भारत सरकार की एक रीति रही है, खासतौर पर पिछले कुछ वर्षों में कि यदि कोई प्रवासी भारतीयों की उपलब्धियों को बेहद गर्व से अपनाया जाता रहा है. भले ही वह हमसे कितने ही दूर रहे हों. यही कारण है कि जब कमला हैरिस, जो कि अन्य किसी रंग की और भारतीय मूल की पहली महिला हैं, जिन्हें अमेरिकी राजनीतिक दल से उपराष्ट्रपति पद का टिकट मिला, तब भारतीय सरकार की ओर से अधिरारिक तौर पर अपनाई गई चुप्पी हैरान करने वाली लगी.
हैरिस, जो गर्व से अपने मूल और अपनी भारतीय मां से सीखे सबक को दुनिया में जताते नहीं थकती हैं, जो तमिलनाडु की पहली पीढ़ी की अप्रवासी थीं, दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले पद से पलक झपकनेभर की दूरी पर देखी जा सकती हैं. यह पद है नवंबर में होने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका का उपराष्ट्रपति. कैरेबियाई देशों से लेकर पुर्तगाल और आयरलैंड, सिंगापुर, फ़िजी और मॉरीशस तक के कई देशों में भारतीय मूल के शीर्ष नेता रह चुके हैं. भारतीय मूल के नागरिक की अमरीका के उपराष्ट्रपति बनाने की संभावना बहुत बड़ी उपलब्धि है और यह खबर मीडिया में काफी सुर्खियां बटोर रही है और इसके साथ ही भारत और अमेरिका में भारतीय समुदाय के सदस्यों और अन्य लोगों के बीच भी इस खबर से उमंग और उत्साह की लहर देखी जा सकती है.
इस मौन के पीछे कई कारण हैं, जिनमें से सबसे स्पष्ट कारण है ट्रंप प्रशासन के साथ भारत सरकार की कथित निकटता और डोनाल्ड ट्रंप सरकार को विशेष रूप से भारत के सहयोगी की तरह चित्रित करने का प्रयास. भारत के साथ संबंधों को घनिष्ठ बनाने का प्रयास दोनों रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों का रहा है, लेकिन जिस तरह से भारत ने खुले तौर पर राष्ट्रपति ट्रंप का समर्थन किया है, उससे डेमोक्रेटिक दल बहुत आहत है. वह भी तब जब उसके कई नेताओं ने स्पष्ट रूप से भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सरकार की नीतियों का विरोध किया है, जिसमें विशेषकर जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) शामिल हैं. यह स्थिति पूर्व (डेमोक्रेटिक पार्टी) राष्ट्रपति बराक ओबामा और मोदी के बीच कथित निकटता के बावजूद बनी है.
हैरिस उन नेताओं में से एक हैं, जो जम्मू-कश्मीर की स्थिति के बारे में खुलेतौर पर आलोचना करती रही हैं. यहां तक कि उन्होंने विदेश मंत्री एस जयशंकर को तब भी घेरा था जब वह पिछले दिसंबर माह में हाउस फॉरेन रिलेशन कमेटी के साथ जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर हुई बैठक में शामिल नहीं हुए थे. इससे पहले भी पिछले साल सितंबर में हैरिस ने ह्यूस्टन में आयोजित 'हाउडी मोदी' के कार्यक्रम से भी दूर रहना पसंद किया, जहां ट्रंप ने अमेरिकी मूल के अधिकांश विधायकों की एक सरणी के साथ, जिनमें अधिकांश भारतीय मूल के लोगों ने शामिल होकर मोदी के साथ भारत और अमरीका की साझेदारी का जश्न मनाया था.
नई दिल्ली के रणनीतिक प्रतिष्ठानों में से कई लोगों का मानना है कि ट्रंप के तुनकमिज़ाज व्यक्तित्व के कारण भारत सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह बिडेन की सहयोगी, डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हैरिस के नामांकन पर चुप्पी साधे रहे. मोदी सरकार किसी भी तरह से ट्रंप को नाराज होने का कारण नहीं देना चाहती है. खासकर जब यह संभावना है कि वाशिंगटन जल्द ही भारत को व्यापार में जीएसपी (सामान्य प्राथमिकता प्रणाली) को बहाल कर सकता है.
इसके अलावा सीमा पर बने हालात के मद्देनज़र चीन के साथ संबंध अब भी तनावपूर्ण बने हुए हैं और निश्चितरूप से वह पाकिस्तान की उन क्षेत्रों में मदद कर रहा है, जिन पर भारत अपना दावा करता आया है. ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि नई दिल्ली अमरीकी प्रशासन को दिए जाने वाले खुले समर्थन को बरकरार रखे.
