नई दिल्ली: 'तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख' ये फिल्म का डायलॉग कम और हमारी अदालतों की सच्चाई ज्यादा बन गया है. जहां जजों के पास मुकदमे की सुनने के लिए महज कुछ मिनट ही हों, वहां न्याय की क्या उम्मीद की जाए. देश में न्यायपालिका साल दर साल मुकदमों के बढ़ते बोझ तले दब रही है. औसतन, हर जज के पास एक हजार से अधिक मामले लंबित हैं. ऐसे में सुनवाई जल्दी पूरी करने की वजह से सुनवाई का समय मिनटों में सीमित हो गया है. लंबित मुकदमों के बोझ तले लगातार दब रहीं अदालतों में सुनवाई का समय कम होना न्याय के मूल मकसद पर सवाल उठाता है. अंतर्राष्ट्रीय न्याय दिवस पर आइए जानते हैं भारतीय न्याय व्यवस्था जुड़े कई अनछुए पहलुओं के बारे में...
देश में वैसे तो न्यायालयीन व्यवस्था बेहद पारदर्शी है, लेकिन इतनी बड़ी जनसंख्या होने की वजह से न्याय के मंदिर में ही मामलों की सुनवाई होने वाली देरी कहीं न कहीं लोगों के साथ अन्याय ही करती है. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रताप चंद्रा बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर अदालतों द्वारा किए जा रहे कार्यों की निगरानी करने वाले राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) की ओर से हाल में जारी आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में हाईकोर्ट, जिला कोर्ट और तहसील कोर्ट के समक्ष कुल तीन करोड़ 77 लाख से ज्यादा मामलों में से करीब 37 लाख मामले पिछले 10 सालों से लंबित पड़े हुए हैं.
मुकदमों की सुनवाई का लगातार घट रहा समय
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में इंसाफ के तौर-तरीकों पर हाल ही में किए गए अध्ययन के चौंकाने वाले आंकड़ों ने लगातार भयावह होती तस्वीर पेश की है. मसलन, हर जज मुकदमे की सुनवाई में पांच मिनट देता है. कुछ हाईकोर्ट में तो यह अवधि ढाई मिनट तक सीमित हो गई है. वहीं प्रत्येक मुकदमे में सुनवाई की औसत अधिकतम समय सीमा 15 मिनट ही है. ऐसे में यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं होगा कि जटिलतम कानूनी प्रक्रियाओं के बीच हर तारीख पर 2 से 15 मिनट की सुनवाई इंसाफ की आखिरी मंजिल को फरियादी से कितना दूर कर देती है.
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लाख कोशिशों के बाद भी नहीं घट रहा बोझ
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लगातार बढ़ते मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए सरकार और विधि आयोग के दबाव ने भी जजों पर सुनवाई का समय कम करने का दबाव बनाने में अहम भूमिका निभाई है. वरिष्ठ वकील प्रताप चंद्रा का मानना है कि बीते कुछ सालों में लंबी सुनवाई और बहस की परंपरा को सीमित कर सिर्फ न्यायिक जांच प्रक्रिया को पूरा करने की परिपाटी विकसित करने के कारण सुनवाई का समय कम हो रहा है.
समस्या का हल भी है
मुकदमों की संख्या और इंसाफ से फरियादी की दूरी में लगातार इजाफा होना न्याय व्यवस्था के लिए नासूर नहीं बीमारी बन गया है. हालांकि जानकारों का मानना है कि यह बीमारी अभी लाइलाज नहीं है. आंकड़ों की बानगी देखिए कि भारत में 73 हजार लोगों पर एक जज है, जबकि अमेरिका में यह अनुपात सात गुना कम है. इस तरह हाई कोर्ट के प्रत्येक जज पर औसतन 1300 मुकदमे लंबित हैं. मतलब साफ है कि न्याय की आस में अदालतों का रुख करने वालों की संख्या के अनुपात में जजों की संख्या नाकाफी है. वरिष्ठ वकील प्रताप चंद्रा कहते हैं कि यदि मामलों में सुनवाई का समय निश्चित हो, नाइट कोर्ट और फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़ाई जाय, साथ ही हर मामले में पुर्न विचार याचिका का प्रावधान न किया जाय तो न्याय के मंदिर में लोगों को समय पर इंसाफ मिल सकेगा.
एक नजर आंकड़ों पर
- देश में 28 लाख मामले जिला व तहसील कोर्ट में पेंडिग.
- इनमें लंबित 5,00,000 से अधिक मामले दो दशक से अधिक पुराने हैं.
- 85,141 मामलों पर तीन दशक से कोई फैसला नहीं लिया गया है.
- देश भर में 25 उच्च न्यायालयों के समक्ष 47 लाख से अधिक मामले लंबित हैं.
- इन मामलों में से 9,20,000 से अधिक मामले 10 से अधिक सालों से पेंडिंग हैं.
- 6,60,000 से ज्यादा मामले पिछले 20 सालों सुनवाई की राह देख रहे हैं.
- 30 सालों से लंबित पड़े केस की संख्या 1,31,000 है.