हैदराबाद: अगस्त महीने के आखिर में भारत और तालिबान के बीच दोहा में एक मुलाकात हुई. दरअसल अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद से ही ये सवाल उठ रहे थे कि भारत का तालिबान को लेकर क्या रुख रहेगा ? भारत तालिबान को एक आतंकी संगठन मानेगा या एक सरकार के रूप में मान्यता देगा ? दोहा में हुई इस मुलाकात के बाद ऐसे कई सवाल उठ रहे हैं. आखिर कौन से हैं ये सवाल और क्या है भारत की चिंता ? जानने के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर (etv bharat explainer)
भारत-तालिबान की पहली मुलाकात
31 अगस्त मंगलवार को कतर की राजधानी दोहा में भारत के राजदूत दीपक मित्तल और तालिबान के प्रतिनिधि शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई की मुलाकात हुई. दरअसल इस मुलाकात से पहले तालिबान की तरफ से स्टेनकजई ने ही भारत के साथ दोस्ताना संबंध की बात कही थी, जिसके बाद ये मुलाकात हुई. मुलाकात से पहली नजर में ये तो तय हो गया कि भारत तालिबान से रिश्तों को लेकर इनकार तो नहीं कर रहा लेकिन इन दोनों देशों के रिश्ते पहले जैसे बने रहें, ये भारत से ज्यादा तालिबान पर निर्भर करेगा.
मुलाकात हुई तो क्या बात हुई ?
भारत सरकार की तरफ से साफ किया गया कि तालिबान के आग्रह पर ये मुलाकात हुई है. इस दौरान भारत का फोकस मौजूदा दौर की चिंताओं पर था, इन्हें लेकर ही भारत ने तालिबान के साथ बातचीत की शुरूआत की.
- अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की वतन वापसी
- ऐसे अफगानी अल्पसंख्यक जो भारत आना चाहते हैं.
- भारत विरोधी गतिविधि और आतंकवाद के लिए अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल ना हो.
तालिबान का आश्वासन
इस मुलाकात में भारत की हर शर्त को तालिबान ने स्वीकर करते हुए आश्वासन दिया कि इन सभी मुद्दों को सकारात्मक रूप में देखा जाएगा. तालिबान की तरफ से अफगानिस्तान और भारत के रिश्तों को बेहतर बनाने की बात कही गई है फिर चाहे राजनीतिक स्तर पर हो या फिर कारोबारी स्तर पर.
शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई की ओर से कहा गया है कि अफगानिस्तान से भारत समेत किसी भी पड़ोसी देश को ना कोई खतरा था और ना ही भविष्य में होगा. भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर तालिबान ने कहा कि दोनों देश आंतरिक झगड़े के लिए अफगानिस्तान का इस्तेमाल नहीं करेंगे, हम किसी को लड़ाई के लिए अफगानिस्तान का इस्तेमाल नहीं करने देंगे.
कौन है शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई ?
भारतीय राजदूत की तालिबान के जिस प्रतिनिधि शेर मोहम्मद अब्बास से मुलाकात हुई, वो देहरादून की इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA) से ट्रेनिंग ली है. शेर मोहम्मद अब्बास इस वक्त तालिबान के टॉप कमांडर हैं और अफगानिस्तान में बनने वाली तालिबान की सरकार में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी. दोहा में अमेरिका के साथ समझौता हो या फिर भारतीय राजदूत के साथ मुलाकात, स्टेनकजई की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है. कुल मिलाकर तालिबान ने अपने बदले हुए अवतार को दुनिया के सामने लाने के लिए इसी चेहरे को फ्रंट पर रखा है. अटकलें लगाई जा रही हैं कि उन्हें नई बनने वाली सरकार में तालिबान उन्हें विदेश मंत्री की जिम्मेदारी दे सकता है.
तालिबान का बदला रुख और इसके मायने
जानकार मानते हैं कि ये मुलाकात कई मायनों में खास है. तालिबान का भारत के लिए बदला रुख इस मुलाकात का सबसे सकारात्मक पहलू है. तालिबान का भारत की तरफ दोस्ताना संबंध बनाने की इच्छा जताते हुए भारत से मुलाकात का अनुरोध करना और भारत की तरफ से इसे स्वीकार करना दोनों के बदले रुख की पहली मिसाल है.
तालिबान की तरफ से भारत के साथ बेहतर संबंध की कोशिशें रही हैं. 2019 में तालिबान कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला बताकर पाकिस्तान को आईना भी दिखा चुका है. इस बार अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान का सरकार चलाने को लेकर सकारात्मक रवैया दिखा है, एक सरकार के नाते वो भारत समेत अन्य देशों से बेहतर संबंध चाहता है.
