़े-लिखे होने की जरूरत नहीं है और यह भी कि मैं जिस बिरादरी से आता हूं उसमें यह बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती.

इस लेख के लेखक फिल्मों के शौकीन नहीं हैं, लेकिन उसने सुशांत के कुछ कामों को देखा है. छिछोरे में उसकी मुख्य भूमिका और एमएस धोनी के जीवन पर बनी फिल्म उदाहरण हैं. इन दोनों फिल्मों में उसका संवेदनशील चित्रण सभी को देखना चाहिए. ऐसी प्रतिभा को गले लगाने और बढ़ावा देने के बजाए बॉलीवुड में उसे किनारे लगा दिया गया. यदि कोई माफिया है या इसे और सही तरीके से देखा जाए तो भाई-भतीजाबाद करने वालों का एक क्लब है. उसे हर हाल में पहचान कर यह काम बंद करने के लिए कहना चाहिए. कंगना रनौत ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर गंभीर बहस होनी चाहिए और गंदगी दूर की जानी चाहिए. सुशांत की मौत बेकार नहीं जाए इसलिए बॉलीवुड का लोकतांत्रीक करण और सब के लिए बराबरी का मौका देना बेहद जरूरी है, लेकिन यह तभी हो सकता है जब सुशांत के मुद्दे को लेकर उपजा राष्ट्रीय आक्रोश 'बाहरी' प्रतिभाओं के काम को प्रोत्साहित करने के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन में बदल जाए और इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह बॉक्स ऑफिस पर भी दिखे.
(लेखक- ए. सूर्यप्रकाश)

नई दिल्ली : फिल्म अभिनेता रहे सुशांत सिंह राजपूत की अचानक रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत ने बॉलीवुड में जो भी गलत है, उन सब पर बड़ी बहस छेड़ दी है. विशेष रूप से उस पर जो फिल्म बिरादरी के भीतर मौजूद कौटुम्बिक अनाचार है और शत्रुता नहीं भी कहें, लेकिन 'बाहरी' लोगों को हतोत्साहित तो किया ही जाता है.

मुंबई पुलिस अभी सुशांत की मौत के कारणों की जांच कर रही है. फिल्म इंडस्ट्री में सुशांत की सहयोगी रहीं कंगना रनौत ने मुंबई में 'मूवी माफिया' की मौजूदगी और माफिया द्वारा भाई भतीजावाद को बढ़ावा देने की बात कहकर बर्र के छत्ते को हिला दिया है. कंगना रनौत को भी फिल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था. उन्हें भी बाहरी माना जाता है.

हाल ही में एक निजी टेलीविजन चैनल को दिए विस्तृत साक्षात्कार को लेकर बहुत विवाद हुआ और भाई-भतीजावाद (नेपोटिज्म) का मुद्दा मुख्य रूप से उभरकर सामने आया.

सुशांत सिंह की दुखद मौत के बाद 'बॉलीवुड माफिया' के खिलाफ लगाए जाने वाले आरोपों में यह भी है कि यह बाहरी प्रतिभाओं को फिल्म उद्योग व्यवसाय से बाहर कर देता है, जबकि फिल्मी सितारों के साधारण प्रतिभा वाले बच्चों को आगे बढ़ाता है. कहने का मतलब यह नहीं है फिल्मी सितारों के बच्चे प्रतिभावान नहीं हैं, उनमें से कई सारे बेहतरीन अभिनेता के रूप में उभर कर सामने आए हैं, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके पास एक सुरक्षा कवच है.

दिलचस्प यह है कि मुंबई की फिल्मी दुनिया में जो बात सच है, वही दिल्ली और देश के अन्य जगहों की राजनीति में भी सच है. भाई-भतीजावाद ने अपनी पकड़ ऐसी मजबूत कर ली है कि अब यह हमारे जीवन के केंद्र में है. भले ही थोड़ी देर हो, लेकिन किसी को भी इस प्रवृत्ति को पहचानना और बाहर कर देना चाहिए, क्योंकि यह लोकतांत्रिक धर्म के प्रतिकूल है. लोकतंत्र सबके लिए एक समान अवसर मुहैया कराने की बात करता है.

