हैदराबाद: कुर्बानी (त्याग) बड़ा पवित्र शब्द है, इसमें बहुत व्यापकता और गहराई है. मानव जीवन से इसका रिश्ता इतना मजबूत और गहरा है कि इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका इतिहास मानव अस्तित्व के इतिहास जितना ही पुराना है. इससे साफ पता चलता है कि यह हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण है. त्याग ही हर काल में विश्व के सभी कौमों का नारा रहा है, अलग-अलग समय में लोगों ने इस पवित्र इबादत (उपासना) को अलग-अलग तरीकों और रीतियों से अपनाया है और इसे अपने जीवन का सुत्र बनाया है.
हजरत आदम (अलै.) के जमाने से शुरू हुआ कुर्बानी का सिलसिला कभी टूटा नहीं, बल्कि यह सिलसिला सदियों से जारी है. इसके कारण कितनी सभ्यताएँ अस्तित्व में आईं. कितने वफ़ादारों ने इस राह की ख़ाक छानी. कितनों ने इस पर अपनी ज़िंदगी खपा दी. सारी पूजाएँ होती रहीं, सारी प्रथाएँ चलती रहीं, शताब्दियाँ बीत जाने के बाद भी इस पवित्र प्रथा का शाश्वत और सार्वभौम संदेश दुनिया के सामने आना बाकी था. इसके रहस्यों और तथ्यों से पर्दा अभी भी नहीं उठ पाया है.
समय ने इसकी माँग की. दैवीय दया के उत्साहित होने का समय करीब आ गया था. राष्ट्रों का भाग्य चमकने वाला था. ऐसे महान कार्य को पूरा करने के लिए एक ऐसे प्रेमी की आवश्यकता थी जो इस बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने को तैयार हो. यदि आभासी प्रेम के पर्दे उसके रास्ते में खड़े हैं, तो वास्तविक प्रेम की गर्मी के सामने पिघल जाएं, और उसे रब की बारगाह (भगवान के रास्ते) में अपने आप को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाए.
इस महान कार्य को अंजाम देने के लिए अल्लाह ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो सभी के अनुकरण के योग्य था, जिसके माध्यम से बलिदान का संदेश दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचे. इसलिए अल्लाह तआला ने कुर्बानी को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ऐसा अनोखा और अद्भुत तरीका अपनाया, जहां तक अक्ल नहीं पहुंच सकी और दुनिया के इतिहास में इसका कोई सबूत पेश नहीं कर सकी. माना जाए तो इतने महान और नाजुक काम के लिए सिर्फ एक सपने का ही सहारा लिया गया. इसमें दासता, आज्ञाकारिता, अभिव्यक्ति की वास्तविक और नश्वर प्रेम का इम्तेहान था.
यह हजरत ईब्राहिम (अलै.) का दिल था जो इशारा पाते ही अपने जीवन की बहुमूल्य पूंजी को कुर्बान करने के लिए पूरे दिल और आत्मा से तैयार हो गए और अपने परवरदिगार (भगवान) के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. आपने दासता की एक मिसाल कायम कर दी है और प्रेम का एक ऐसा रास्ता खोला है, जिसकी पहुंच के बिना पूजा पूरी नहीं हो सकती. यह इबादत का सबसे ऊंचा मकाम है. अल्लाह ने यह सिलसिला दुनिया में दूसरे लोगों के लिए भी जारी रखा.
मुहम्मद साहब की पत्नी हज़रत आयशा सिद्दिका (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि अल्लाह कुर्बानी के दिनों में कुर्बानी से ज्यादा कोई काम पसंद नहीं करता. विचार करें तो पता चलेगा कि समस्त उपासना की भावना और उसका दर्शन त्याग ही है.
ईद उल अजहा क्या है?- ईद-उल-अजहा का इतिहास हजरत इब्राहिम (पैगंबर) से जुड़ी एक घटना से है. ये दिन कुर्बानी का दिन माना जाता है. मान्यता है कि अल्लाह ने एक दिन हजरत इब्राहिम (अलै.) से सपने में उनकी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी मांग ली. हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माईल से बहुत प्यार करते थे. तो उन्होंने अपने बेटे की कुर्बानी देने का फैसला किया, जो उन्हें बहुत प्यारा था. हजरत इब्राहिम अपने बेटे की कुर्बानी देने ही वाले थे कि ठीक उसी वक्त अल्लाह ने अपने दूत को भेजकर बेटे को एक दुंबा (बकरी की एक प्रजाति होती है) से बदल दिया. तभी से इस्लाम में ईद उल अजहा या बकरीद मनाने की शुरुआत हुई.
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