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जानें, आखिर क्या था द्वितीय विश्व युद्ध के होने का प्रमुख कारण - संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में तानाशाही शक्तियों का उदय और विकास हुआ. प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही द्वितीय विश्व युद्ध के भूमिका बन गई थी. जाने द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण.

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Published : Aug 28, 2020, 1:41 PM IST

हैदराबाद : प्रत्येक साम्राज्यवादी शक्ति अपने साम्राज्य का विस्तार कर अपनी शक्ति और धन में वृद्धि करना चाहते थे. इससे साम्राज्यवादी राष्ट्र में प्रतिस्पर्धा आरंभ हुई. जर्मनी ने 1939 में यूरोप में एक बड़ा साम्राज्य बनाने के उद्देश्य से पोलैंड पर हमला बोल दिया. यह विश्वयुद्ध 1939 से 1945 तक चलने वाला विश्व-स्तरीय युद्ध था.

जर्मनी की विदेश नीति
1935 के बाद से जर्मनी ने आक्रामक विदेश नीति अपनाई: लुफ्फैफे का निर्माण, 1937 के होसबैक मेमोरंडम में विस्तृत रूप में युद्ध की योजना बनाई और अंततः 1939 में पोलैंड पर आक्रमण करने से पहले ऑस्ट्रिया, सूडेटेनलैंड और चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया.

जर्मनी ने वर्साय की संधि में निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को तोड़ दिया और आक्रामक विस्तारवाद को अपनाया.

प्रथम विश्व युद्ध के बाद वर्साय की संधि पर असंतोष

वर्साय की संधि ने जर्मनी के क्षेत्रफल को कम कर दिया. इसके कई परिणाम थे. उनमें प्रमुख आर्थिक आउटपुट खो दिया. जर्मनी की पूर्वी सीमाओं में परिवर्तन विशेष रूप से विवाद का कारण बन गया. जिसके परिणामस्वरूप जर्मनी के भीतर लोगों को लगने लगा कि यह संधि अनुचित थी. इसने फिर से असंतोष पैदा किया और नाजियों जैसे चरमपंथी दलों द्वारा शोषण किया गया, जिन्होंने संधि को अस्वीकार कर दिया था.

1929 में वैल स्ट्रीट क्रैश ने एक बार फिर अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया, और परिणामस्वरूप आर्थिक अस्थिरता ने राजनीतिक अस्थिरता पैदा की.

1929-1933 की राजनीतिक अस्थिरता से राजनीति से मोहभंग हुआ. जिसके परिणाम स्वरूप नाजियों जैसे अतिवादी दलों के समर्थन में वृद्धि हुई.

अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की कमजोरी और तुष्टिकरण की नीति

जर्मनी के आक्रामक विदेश नीति पर प्रतिक्रिया देने में अन्य देशों की विफलता युद्ध का नेतृत्व करने वाले कारकों में से एक थी.

प्रथम विश्व युद्ध के बाद राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमजोर स्थितियों में फ्रांस और ब्रिटेन को भी तोड़ दिया था. जिस कारण आक्रमण का प्रभावी ढंग से जवाब देने में वह असमर्थ थे.

प्रथम विश्व युद्ध की तबाही के बाद ब्रिटेन दूसरे विश्व युद्ध से बचना चाहता था. इसके परिणामस्वरूप 1933-1939 तक हिटलर की आक्रामक विदेश नीति के प्रति तुष्टीकरण की नीति का पालन किया. इस नीति ने हिटलर के आत्मविश्वास को बढ़ाया और इसके परिणामस्वरूप उनकी कार्रवाई उत्तरोत्तर अधिक तीव्र हो गई.

मुख्य भूमि यूरोप के बाहर संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने भी द्वितीय विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1939 तक की अगुवाई में दोनों देशों ने तेजी से अलगाववादी नीतियों का पालन किया, जहां उन्होंने खुद को अंतर्राष्ट्रीय विदेशी मामलों से दूर रखा.

1939 के नाजी-सोवियत समझौते के बाद सोवियत नाजियों के लिए खतरा बन गए. इसने उन्हें सोवियत समर्थन के साथ लेबेन्स्राम के लिए युद्ध शुरू करने की अनुमति दी.

संयुक्त होने पर इन कारकों ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले नाजी जर्मनी के लिए एक प्रभावी चुनौती की संभावना कम कर दी. इसका मतलब था कि हिटलर प्रतिशोध या अन्य शक्तियों से गंभीर कार्रवाई के डर के बिना उत्तरोत्तर अधिक आत्मविश्वास प्राप्त करने में सक्षम था.

इन कारकों ने हिटलर को अपने विस्तारवादी हौसलों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया

अक्ष शक्तियों का निर्माण

1930 के दशक में पूरे यूरोप में नए गठबंधन बनाए गए थे.