कंगना के आरोपों के निशाने पर रहे निर्माता-निर्देशक करण जौहर ने फिल्मी दुनिया में नेपोटिज्म की भूमिका से इनकार नहीं किया है. उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि जब कोई निर्माता किसी स्टार के बच्चे को लांच करता है तो वह वास्तव में कम्फर्ट जोन में रहना चाहता है, क्योंकि अंतत: यह भी एक व्यावसायिक चीज है. एक बड़े फिल्मी सितारे के बेटे को लोग देखना चाहते हैं. आप कोई और मौका लेना नहीं चाहते. आखिरी यह पैसा है. दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा कि निर्माता जब नेपोटिज्म के दायरे में होते हैं, तो अपने को संरक्षित महसूस करते हैं.

राजनीति में भी क्या यह सच नहीं है? जिस तरह से संसदीय चुनाव में पार्टी के टिकट बांटे जाते हैं, आप सिर्फ उस पर नजर डालें तो आपको महसूस होता है कि 'जुड़ा होना' बहुत मायने रखता है. जिस लोकतंत्र की आप बात कर रहे हैं, वह दौर तो स्वतंत्रता के बाद से चला गया. नेपोटिज्म सात दशक से चला आ रहा है. वास्तव में भाई-भतीजावाद ऐसी मजबूत पकड़ बनाए हुए है कि जिन लोगों ने कई दशक पहले राष्ट्रीय स्तर पर सरकार का नेतृत्व किया, उनके बच्चे और उनके बच्चों के बच्चे उनके निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करना लगभग अपना अधिकार मानते हैं, जहां से उनके दादा या दादी जीतकर आते थे.

लुटियंस की दिल्ली में वह उसी घर में रहते भी हैं, जिनमें उनके पूर्वज रहा करते थे. वह उन घरों से इतना अधिक जुड़ जाते हैं कि कुछ समय बाद वह यह भी भूल जाते हैं कि यह आशियाना सार्वजनिक संपत्ति है. यदि किसी वजह से उन घरों में नहीं रहते हैं, तो दूसरी या तीसरी पीढ़ी के ऐसे नेताओं की मांग रहती है कि उन्हें स्मारक या समाधि में बदल दिया जाए. राष्ट्रीय राजनीति और दिल्ली में इस प्रवृत्ति की असली शुरुआत करने वाले नेहरू-गांधी हैं. पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दिनों से यह तब शुरू हुआ जब उन्होंने 1959 में अपनी बेटी इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति सुनिश्चित की. भारत के लोगों को इसके बाद जो हुआ उसके बारे में अच्छी तरह से पता है. इस परिवार के एक सदस्य के प्रधानमंत्री बनने के बाद दूसरा व्यक्ति उसकी जगह लेता गया. इस परिवार के साथ हमारा गणतांत्रिक संविधान कमजोर पड़ता गया और यह सोचा जाने लगा भारत में वास्तव में राजतंत्र है.

यह परिवार अपनी स्थिति मजबूत करता गया. उसके बाद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. नेहरूवादी स्कूल हावी होता गया और महत्वाकांक्षी नौकरशाह शिक्षाविद, प्रमुख विचारक, कलाकार, मीडियाकर्मी और व्यवसाई इसका हिस्सा बन गए. इनमें से सभी ने यह महसूस किया कि केवल वही नौकरशाही, शिक्षा, मीडिया आदि में ऊपर पहुंच सकता है, जो इस कारवां का हिस्सा है. कुछ अपवाद को छोड़ दें तो सभी राज्यपाल, उपकुलपति, अखबार के संपादक, टीवी एंकर, पद्म पुरस्कार विजेता इस स्कूल के सदस्य थे. विविधता या अन्य वैचारिक दृष्टिकोण के लिए सम्मान जैसी कोई चीज नहीं थी. राजनीति में जिन दिनों कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था लोकसभा और राज्यसभा पहुंचने के लिए उन्हें इसी वैचारिक बिरादरी का हिस्सा बनना पड़ा या उनके साथ चलना पड़ा. इस वजह से इस परिवार की इच्छा और सनक ही कानून बन गई और इससे परिवार का भाई-भतीजा वाला रवैया तब और दुनिया में चर्चित हो गया, जब इसने अपने वफादारों के बच्चों और उनके बच्चों को बढ़ावा दिया.