इसके अतिरिक्त डेमोक्रेट पार्टी के नेता पारंपरिक रूप से मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर रिपब्लिकन की तुलना में अधिक मुखर रहे हैं. यह दोनों मुद्दे नई दिल्ली की सरकार के लिए असहजता का कारण बन सकते हैं, जिसे आलोचना कदापि पसंद नहीं है. हालांकि पर्यावरण और भूमंडलीय उष्मीकरण या ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दों पर अधिक व्यापक रूप से घेरे जाने की सम्भावना भी बढ़ गई है, जबकि हाल ही में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) की आवश्यकता को हटाने जैसी हालिया पर्यावरणीय नीतियों को भारत सरकार पारित करने जा रही है.
इसलिए इस बात की उम्मीद कम ही है कि कमला हैरिस का नामांकन भारत के लिए विशेष लाभकारी होगा. वास्तव में यह कुछ चिंता का विषय है. भारत सरकार ने पूरा दांव ट्रंप के विजेता बनकर उभरने पर लगाया है. खासतौर से ‘हाउडी मोदी’ जैसे आयोजन के बाद, जिसमें खुलेतौर पर भारतीय मूल के अमरीकियों को घर से बाहर निकलकर ट्रंप को वोट देने का आग्रह किया गया था. हालांकि भले ही अहमदाबाद में नमस्ते ट्रंप के आयोजन का उद्देश्य ट्रंप की उस छवि को भारत के एक महान मित्र के रूप में सुदृढ़ करना था, उसके बावजूद हैरिस का बिडेन के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में नामांकन होने से भारतीय मूल के लोगों में व्यापक रूप से उत्साह देखा जा रहा है, जिनमें से कई भारतीय मूल के लोग कैलिफोर्निया से सीनेटर को खुले मन से अपनाने को तैयार हैं.
परंपरागत रूप से भारत सरकार अपने प्रवासी भारतीयों पर गर्व करती है, जो दुनिया के हर हिस्से में फैले हुए हैं. उनकी गिनती तीन करोड़ के ऊपर है, जो कि दुनिया में सबसे अधिक की संख्या है. उनका भारतीय की अर्थव्यवस्था में 80 बिलियन डॉलर से अधिक का योगदान है, जो फिर से उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा भागीदार बनाता है. राष्ट्र निर्माण में भारतीय प्रवासी का योगदान बहुत अधिक रहा है और पिछले दो दशकों से भारत सरकार द्वारा वार्षिक प्रवासी भारतीय दिवस (अनिवासी भारतीय दिवस) का आयोजन करके और पुरस्कृत करके उनकी सहभागिता के प्रति आभार भी व्यक्त किया गया है.
संयुक्त राज्य अमेरिका उन देशों की सूची में सबसे ऊपर है, जहां पहली और दूसरी पीढ़ी के भारतीयों ने अपने मूल देश को पेशेवर, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और उद्यमिता के रूप में गर्वित किया है. संयुक्त राज्य अमरीका में भारतीय मूल के लगभग चालीस लाख लोग रहते हैं, जो वहां के सभी अप्रवासी समुदायों में सबसे अच्छे शिक्षित और सबसे धनी हैं. न केवल रणनीतिक और आर्थिक तौर पर वह भारत-अमेरिका द्विपक्षीय साझेदारी को बढ़ावा देने में एक प्रमुख कारक हैं, बल्कि उनके बीच करीबी सांस्कृतिक संबंध भी हैं.
अमरीका में सुंदर पिचाई और सत्य नडेला जैसे भारतीय हैं, जो शीर्ष उच्च तकनीक कंपनियों का नेतृत्व करते हैं, उनमें से गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, एडोब और आईबीएम, शामिल हैं, जो कि कैलिफोर्निया की सिलिकॉन वैली में स्थित हैं. ऐसे भारतीयों के योगदान और उनके भारत के साथ संबंधों के लिए उनकी सार्वजनिक रूप से सराहना की जाती है. यह तथ्य स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि भारतीय उद्यमिता दोनों अमेरिका और भारत के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण इंजन है. हाल ही में अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है.
कैलिफोर्निया की डेमोक्रेटिक पार्टी की सीनेटर कमला हैरिस का एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी के टिकट पर शीर्ष राजनीतिक पद के लिए नामांकित होना, वह भी उस देश में जो आज भी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, एक जबर्दस्त सम्मान का विषय है. ऐसे में भारत की ओर से कोई भी औपचारिक प्रतिक्रिया दिए बिना पूरे मामले को नजरअंदाज कर देना बेहद चौंकाने वाला रवैया है, वह भी जब हर छोटी-बड़ी उपलब्धि पर भारत अपने मूल के लोगों को सबसे पहले बढ़कर बधाई देता आया है.
(निलोवा रॉय चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार)