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पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार आर्थिक वृद्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने के अपने दावे पर कायम

'भारत का जीडीपी वृद्धि अनुमान का सत्यापन' शीर्षक से अपने शोध पत्र में सुब्रमणियम ने कहा कि उन्होंने 2015 की आर्थिक समीक्षा के साथ मध्यावधि आर्थिक विश्लेषण में वृद्धि के आंकड़े को लेकर संदेह जताया था.

पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार आर्थिक वृद्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने के अपने दावे पर कायम
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Published : Jul 18, 2019, 11:39 PM IST

नई दिल्ली: देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) अरविंद सुब्रमणियम भारत की आर्थिक वृद्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने संबंधी अपने विश्लेषण पर कायम हैं. पूर्व सीईए ने कहा कि उन्होंने 2015 में पद पर रहते अनुमानित वृद्धि और अन्य वृहत आर्थिक संकेतकों के बीच विसंगति पायी थी और जीडीपी आंकड़ों को लेकर संदेह जताया था.

'भारत का जीडीपी वृद्धि अनुमान का सत्यापन' शीर्षक से अपने शोध पत्र में सुब्रमणियम ने कहा कि उन्होंने 2015 की आर्थिक समीक्षा के साथ मध्यावधि आर्थिक विश्लेषण में वृद्धि के आंकड़े को लेकर संदेह जताया था.

उल्लेखनीय है कि सुब्रमणियम ने अपने पिछले एक शोध में यह दावा किया था कि वर्ष 2011-2016 के दौरान आर्थिक वृद्धि के अनुमान को 2.5 प्रतिशत अंक तक बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यात में गिरावट, कंपनी-बैंक खातों से जुड़ी दोहरी समस्या, सूखा और नोटबंदी जैसी कई समस्याओं को झेल रही थी.

ये भी पढ़ें: वित्त विधेयक लोकसभा में पारित, पेट्रोल, डीजल पर बढ़ा उपकर वापस लेने की विपक्ष की मांग खारिज

उन्होंने कहा, "उद्योग को वास्तविक कर्ज 16 प्रतिशत से नीचे आया और इसमें एक प्रतिशत की गिरावट आयी. यह वास्तविक निवेश वृद्धि के आधिकारिक आंकड़ों से प्रतिबिंबित होता है जो 13 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत पर आ गया. वास्तविक निर्यात 15 प्रतिशत से घटकर तीन प्रतिशत रह गया. कुल मिलाकर वास्तविक कर्ज में वृद्धि 13 प्रतिशत से 3 प्रतिशत पर तथा वास्तविक आयात 17 प्रतिशत से गिरता हुआ इसमें एक प्रतिशत की गिरावट आयी है."

पूर्व सीईए ने कहा कि लेकिन 2015 में शुरू की गई नई जीडीपी श्रृंखला से पता चलता है कि इन झटकों के बावजूद आर्थिक वृद्धि में बहुत कमी नहीं आयी और यह 7.7 प्रतिशत से घटकर 6.9 प्रतिशत पर आ गयी. यह सवाल खड़ा करता है? क्या यह संभव है कि इन पांच बड़े प्रतिकूल झटकों का जीडीपी वृद्धि पर इतना कम असर पड़ा होगा.

सुब्रमणियम ने कहा, "जनवरी 2015 में सीएसओ (केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय) ने नये आधार वर्ष (2004-05 के स्थान पर 2011-12), नया अंकड़ा तथा नये तरीकों को लेकर अनुमान जारी किया. मेरी टीम और मैंने इन अनुमानों का सावधानीपूर्वक गौर किया और तुंरत नये आंकड़े को लेकर सवाल उठाये लेकिन इसके बावजूद कोई ठोस जवाब नहीं मिला. इसीलिए हमने आतंरिक रूप से अपने संदेह जताना शुरू किया और उसके बाद सार्वजनिक तौर पर उसे उठाया."

उन्होंने सरकार की उस दलील को खारिज कर दिया जिसके आधार पर पूर्व सीईए के जून के शोध को ठुकरा दिया गया था. उन्होंने कहा कि राजग सरकार ने जीएसटी और ऋण शोधन अक्षमता और दिवाला कानून जैसे सुधार लाये लेकिन इससे मध्यम अवधि में वृद्धि का लाभ मिलेगा. सुब्रमणियम ने उत्पादकता में वृद्धि की दलील को भी खारिज करते हुए कहा कि अगर ऐसा होता तो अधिक लाभ के रूप में कंपनियों का मुनाफा बढ़ा हुआ दिखता.