जब तक मई 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन गए तब तक यह बे रोक-टोक चलता रहा. मोदी एक कट्टर विरोधी बनकर उभरे और उन्होंने लुटियन की दिल्ली में बराबरी का अवसर पैदा करने की दिशा में काफी काम किया.

कंगना बॉलीवुड में ऐसा ही कर रही हैं. वह निडर होकर उन लोगों के खिलाफ आवाज उठा रही हैं, जो बेशर्मी के साथ हिंदी फिल्म उद्योग में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देते हैं और यहां तक कि बॉलीवुड में अपने लिए जगह की तलाशने का साहस करने वाले प्रतिभाशाली 'बाहरी' लोगों पर से हमला बोलते हैं. उदाहरण के रूप में शाहरुख खान और शाहिद कपूर ने आईआईएफए के पुरस्कार वितरण समारोह में सुशांत सिंह राजपूत को जिस तरह‌ से किस किया था, वैसी घटना टेलीविजन शो या सार्वजनिक आयोजनों में नए आए लोगों का किस तरह मजाक उड़ाया जाता है, इसका एक उदाहरण है.

कंगना रनौत कुछ बेहद चिंताजनक स्थितियों के बारे में भी कहती हैं. जैसे बॉलीवुड के एक मशहूर निर्देशक ने सुशांत सिंह को कहा था- 'वह बह नहीं, बल्कि डूब रहा है.'
सुशांत सिंह बिहार के पूर्णिया जिले के मालडीहा के रहने वाले थे. भौतिकी में राष्ट्रीय ओलंपियाड विजेता रहे. इंजीनियरिंग कॉलेज की दाखिलs की परीक्षा में रैंक धारक रहे. पढ़ने में गणित से लेकर खगोल विज्ञान और नृत्य-संगीत और सिनेमा तक में उनकी व्यापक रुचि रही. क्या वह बॉलीवुड के लिए बहुत अधिक बुद्धिजीवी थे? क्योंकि बहुत सारे फिल्मी सितारों के शिक्षा के खराब रिकॉर्ड को सार्वजनिक तौर पर देखा गया है. वास्तव में करण जौहर ने कबूल किया है कि उन्हें बचपन में बताया गया था कि यदि वह हिंदी फिल्म बनाना चाहते हैं, तो आपको बहुत पढ़े-लिखे होने की जरूरत नहीं है और यह भी कि मैं जिस बिरादरी से आता हूं उसमें यह बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती.

इस लेख के लेखक फिल्मों के शौकीन नहीं हैं, लेकिन उसने सुशांत के कुछ कामों को देखा है. छिछोरे में उसकी मुख्य भूमिका और एमएस धोनी के जीवन पर बनी फिल्म उदाहरण हैं. इन दोनों फिल्मों में उसका संवेदनशील चित्रण सभी को देखना चाहिए. ऐसी प्रतिभा को गले लगाने और बढ़ावा देने के बजाए बॉलीवुड में उसे किनारे लगा दिया गया. यदि कोई माफिया है या इसे और सही तरीके से देखा जाए तो भाई-भतीजाबाद करने वालों का एक क्लब है. उसे हर हाल में पहचान कर यह काम बंद करने के लिए कहना चाहिए. कंगना रनौत ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर गंभीर बहस होनी चाहिए और गंदगी दूर की जानी चाहिए. सुशांत की मौत बेकार नहीं जाए इसलिए बॉलीवुड का लोकतांत्रीक करण और सब के लिए बराबरी का मौका देना बेहद जरूरी है, लेकिन यह तभी हो सकता है जब सुशांत के मुद्दे को लेकर उपजा राष्ट्रीय आक्रोश 'बाहरी' प्रतिभाओं के काम को प्रोत्साहित करने के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन में बदल जाए और इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह बॉक्स ऑफिस पर भी दिखे.
(लेखक- ए. सूर्यप्रकाश)

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