हैदराबाद: क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी पिछले कुछ दिनों से मुख्य धारा मीडिया में बहस का केंद्र बन गया है. इस मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने का विरोध करते हुए कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों ने सरकार पर जोरदार हमला बोला है.
भारत फिलहाल शेक्सपियर के नाटक हेमलेट के 'टू बी आर नॉट टू बी' यानी हों कि न हों की दुविधा का सामना कर रहा है. यह लेख आरसीईपी से संबंधित मुद्दों और चिंताओं पर प्रकाश डालने और आगे का रास्ता सुझाने का एक प्रयास है.
आरसीईपी- मुद्दे और चिंताएं
आरसीईपी एक मुक्त व्यापार समझौता है. जिसे एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस के 10 सदस्य देशों और इसके छह एफटीए भागीदारों- भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच अंतिम रूप दिया जाना है. भारत में एफटीए में शामिल होने पर सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन बढ़ रहा है और जो समूह इसका विरोध कर रहे हैं, उनमें मुख्य रुप से किसान समूहों और उद्योग मंडल शामिल है. इनके आलावे राजनीतिक दल से लेकर नागरिक समाज संगठन भी शामिल हैं.
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इन समूहों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि यह सौदा भारत के लिए कम फायदेमंद होगा और वास्तव में यह सस्ते सामानों के लिए द्वार खोल देगा, जो घरेलू बाजारों को तबाह कर देगी. दूसरी चिंता सौदे के समय की है. जैसा कि देश फिलहाल मंदी का सामना कर रहा है तो राजनीतिक दलों का कहना है कि यह सौदा समस्या को और बढ़ा देगा. दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 4 नवंबर को बैंकॉक में अन्य आरसीईपी प्रमुखों के साथ सौदे के लिए वार्ता के निष्कर्ष की घोषणा कर सकते हैं.
मिथकों को दूर करना
इस अनिश्चितता के मद्देनजर विभिन्न हितधारकों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों से जुड़े मिथकों को दूर करना होगा. यह तर्क कि चीन का माल भारत के बाजारों को बर्बाद कर देगा इसे दो तरीकों से काटा जा रहा है. सबसे पहला यह कि सस्ता सामान एकमात्र मापदंड नहीं है जो उपभोक्ताओं को सामान खरीदने के लिए आकर्षित करता है. गुणवत्ता जैसे मामले बहुत मायने रखते हैं और चीनी उत्पादों को भारतीय बाजारों में प्रवेश करने से रोका जा सकता है यदि वे हमारे गुणवत्ता मानकों से मेल नहीं खाते हैं. यदि वे अभी भी बेहतर गुणवत्ता के साथ बेहतर कीमत की पेशकश करते हैं, तो यह प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएगा और घरेलू उत्पादकों को गुणवत्ता मानकों और उत्पादकता स्तरों को बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा. कुछ समय के लिए यह माल बाजार में गड़बड़ी ला सकता है, लेकिन लंबे समय में यह उपभोक्ताओं को बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों के साथ सस्ती कीमत पर सामान देगा और उत्पादकों को उत्पादकता और प्रतिस्पर्धा के बेहतर स्तर पर लाएगा.
दूसरा यह कि चीनी वस्तुओं पर रियायतों के आधार पर आरसीईपी का विरोध एक मात्र राजनीतिक बयानबाजी है जिसमें आर्थिक तर्क का अभाव है. उदाहरण के लिए यदि भारत इस एफटीए पर हस्ताक्षर करता है तो उसे ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से 86% और जापान, दक्षिण कोरिया और अन्य आसियान देशों से 90% आयात पर शुल्क में कटौती करने की आवश्यकता होगी. जबकि चीन के लिए यह वहां से आयातित 80 प्रतिशत माल है. अन्य मुद्दा सौदे के समय का है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि आर्थिक मंदी व्यापार चक्रों का एक हिस्सा है और यह समय के साथ परिवर्तनशील हैकिसी अर्थव्यवस्था के चक्रीय पहलुओं के आधार पर इस तरह के सौदे स्थगित करना समझदारी भरा निर्णय नहीं है.
इसके अलावा इस संदर्भ में यह ध्यान दिया जाना है कि यदि आरसीईपी समझौता हो जाता है तो यह दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यापार क्षेत्र बन जाएगा. इसमें 16 राष्ट्र शामिल होंगे, वैश्विक आबादी का लगभग आधा हिस्सा और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक तिहाई योगदान देगा और वैश्विक व्यापार में एक चौथाई योगदान देगा. भारत को इन राष्ट्रों में अपने बाजार की पहुंच को गहरा और चौड़ा करके इस क्षमता का दोहन करने की आवश्यकता है. भारत को बुनियादी ढांचे और कौशल विकास में भारी निवेश की जरूरत है.
भारत के लिए आरसीईपी एक बड़ा अवसर है. इससे भारत न केवल आर्थिक लाभ उठा सकता बल्कि अन्य राष्ट्रों के सामरिक हितों को गहरा कर सकता है. भारत इस समझौते से सिर्फ आर्थिक कारणों के चलते पीछे नहीं हट सकता. आने वाला हफ्ते में आरसीईपी समझौते से जुडे़ं घटनाओं को देखना काफी रोचक होगा.
(लेखक - डॉ.महेंद्र बाबू कुरुवा, सहायक प्रोफेसर, एच एन बी केंद्रीय विश्वविद्यालय, उत्तराखंड)