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पश्चिम बंगाल से उतरा गेरुआ रंग क्या यूपी में होगा चटक?

पश्चिम बंगाल में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा सत्ता की कुर्सी हासिल नहीं कर सकी. यह अलग बात है कि भाजपा यहां तीन से 80 सीट तक पहुंच गई. बंगाल की जनता ने हिंदुत्व के एजेंडे को किनारे कर ममता पर भरोसा किया है. अगले साल यूपी में विधानसभा चुनाव है, जिसकी तैयारी अंदरखाने सभी पार्टियां कर रही हैं. सवाल उठ रहा है क्या पांच राज्यों के चुनाव परिणामों का असर यूपी और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव पर भी पड़ेगा.

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों
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Published : May 3, 2021, 3:37 PM IST

पटना : पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम ने देश की राजनीति को एक बार फिर सोचने की दिशा दी है. दरअसल, भाजपा ने सत्ता की जिस जरूरत के लिए पश्चिम बंगाल में मेहनत की उसका बहुत हद तक परिणाम तो भाजपा की झोली में आ गया. लेकिन कई सवाल सियासत में नए खड़े हो गए. दो बड़े राज्यों के चुनाव परिणाम को देखा जाए, तो भाजपा बढ़त में है. इसमें दो राय नहीं है कि बिहार और बंगाल में भाजपा ने जिस राजनीतिक बढ़ोतरी को दर्ज किया है वो निश्चित तौर पर पार्टी के लिए उत्साह का विषय है. दोनों राज्यों में पार्टी नेतृत्व की राजनीति के विभेद को ही झेल रही है. बंगाल के चुनाव परिणाम ने भाजपा को सत्ता तक तो नहीं पहुंचाया, लेकिन कई चीजों को फिर से एक बार समझने का मौका दे दिया.

समन्वय की सीख

बात बिहार की करें तो एनडीए के सभी घटक दल चाहे जदयू हो या फिर 'हम' पश्चिम बंगाल में चुनावी तैयारी के लिए गोलबंदी कर रहे थे, लेकिन भाजपा ने इन राजनीतिक दलों को जिस तरीके से किनारे रखा उसका सीधे तौर पर पश्चिम बंगाल से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, लेकिन भाजपा जीत की जिस सियासत को जोड़कर चल रही थी, उसके राजनीतिक भविष्य को जरूर देखा जा रहा है. क्योंकि, जितनी सीट पार्टी लेकर आई है यह निश्चित तौर पर किसी राजनीतिक दल के लिए फायदे का सबसे बड़ा बिजनेस कहा जा सकता है. लेकिन, बिहार और बंगाल की सियासत में जो लोग राजनीति करते रहे हैं, उन्हें साथ न लेकर पार्टी ने अकेले की राजनीति का संकेत दिया है. या यह भी कह सकते हैं कि दल एक नया मजमून खड़ा कर रहा है. हालांकि, भरोसे को जोड़ने में भाजपा साथियों की सियासत में थोड़ी कमजोर हुई है और इस चूक का असर भी आगे पड़ेगा.

वाम का काम तमाम

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम में वामदलों का सूपड़ा साफ हो गया. बिहार में वाम दल ने जिस तरीके से मजबूती लाई थी, उससे एक बार फिर सियासी चर्चा शुरू हो गई थी कि बिहार चुनाव के बाद जब बंगाल में चुनाव होंगे तो वामदलों का एक बार फिर से मजबूत होना लगभग तय है. हालांकि, तेजस्वी यादव ने ममता बनर्जी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात जरूर कही थी, लेकिन ममता ने किसी को साथ नहीं लिया. ममता को इस बात का विश्वास था कि पश्चिम बंगाल में उनकी सरकार से जो काम हुआ है, वह उन्हें चुनाव परिणामों में निश्चित तौर पर लाभ देगा.

ममता बनर्जी वाम दल के ही किले को गिराकर पश्चिम बंगाल की गद्दी को तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़ा किया था. लेकिन बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में जिस तरीके से गठबंधन का समीकरण बना उसमें बिहार की राजनीति वाम दल, राजद और कांग्रेस के साथ जुड़ गई जो माना जा रहा था कि पश्चिम बंगाल में शायद किसी गठजोड़ के साथ खड़ा हो. लेकिन ममता के अकेले चुनाव में जाने के बाद यह साफ हो गया कि गठबंधन का कोई समीकरण खड़ा नहीं हो रहा है. ऐसे में वामदलों के लिए चुनौती भी बड़ी हो गई थी.

पढ़ेंः विपक्षी पार्टियाें ने की मुफ्त सामूहिक टीकाकरण की मांग

वाम दलों का एजेंडा साफ नहीं था और जिस एजेंडे के साथ वाम दल गठबंधन लिए खड़ा था, उसका कोई वजूद पश्चिम बंगाल में दिखा नहीं. हालांकि, बीजेपी सहित दूसरे राजनीतिक दल इस बात को लेकर जरूर चिंतन कर रहे थे कि बिहार में जिस तरीके से वाम दल ने कमबैक किया है. बंगाल की राजनीति में उसका असर जरूर देखने को मिलेगा. लेकिन, चुनाव परिणाम ने एक बार फिर साबित कर दिया कि पश्चिम बंगाल में वाम दल का अब काम तमाम हो चुका है. क्योंकि सियासत में सिर्फ फायदे की राजनीति करने वाली वाम पार्टियों को बिहार में थोड़ी जगह तो जरूर मिली. लेकिन बंगाल में सफाई के बाद एक बात तो अब तय हो गया है कि वामदल के नेताओं को पिछलग्गू होकर सियासत करना अब मजबूरी है और बचे रहने के लिए जरूरी भी.