उन्होंने सरकार की खपत में वृद्धि की दलील भी ठुकरा दी. उन्होंने कहा कि भारत अचानक से सतत खपत आधारित वृद्धि का एक अनूठा माडल बन गया था. इसे उपभोक्ता भरोसा में प्रतिबंबित होना चाहिए था लेकिन आरबीआई के मासिक उपभोक्ता विश्वास सर्वे में कुछ अलग तस्वीर दिखी थी.

नई दिल्ली: देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) अरविंद सुब्रमणियम भारत की आर्थिक वृद्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने संबंधी अपने विश्लेषण पर कायम हैं. पूर्व सीईए ने कहा कि उन्होंने 2015 में पद पर रहते अनुमानित वृद्धि और अन्य वृहत आर्थिक संकेतकों के बीच विसंगति पायी थी और जीडीपी आंकड़ों को लेकर संदेह जताया था.

'भारत का जीडीपी वृद्धि अनुमान का सत्यापन' शीर्षक से अपने शोध पत्र में सुब्रमणियम ने कहा कि उन्होंने 2015 की आर्थिक समीक्षा के साथ मध्यावधि आर्थिक विश्लेषण में वृद्धि के आंकड़े को लेकर संदेह जताया था.

उल्लेखनीय है कि सुब्रमणियम ने अपने पिछले एक शोध में यह दावा किया था कि वर्ष 2011-2016 के दौरान आर्थिक वृद्धि के अनुमान को 2.5 प्रतिशत अंक तक बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यात में गिरावट, कंपनी-बैंक खातों से जुड़ी दोहरी समस्या, सूखा और नोटबंदी जैसी कई समस्याओं को झेल रही थी.

ये भी पढ़ें: वित्त विधेयक लोकसभा में पारित, पेट्रोल, डीजल पर बढ़ा उपकर वापस लेने की विपक्ष की मांग खारिज

उन्होंने कहा, "उद्योग को वास्तविक कर्ज 16 प्रतिशत से नीचे आया और इसमें एक प्रतिशत की गिरावट आयी. यह वास्तविक निवेश वृद्धि के आधिकारिक आंकड़ों से प्रतिबिंबित होता है जो 13 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत पर आ गया. वास्तविक निर्यात 15 प्रतिशत से घटकर तीन प्रतिशत रह गया. कुल मिलाकर वास्तविक कर्ज में वृद्धि 13 प्रतिशत से 3 प्रतिशत पर तथा वास्तविक आयात 17 प्रतिशत से गिरता हुआ इसमें एक प्रतिशत की गिरावट आयी है."

पूर्व सीईए ने कहा कि लेकिन 2015 में शुरू की गई नई जीडीपी श्रृंखला से पता चलता है कि इन झटकों के बावजूद आर्थिक वृद्धि में बहुत कमी नहीं आयी और यह 7.7 प्रतिशत से घटकर 6.9 प्रतिशत पर आ गयी. यह सवाल खड़ा करता है? क्या यह संभव है कि इन पांच बड़े प्रतिकूल झटकों का जीडीपी वृद्धि पर इतना कम असर पड़ा होगा.

सुब्रमणियम ने कहा, "जनवरी 2015 में सीएसओ (केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय) ने नये आधार वर्ष (2004-05 के स्थान पर 2011-12), नया अंकड़ा तथा नये तरीकों को लेकर अनुमान जारी किया. मेरी टीम और मैंने इन अनुमानों का सावधानीपूर्वक गौर किया और तुंरत नये आंकड़े को लेकर सवाल उठाये लेकिन इसके बावजूद कोई ठोस जवाब नहीं मिला. इसीलिए हमने आतंरिक रूप से अपने संदेह जताना शुरू किया और उसके बाद सार्वजनिक तौर पर उसे उठाया."

उन्होंने सरकार की उस दलील को खारिज कर दिया जिसके आधार पर पूर्व सीईए के जून के शोध को ठुकरा दिया गया था. उन्होंने कहा कि राजग सरकार ने जीएसटी और ऋण शोधन अक्षमता और दिवाला कानून जैसे सुधार लाये लेकिन इससे मध्यम अवधि में वृद्धि का लाभ मिलेगा. सुब्रमणियम ने उत्पादकता में वृद्धि की दलील को भी खारिज करते हुए कहा कि अगर ऐसा होता तो अधिक लाभ के रूप में कंपनियों का मुनाफा बढ़ा हुआ दिखता.

