हैदराबाद: जाति ना पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान, भारत में सियासत के लिए इस बात के कुछ मायने नहीं हैं. ऐसा लगता है कि ये ज्ञान सिर्फ और सिर्फ स्कूल की किताबों के लिए है, असल जिंदगी में सियासत ही सब कुछ है जो फिलहाल कह रही है कि सबसे पहले जाति ही पूछो और वो भी सबकी.
कोरोना काल में 2021 में होने वाली जनगणना का कार्यक्रम भले टाल दिया गया हो लेकिन सियासत ने इस बार जनगणना में भी अपना हित खोज लिया है. कुछ सियासतदान देश में जातीय जनगणना करवाने पर अड़ गए हैं. अब आपके मन में सवाल उठ रहे होंगे कि ये जातीय जनगणना क्या बला है?, इस पर बवाल क्यों मचा है? और इसका क्या नफा-नुकसान है? जातीय जनगणना से जुड़े ऐसे हर सवाल का जवाब आपको देते हैं ईटीवी भारत के इस एक्सप्लेनर में.
जातीय जनगणना क्या है ?
दरअसल देश में हर दस साल में होने वाली जनगणना के दौरान धार्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक, आयु, लिंग आदि का जिक्र होता है साथ ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का भी आंकड़ा लिया जाता है लेकिन जाति आधारित आंकड़ा नहीं लिया जाता. कुछ सियासी दल मांग कर रहे हैं कि इस बार जनगणना जाति आधारित हो ताकि ये पता चल सके कि कितनी जातियां हैं और जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी कितनी है. इस सबमें सियासत की नजर सबसे ज्यादा ओबीसी यानि अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों और उनकी जनसंख्या पर है.
पहले भी हो चुकी है जातिगत जनगणना
आजादी से पहले साल 1931 में जाति आधारित जनगणना हुई थी, साल 1941 में भी जातिगत जनगणना हुई लेकिन आंकड़े जारी नहीं किए गए थे. इसके बाद की जनगणना आजाद भारत में साल 1951 में हुई लेकिन तब से लेकर आज तक जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों का ही जिक्र होता है. जातिगत जनगणना होने के बावजूद उनका आंकड़ा जारी नहीं किया जाता.
इस तरह की जनगणना की मांग पहले भी कई बार उठी है और अक्सर ओबीसी नेताओं की तरफ से इसके लिए झंडा बुलंद किया जाता है. ओबीसी की राजनीति करने वाले नेता इस मुद्दे पर अपना एकाधिकार समझते हैं फिर चाहे वो पक्ष में हों या विपक्ष में.
जातीय जनगणना की जरूरत क्यों ?
साल 1931 में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना के आंकड़े जारी किए गए थे. करीब 90 साल बाद एक बार फिर इसकी मांग उठ रही है. जानकार मानते हैं कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी फीसदी है, इसका कोई ठोस प्रमाण या आंकड़ा मौजूद नहीं है. मंडल कमीशन ने ओबीसी आबादी का जो डाटा (52%) निकाला उसका आधार भी साल 1931 की जनगणना ही थी.
जानकार मानते हैं कि देश में अनुसूचित जाति की जनसंख्या करीब 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 7 फीसदी है और उन्हें इसी आधार पर आरक्षण दिया जाता है. लेकिन देश की जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है इसका कोई ठोस आंकड़ा नहीं है.
इस बार किसने की है मांग
इस बार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति आधारित जनगणना करवाने के लिए सबसे पहले झंडा बुलंद किया और फिर कारवां बढ़ता गया. सोमवार को नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव समेत 10 दलों के 11 नेताओं ने पीएम मोदी से इस मुद्दे पर मुलाकात कर जाति आधार पर जनगणना करवाने की मांग पर चर्चा की. बिहार समेत कई क्षेत्रीय दलों के नेता इसकी मांग कर रहे हैं, हालांकि केंद्र सरकार इनकार कर चुकी है.
जातिगत जनगणना के समर्थकों का पक्ष
जाति आधारित जनगणना की मांग करने वाले सियासतदानों के मुताबिक इसस पिछड़े, अति पिछड़े वर्ग की जनसंख्या के साथ-साथ उनकी आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक स्थिति का पता चल सकेगा. इन आंकड़ों की मदद से उनके लिए बेहतर नीतियां बनाई और लागू की जा सकेंगी.
बीजेपी क्यों नहीं चाहती जाति आधारित जनगणना ?
कुल मिलाकर सत्ता में आते ही इस मुद्दे पर पार्टियों का स्टैंड बदल जाता है. 2011 में सहयोगियों के दबाव में कांग्रेस जातिगत जनगणना करवाती है पर उसके आंकड़े जारी नहीं करती. 2016 में बीजेपी केंद्र में थी लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़े जारी किए जाती हैं लेकिन जाति के नहीं और आज भी केंद्र की मोदी सरकार अपनों की मांग के बावजूद जाति आधारित जनगणना के पक्ष में नहीं है.