स्पैनिश गृह युद्ध (1936-1939) ने इटली और जर्मनी को एकजुट करने में मदद की. जिन्होंने दोनों राष्ट्रवादी विद्रोहियों को लोकतांत्रिक सरकार पर हमला करने के लिए सैन्य समर्थन की पेशकश की. हालांकि, स्पेनिश गृह युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार हुआ.

अक्टूबर 1936 में इटली और जर्मनी के बीच रोम-बर्लिन संधि पर हस्ताक्षर किए गए. अगले महीने नवंबर 1936 में जापान और जर्मनी के बीच एक कम्युनिस्ट-विरोधी संधि 'एंटी-कॉमिन्टर्न संधि' पर हस्ताक्षर किए गए. 1937 में इटली इस संधि में शामिल हुआ.

तीनों देशों ने 1940 में इन समझौतों को एक सैन्य गठबंधन के रूप में औपचारिक रूप दिया. जो देश इस गठबंधन का हिस्सा थे, उन्हें एक्सिस पॉवर्स के नाम से जाना गया.

जब जर्मनी की आक्रामक विदेश नीति के साथ गठबंधन किया गया, तो मित्र राष्ट्रों के लिए एक वैकल्पिक सैन्य गठबंधन का निर्माण, अस्थिर स्थिति को तेज कर दिया.

1939 में मित्र देशों की शक्तियों की विफलता

सोवियत संघ और नाजी जर्मनी वैचारिक शत्रु थे. इसके बावजूद सोवियत संघ और नाजी जर्मनी ने 1939 की गर्मियों में एक गैर-आक्रामक समझौते में प्रवेश किया, जिसने उन्हें पोलैंड के कुछ हिस्सों पर आक्रमण करने और कब्जा करने की अनुमति दी. यह समझौता दोनों देशों के क्षेत्रीय उद्देश्यों के अनुकूल थे.

हालांकि यह स्थिति अपरिहार्य नहीं थी. 1939 में सोवियत संघ शुरू में मित्र राष्ट्रों के साथ पोलैंड के लिए एक रक्षात्मक रणनीति पर बातचीत कर रहा था. जब ये वार्ता टूट गई तो, सोवियत संघ जर्मनी की ओर मुड़ा और जल्दी से मोलोटोव-रिबेंट्रॉप संधि पर सहमति व्यक्त की.

अंततः मित्र राष्ट्र पोलैंड पर हिटलर के हमले को रोकने के लिए मिलकर काम करने में विफल रहे. यह विफलता द्वितीय विश्व युद्ध के होने में एक योगदान कारक थी.

हैदराबाद : प्रत्येक साम्राज्यवादी शक्ति अपने साम्राज्य का विस्तार कर अपनी शक्ति और धन में वृद्धि करना चाहते थे. इससे साम्राज्यवादी राष्ट्र में प्रतिस्पर्धा आरंभ हुई. जर्मनी ने 1939 में यूरोप में एक बड़ा साम्राज्य बनाने के उद्देश्य से पोलैंड पर हमला बोल दिया. यह विश्वयुद्ध 1939 से 1945 तक चलने वाला विश्व-स्तरीय युद्ध था.

जर्मनी की विदेश नीति
1935 के बाद से जर्मनी ने आक्रामक विदेश नीति अपनाई: लुफ्फैफे का निर्माण, 1937 के होसबैक मेमोरंडम में विस्तृत रूप में युद्ध की योजना बनाई और अंततः 1939 में पोलैंड पर आक्रमण करने से पहले ऑस्ट्रिया, सूडेटेनलैंड और चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया.

जर्मनी ने वर्साय की संधि में निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को तोड़ दिया और आक्रामक विस्तारवाद को अपनाया.

प्रथम विश्व युद्ध के बाद वर्साय की संधि पर असंतोष

वर्साय की संधि ने जर्मनी के क्षेत्रफल को कम कर दिया. इसके कई परिणाम थे. उनमें प्रमुख आर्थिक आउटपुट खो दिया. जर्मनी की पूर्वी सीमाओं में परिवर्तन विशेष रूप से विवाद का कारण बन गया. जिसके परिणामस्वरूप जर्मनी के भीतर लोगों को लगने लगा कि यह संधि अनुचित थी. इसने फिर से असंतोष पैदा किया और नाजियों जैसे चरमपंथी दलों द्वारा शोषण किया गया, जिन्होंने संधि को अस्वीकार कर दिया था.

1929 में वैल स्ट्रीट क्रैश ने एक बार फिर अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया, और परिणामस्वरूप आर्थिक अस्थिरता ने राजनीतिक अस्थिरता पैदा की.

1929-1933 की राजनीतिक अस्थिरता से राजनीति से मोहभंग हुआ. जिसके परिणाम स्वरूप नाजियों जैसे अतिवादी दलों के समर्थन में वृद्धि हुई.

अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की कमजोरी और तुष्टिकरण की नीति

जर्मनी के आक्रामक विदेश नीति पर प्रतिक्रिया देने में अन्य देशों की विफलता युद्ध का नेतृत्व करने वाले कारकों में से एक थी.

प्रथम विश्व युद्ध के बाद राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमजोर स्थितियों में फ्रांस और ब्रिटेन को भी तोड़ दिया था. जिस कारण आक्रमण का प्रभावी ढंग से जवाब देने में वह असमर्थ थे.

प्रथम विश्व युद्ध की तबाही के बाद ब्रिटेन दूसरे विश्व युद्ध से बचना चाहता था. इसके परिणामस्वरूप 1933-1939 तक हिटलर की आक्रामक विदेश नीति के प्रति तुष्टीकरण की नीति का पालन किया. इस नीति ने हिटलर के आत्मविश्वास को बढ़ाया और इसके परिणामस्वरूप उनकी कार्रवाई उत्तरोत्तर अधिक तीव्र हो गई.

मुख्य भूमि यूरोप के बाहर संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने भी द्वितीय विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1939 तक की अगुवाई में दोनों देशों ने तेजी से अलगाववादी नीतियों का पालन किया, जहां उन्होंने खुद को अंतर्राष्ट्रीय विदेशी मामलों से दूर रखा.

1939 के नाजी-सोवियत समझौते के बाद सोवियत नाजियों के लिए खतरा बन गए. इसने उन्हें सोवियत समर्थन के साथ लेबेन्स्राम के लिए युद्ध शुरू करने की अनुमति दी.

संयुक्त होने पर इन कारकों ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले नाजी जर्मनी के लिए एक प्रभावी चुनौती की संभावना कम कर दी. इसका मतलब था कि हिटलर प्रतिशोध या अन्य शक्तियों से गंभीर कार्रवाई के डर के बिना उत्तरोत्तर अधिक आत्मविश्वास प्राप्त करने में सक्षम था.

इन कारकों ने हिटलर को अपने विस्तारवादी हौसलों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया

अक्ष शक्तियों का निर्माण

1930 के दशक में पूरे यूरोप में नए गठबंधन बनाए गए थे.

स्पैनिश गृह युद्ध (1936-1939) ने इटली और जर्मनी को एकजुट करने में मदद की. जिन्होंने दोनों राष्ट्रवादी विद्रोहियों को लोकतांत्रिक सरकार पर हमला करने के लिए सैन्य समर्थन की पेशकश की. हालांकि, स्पेनिश गृह युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार हुआ.

अक्टूबर 1936 में इटली और जर्मनी के बीच रोम-बर्लिन संधि पर हस्ताक्षर किए गए. अगले महीने नवंबर 1936 में जापान और जर्मनी के बीच एक कम्युनिस्ट-विरोधी संधि 'एंटी-कॉमिन्टर्न संधि' पर हस्ताक्षर किए गए. 1937 में इटली इस संधि में शामिल हुआ.

तीनों देशों ने 1940 में इन समझौतों को एक सैन्य गठबंधन के रूप में औपचारिक रूप दिया. जो देश इस गठबंधन का हिस्सा थे, उन्हें एक्सिस पॉवर्स के नाम से जाना गया.

जब जर्मनी की आक्रामक विदेश नीति के साथ गठबंधन किया गया, तो मित्र राष्ट्रों के लिए एक वैकल्पिक सैन्य गठबंधन का निर्माण, अस्थिर स्थिति को तेज कर दिया.

1939 में मित्र देशों की शक्तियों की विफलता

सोवियत संघ और नाजी जर्मनी वैचारिक शत्रु थे. इसके बावजूद सोवियत संघ और नाजी जर्मनी ने 1939 की गर्मियों में एक गैर-आक्रामक समझौते में प्रवेश किया, जिसने उन्हें पोलैंड के कुछ हिस्सों पर आक्रमण करने और कब्जा करने की अनुमति दी. यह समझौता दोनों देशों के क्षेत्रीय उद्देश्यों के अनुकूल थे.

हालांकि यह स्थिति अपरिहार्य नहीं थी. 1939 में सोवियत संघ शुरू में मित्र राष्ट्रों के साथ पोलैंड के लिए एक रक्षात्मक रणनीति पर बातचीत कर रहा था. जब ये वार्ता टूट गई तो, सोवियत संघ जर्मनी की ओर मुड़ा और जल्दी से मोलोटोव-रिबेंट्रॉप संधि पर सहमति व्यक्त की.

अंततः मित्र राष्ट्र पोलैंड पर हिटलर के हमले को रोकने के लिए मिलकर काम करने में विफल रहे. यह विफलता द्वितीय विश्व युद्ध के होने में एक योगदान कारक थी.

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