उन्होंने सरकार की खपत में वृद्धि की दलील भी ठुकरा दी. उन्होंने कहा कि भारत अचानक से सतत खपत आधारित वृद्धि का एक अनूठा माडल बन गया था. इसे उपभोक्ता भरोसा में प्रतिबंबित होना चाहिए था लेकिन आरबीआई के मासिक उपभोक्ता विश्वास सर्वे में कुछ अलग तस्वीर दिखी थी.

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नई दिल्ली: देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) अरविंद सुब्रमणियम भारत की आर्थिक वृद्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने संबंधी अपने विश्लेषण पर कायम हैं. पूर्व सीईए ने कहा कि उन्होंने 2015 में पद पर रहते अनुमानित वृद्धि और अन्य वृहत आर्थिक संकेतकों के बीच विसंगति पायी थी और जीडीपी आंकड़ों को लेकर संदेह जताया था.

'भारत का जीडीपी वृद्धि अनुमान का सत्यापन' शीर्षक से अपने शोध पत्र में सुब्रमणियम ने कहा कि उन्होंने 2015 की आर्थिक समीक्षा के साथ मध्यावधि आर्थिक विश्लेषण में वृद्धि के आंकड़े को लेकर संदेह जताया था.

उल्लेखनीय है कि सुब्रमणियम ने अपने पिछले एक शोध में यह दावा किया था कि वर्ष 2011-2016 के दौरान आर्थिक वृद्धि के अनुमान को 2.5 प्रतिशत अंक तक बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यात में गिरावट, कंपनी-बैंक खातों से जुड़ी दोहरी समस्या, सूखा और नोटबंदी जैसी कई समस्याओं को झेल रही थी.

उन्होंने कहा, "उद्योग को वास्तविक कर्ज 16 प्रतिशत से नीचे आया और इसमें एक प्रतिशत की गिरावट आयी. यह वास्तविक निवेश वृद्धि के आधिकारिक आंकड़ों से प्रतिबिंबित होता है जो 13 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत पर आ गया. वास्तविक निर्यात 15 प्रतिशत से घटकर तीन प्रतिशत रह गया. कुल मिलाकर वास्तविक कर्ज में वृद्धि 13 प्रतिशत से 3 प्रतिशत पर तथा वास्तविक आयात 17 प्रतिशत से गिरता हुआ इसमें एक प्रतिशत की गिरावट आयी है."

पूर्व सीईए ने कहा कि लेकिन 2015 में शुरू की गई नई जीडीपी श्रृंखला से पता चलता है कि इन झटकों के बावजूद आर्थिक वृद्धि में बहुत कमी नहीं आयी और यह 7.7 प्रतिशत से घटकर 6.9 प्रतिशत पर आ गयी. यह सवाल खड़ा करता है? क्या यह संभव है कि इन पांच बड़े प्रतिकूल झटकों का जीडीपी वृद्धि पर इतना कम असर पड़ा होगा.

सुब्रमणियम ने कहा, "जनवरी 2015 में सीएसओ (केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय) ने नये आधार वर्ष (2004-05 के स्थान पर 2011-12), नया अंकड़ा तथा नये तरीकों को लेकर अनुमान जारी किया. मेरी टीम और मैंने इन अनुमानों का सावधानीपूर्वक गौर किया और तुंरत नये आंकड़े को लेकर सवाल उठाये लेकिन इसके बावजूद कोई ठोस जवाब नहीं मिला. इसीलिए हमने आतंरिक रूप से अपने संदेह जताना शुरू किया और उसके बाद सार्वजनिक तौर पर उसे उठाया."

उन्होंने सरकार की उस दलील को खारिज कर दिया जिसके आधार पर पूर्व सीईए के जून के शोध को ठुकरा दिया गया था. उन्होंने कहा कि राजग सरकार ने जीएसटी और ऋण शोधन अक्षमता और दिवाला कानून जैसे सुधार लाये लेकिन इससे मध्यम अवधि में वृद्धि का लाभ मिलेगा. सुब्रमणियम ने उत्पादकता में वृद्धि की दलील को भी खारिज करते हुए कहा कि अगर ऐसा होता तो अधिक लाभ के रूप में कंपनियों का मुनाफा बढ़ा हुआ दिखता.

उन्होंने सरकार की खपत में वृद्धि की दलील भी ठुकरा दी. उन्होंने कहा कि भारत अचानक से सतत खपत आधारित वृद्धि का एक अनूठा माडल बन गया था. इसे उपभोक्ता भरोसा में प्रतिबंबित होना चाहिए था लेकिन आरबीआई के मासिक उपभोक्ता विश्वास सर्वे में कुछ अलग तस्वीर दिखी थी.

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