वैसे ये वही बीजेपी है जो ओबीसी आरक्षण पर मुहर लगाने से लेकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में ओबीसी चेहरों को जगह देने तक खुलकर अपना पक्ष रखती है. यूपी समेत कई राज्यों में जातियों को ध्यान में रखते हुए उपमुख्यमंत्री और मंत्री बनाती है. इसमें बीजेपी की अपनी सियासी मजबूरियां हैं तो कुछ जानकारों के इस पर ये तर्क हैं.
- बीजेपी लगातार 2 बार केंद्र में अपने दम पर जीत का परचम लहरा चुकी है और कई राज्यों में भी जीत दर्ज की है. बीजेपी के सामने क्षेत्रीय दलों का बहुत नुकसान हुआ है, जातिगत जनगणना होने पर जाति आधारित राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों को संजीवनी मिल जाएगी.
-जानकार मानते हैं कि ऐसी जनगणना में ओबीसी की आबादी घटने पर इस वर्ग के नेता एकजुट होकर सियासी भूचाल ला सकते हैं. जबकि आंकड़ा बढ़ने पर अधिक आरक्षण की मांग उठ सकती है. जिसे मुद्दा बनाकर क्षेत्रीय दल केंद्र सरकार पर दबाव डाल सकते हैं.
- बीजेपी की राजनीति हिंदुत्व के मुद्दे पर टिकी है. अगर जातिगत जनगणना हुई तो हिंदू समाज जाति के नाम पर विभाजित होगा, जिसका फायदा जातिगत राजनीति करने वाले दलों को होगा, बीजेपी को नहीं. जबकि बीते चुनावों में ओबीसी का वोट भी बीजेपी को मिला है.
- बीजेपी के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर जातिवाद भारी पड़ जाएगा.
- इस तरह की जनगणना से जाति आधारित राजनीति को बल मिलेगा. लोग खुद को जाति से जोड़कर देखेंगे तो जाति के आधार पर सियासी दल और अन्य संगठनों का जन्म हो सकता है.
- जाति आधारित जनगणना पर बीजेपी समाज के बंटने और सामाजिक सद्भाव, भाईचारा बिगड़ने की दलील भी दे सकती है.
- 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' इस तरह के नारे सियासी गलियारों में गूंजते हैं, ऐसे में जातिगत आधारित जनगणना में जिनकी संख्या कम या बहुत कम होगी उनका क्या होगा ?
- जातियों का ओबीसी स्टेटस राज्यों और केंद्र के हिसाब से बदलता है. मसलन बिहार में बनिया ओबीसी हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में भी आते हैं और केंद्र की सूची में वो नहीं है.
आज बीजेपी मुकर रही लेकिन एक वक्त किया था समर्थन
बीजेपी आज भले ही जाति आधारित जनगणना के पक्ष में ना हो लेकिन एक वक्त था जब बीजेपी की तरफ से इसकी मांग की थी. साल 2010 में बीजेपी के दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे ने लोकसभा में जाति आधारित जनगणना के पक्ष में तर्क देते हुए कहा था कि अगर ओबीसी जातियों की गिनती नहीं हुई तो उनको न्याय देने में और 10 साल लग जाएंगे. ये बयान तब दिया गया था जब कांग्रेस सत्ता पर काबिज थी.
अब बीजेपी सत्ता में है और इस मुद्दे पर उसका स्टैंड बदल गया है. जातीय जनगणना के सवाल पर सरकार संसद में साफ कर चुकी है कि जनगणना के दौरान सिर्फ एससी, एसटी को ही गिना जाएगा, जाति आधारित गणना नहीं होगी.
कांग्रेस राज में हुई जातिगत जनगणना लेकिन आंकड़े जारी नहीं हुए
कांग्रेस आज सत्ता से दूर है और जातिगत जनगणना का समर्थन कर रही है लेकिन एक वक्त था जब कांग्रेस जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं थी लेकिन लालू यादव, मुलायम सिंह और शरद पवार जैसे सहयोगियों के दबाव में जातीय जनगणना करवाई गई. जिसे सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (socio economic caste census) का नाम दिया गया. इस जनगणना पर 4 हजार करोड़ से अधिक का खर्च आया लेकिन इसके आंकड़े सरकार ने जारी नहीं किए. 2016 में मोदी सरकार ने जाति आधारित आंकड़े छोड़कर जनगणना के आंकड़े जारी किए.