भारत की चिंता और जरूरत के बीच तालिबान के लिए बदला रुख
इससे पहले भारत तालिबान को एक आंतकवादी समूह मानता रहा है. भारत को तालिबान के हक्कानी ग्रुप की भी चिंता है, जो भारतीय दूतावास पर साल 2009 में हुए हमले का जिम्मेदार रहा है. आतंकवाद को लेकर भी भारत का स्टैंड क्लीयर है. ऐसे में तालिबान के बदले रुख के साथ भारत ने भी एक कदम आगे बढ़ाया है. जानकार मानते हैं कि अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद भी भारत ने राजनयिक संबंध नहीं तोड़े, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य होने के नाते भी भारत ने तालिबान को लेकर कोई विरोधी रुख नहीं अपनाया.
अशरफ गनी के राष्ट्रपति रहते हुए अफगानिस्तान से भारत के बहुत अच्छे संबंध रहे हैं. जिसे लेकर पाकिस्तान जैसे देश हमेशा फिक्रमंद रहे हैं. ऐसे में पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक आतंक का मुद्दा भारत के लिए सर्वोपरि रहेगा. तालिबान की पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी से करीबी भी चिंता का कारण है.
एक अनुमान के मुताबिक भारत ने अफगानिस्तान में तीन अरब डॉलर का निवेश अलग-अलग परियोजनाओं में किया है. जिनमें सलमा बांध से लेकर 218 किलोमीटर लंबा जरांज-देलाराम हाईवे, अफगानिस्तान का सबसे बड़ा अस्पताल समेत कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट शामिल हैं. इसके अलावा 900 करोड़ डॉलर यानि करीब 660 करोड़ की लागत से अफगानिस्तान के संसद भवन का भी निर्माण करवाया था.
कुछ जानकार मानते हैं कि अफगानिस्तान में अपने निवेश और वहां से मध्य एशिया की पहुंच को बनाए रखने के लिए भारत को तालिबान से खुले तौर पर बातचीत का नया चैनल खोलना जरूरी था. जिसकी शुरुआत हो चुकी है.
क्या कहते हैं जानकार ?
विशेषज्ञों की आशंका भी वही है जो भारत की चिंता है. तालिबान और पाकिस्तान की करीबी को देखते हुए आतंकवाद की पनाहगाह रहे अफगानिस्तान को लेकर ये चिंताएं वाजिब भी हैं. इन्हीं चिंताओं की वजह से भारत ने तालिबान को लेकर अपना रुख अभी तक भी पूरी तरह से साफ नहीं किया है. क्योंकि ये पूरी तरह से तालिबान पर निर्भर करता है.
कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक भारत को फिलहाल जल्दबाजी की कोई जरूरत नहीं है. क्योंकि तालिबान खुद में बदलाव की बात भले कह रहा हो लेकिन फिलहाल वो दिख नहीं रहा है. वैसे भी भारत ने कभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी है.
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत ने अफगानिस्तान में स्कूल से लेकर हाइवे, पुल और अस्पताल बनाने तक में जो निवेश किया है. वो किसी रिटर्न या बदले में कुछ मिलने की मंशा के साथ ना किया हो लेकिन इसे दोनों देशों के बीच रिश्ता और दुनिया में भारत की साख दोनों मजबूत हुई है. अगर तालिबान सच में बदल गया है और एक मुल्क चलाने की सोच रहा है तो वो इन विकास परियोजनाओं को तोड़ने की नहीं सोचेगा. इसे उसकी छवि को और नुकसान हो सकता है. इसलिये भारत के निवेश पर कोई खतरा नहीं है, इसकी एक वजह ये भी है कि तालिबान विकास के लिए दूसरे देशों से सहयोग भी मांग रहा है.
क्या तालिबान को भारत मान्यता देगा ?
ये सवाल मौजूदा दौर में सबसे अहम है. जानकार मानते हैं कि भारत ने भले तालिबान के प्रतिनिधि से मुलाकात की हो लेकिन इसे भारत की मौन मान्यता भी नहीं माना जा सकता. इस मुलाकात के जरिये भारत ने गेंद तालिबान के पाले में डाली है, भारत की तरफ से जो शर्तें रखी गई हैं उन्हें पूरा करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है. बल्कि तालिबान की नीयत और कार्यप्रणाली पर भारत और अफगानिस्तान के रिश्तों का भविष्य तय होगा.
अब तक तालिबान ने अफगानिस्तान में सरकार भी नहीं बनाई है ऐसे में सरकार बनने और उसकी कार्यप्रणाली को देखते हुए वेट एंड वॉच की पॉलिसी अपनाई जा सकती है. जानकार मानते हैं कि एक बेहतर और भारत की शर्तों में ध्यान में रखने वाली सरकार, खासकर आतंक के खिलाफत वाली सरकार बनने पर ही भारत तालिबान को मान्यता दे सकता है.
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