कर्नाटक में हो चुकी है ऐसी जनगणना
साल 2015 में कर्नाटक की तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने जाति आधारित जनगणना का फैसला लिया था. इसे असंवैधानिक बताया गया तो इसका नाम बदलकर सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे नाम दिया गया. प्रदेश सरकार ने अपने खजाने से करीब 150 करोड़ रुपये खर्च कर ये सर्वे करवाया था. 2017 में कमेटी ने रिपोर्ट सरकार को सौंपी लेकिन खेल उल्टा पड़ गया.
पूरा सर्वे विवादों में आ गया क्योंकि खुद की जाति को ओबीसी या एससी और एसटी में शामिल कराने को लेकर लोगों ने उपजाति का नाम जाति के कॉलम में भर दिया. नतीजतन करीब 200 नई जातियां सामने आ गईं, करीब आधी जातियां तो ऐसी थी जिनकी तादाद दहाई यानि 10 से भी कम थी. ओबीसी की जनसंख्या में वृद्धि हो गई तो लिंगायत जैसे प्रमुख समुदाय की जनसंख्या कम हो गई. जिसके बाद सिद्दारमैया सरकार ने यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की.
आरजेडी के तेजस्वी यादव का कहना है कि अगर केंद्र सरकार जातिगत जनगणना नहीं करवाती है तो बिहार सरकार कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर अपने खर्च से यह जनगणना करवा सकती है. इस पर आरजेडी जेडीयू के साथ है.
जाति, आरक्षण और सियासत
भारत में ये तीनों चीजें मानों एक दूसरे के लिए ही बनी हैं. जाति के आधार पर नौकरी से लेकर स्कूल, कॉलेज तक में आरक्षण का प्रावधान है. जाति के आधार पर ही सियासी दल खड़े होते हैं और सत्ता के शिखर तक पहुंच जाते हैं. जातिगत जनगणना को लेकर भले सियासी दल दो धड़ों में नजर आ रहे हों लेकिन जाति का मुद्दा हर मोर्चे पर जैसे सार्वभौमिक सत्य की तरह मौजूद रहता है. स्कूल, कॉलेज, नौकरी में आरक्षण से लेकर चुनावों में टिकट बंटवारे और राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकार की कैबिनेट तक में जातियों के आधार पर ही कुर्सियां मिलती हैं.
जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी की ठोस जानकारी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के पैसले के मुताबिक कुल 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इसलिये 50 फीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकालकर बाकी ओबीसी के खाते में दिया जाता है. लेकिन इसके अलावा आरक्षण का कोई आधार नहीं है.
जाति आधारित जनगणना के नफा-नुकसान
इस तरह की जनगणना में सियासत अपना फायदा और नुकसान देख रही है. बीजेपी से लेकर कांग्रेस और क्षेत्रीय दल अपनी सहूलियत के हिसाब से इसके नफा नुकसान गिनवा रहे हैं. जातिगत जनगणना के पक्ष विपक्ष को लेकर जानकारों की भी अपनी राय है.
फायदा
- इस तरह की जनगणना की मांग सिर्फ इसलिये हो रही है ताकि जातियों का जानकारी और उनसे जुड़ी आबादी का आंकड़ा साफ हो सके ताकि उसे सियासतदान अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें. लेकिन सियासी फायदे से अलग इस तरह की गणना से हाशिये और लगभग विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी जातियों या समुदायों का पता चलेगा. जिससे उनको बचाने और उत्थान की पहल की जा सकती है. साथ ही अन्य जातियों की स्थिति के आधार पर उनके विकास के लिए नीतियां बन सकती हैं.
नुकसान
- बीजेपी के साथ कुछ विशेषज्ञों की भी यही दलील है कि इस तरह की जनगणना से जातिवाद बढ़ेगा जिससे समाज में फूट पड़ सकती है. कुल मिलाकर सियासत से अलग इससे कानून व्यवस्था का मसला भी खड़ा हो सकता है.
- जातिगत आधार पर जनसंख्या नियंत्रण की पहल को धक्का लग सकता है. किसी जाति विशेष की कम आबादी और फिर सरकार में हिस्सेदारी कम होने पर ऐसे लोग परिवार नियोजन अपनाना छोड़ सकते हैं.
- जातियों से जाति आधारित राजनीति को बल मिलने पर देश में राजनीतिक अस्थिरता या फिर गठबंधन वाली राजनीति का जोर होगा. जिसके नुकसान से सब वाकिफ हैं.
- मौजूदा वक्त में देश के कई इंजीनियर, डॉक्टर या अन्य पेशेवर युवा दूसरे देशों में जाकर अपनी सेवाएं दे रहे हैं. कुछ लोग इसके लिए देश में आरक्षण को मानते हैं. जानकार कहते हैं कि अगर आरक्षण इसके पीछे की वजह है तो जाति आधारित जनगणना में पिछड़ी जातियों की जनसंख्या बढ़ने पर आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग उठ सकती है, जिससे विदेश जाने वाले पेशेवर युवाओं की तादाद में भी इजाफा होगा.
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