कांग्रेस की सियासी करवट

कांग्रेस कभी बिहार में बहुत मजबूती से सरकार बनाने और चलाने की स्थिति में थी तब भी पश्चिम बंगाल की राजनीति पर उसका बहुत ज्यादा जोर नहीं था. बिहार कांग्रेस की राजनीतिक जमीन होती थी. लेकिन, उसके बाद भी पश्चिम बंगाल में वाम दलों का मजबूत किला बना ही रहा. हालांकि, ममता बनर्जी ने जब पश्चिम बंगाल से वाम का किला गिराया तो यह माना जा रहा था कि नई राजनीति में उन राजनीतिक दलों को भी जगह मिलेगी जो कहने के लिए सबसे पुरानी है और राजनीतिक दखल के रूप में कुछ शेयर तो इन राजनीतिक दलों को मिलेगा. लेकिन, इस बार के चुनाव परिणाम में भी कांग्रेस के हाथ खाली ही रह गए. क्योंकि जिस सोच के साथ पश्चिम बंगाल में कांग्रेस गई थी उसका कोई आधार ही नहीं खड़ा हो पाया. बिहार में 2015 के चुनाव में मिली सीट 2020 में कांग्रेस अपनी मजबूत उपस्थिति तो दर्ज करा ली और यही माना जा रहा था कि जिस तरीके से राजनीतिक जनाधार को कांग्रेस ने जिन-जिन स्थानों पर खोया है वहां फिर से उसे मिल जाएगी. लेकिन कमजोर केंद्रीय नेतृत्व और मुद्दों से भटक चुकी कांग्रेस पश्चिम बंगाल में कुछ खास नहीं कर पाई. यह निश्चित है कि बिहार वाले गठबंधन के नाते मुद्दों पर ममता का साथ कांग्रेस को मिल जाए.

एजेंडा राम का...

पश्चिम बंगाल में चुनाव को लेकर भाजपा ने जिस स्टैंड को उठाया था उसमें हर मंच से राम-राम के एजेंडे को ही भुनाने की कोशिश हुई. इसकी एक बड़ी वजह कही जा सकती है कि भाजपा को यह भरोसा था कि जिस तरीके से ममता बनर्जी ने बंगाल में काम किया है. मुस्लिम राजनीति को बंगाल में जो हवा मिली और उससे एक खास वर्ग में जो गुस्सा था वह राम के नाम पर ही भाजपा का वोट बैंक बन जाएगा.

नीतीश को साथ नहीं लेना पड़ा महंगा!

बिहार से मॉडल को लेकर बहुत सारी चर्चा होती रही है. नीतीश कुमार के 'हर घर नल का जल' योजना को नरेंद्र मोदी ने देशभर में उतारा. महिलाओं के आरक्षण को भी खूब सराहा गया. शराबबंदी के मामले को लेकर पूरे देश में चर्चा रही. नीतीश भाजपा के साथ हैं, लेकिन इस पूरे सियासी समर में इन बातों की चर्चा करने के लिए कहीं से भाजपा ने जगह दी ही नहीं. राम के भरोसे जीत का आस लगाकर मैदान में खंभा ठोक दिया गया. आधे राजनीतिक दलों के लिए यह सोचना भी शायद मुश्किल हो गया था कि बंगाल को विकास नहीं जात जीता देगी. सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि नीतीश कुमार भाजपा के लिए बिहार में चेहरा हैं और उस चेहरे के बदौलत उसको फायदा भी मिला है. बिहार से सटे जो जिले पश्चिम बंगाल के हैं, वहां पर भाजपा को बहुत कुछ फायदा मिल सकता था, लेकिन नीतीश के नहीं जाने का मलाल अब भाजपा को कितना होगा यह कहा नहीं जा सकता.

यह भी पढ़ेंः सादगी के साथ होगा शपथ ग्रहण समारोह : स्टालिन

अब यूपी की बारी

बिहार चुनाव के बाद यह चर्चा की जा रही थी कि पश्चिम बंगाल का चुनाव परिणाम यह बताएगा कि बीजेपी के उत्तर प्रदेश का सियासी रंग क्या होगा? दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति में गेरुआ रंग और उस रंग का ढंग बीजेपी चला रही है. उत्तर प्रदेश में विकास की जिस रफ्तार को भाजपा ने सोचा था, पार्टी यह मानकर, तो चल ही रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वैसे कर भी रहे हैं. यही वजह है कि उस रंग को भुनाने के लिए योगी आदित्यनाथ को पश्चिम बंगाल के चुनाव में स्टार प्रचारकों की सूची में डालकर यूपी के विकास की हर कहानी बताई गई. बीजेपी के लिए निश्चित तौर पर यह मंथन का विषय है कि जो सीटें वे जीत कर आए हैं, उसमें विकास की कौन सी धारणा वोटरों के मन में गई.

यूपी चुनाव भाजपा के लिए अब चुनौती!

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम के बाद अब उत्तर प्रदेश की सियासत इसलिए भी बीजेपी को थोड़ा चिंता में डालेगी, क्योंकि योगी के राम रंग का बहुत असर पश्चिम बंगाल में दिखा नहीं. वामदल भले ही चुनाव में जगह नहीं बना पाया हो, लेकिन यूपी में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां उनकी बात सुनी जाएगी. कांग्रेस का कुनबा बहुत कुछ पश्चिम बंगाल में भले न कर पाया हो, लेकिन यूपी में जिस तरीके से प्रियंका गांधी पूरे उत्तर प्रदेश के सियासी नब्ज को तौल कर तराजू में रख रही हैं, वह 22 के सियासी संग्राम की जरूरी तैयारी भी है, यह भाजपा को समझना होगा. ये तमाम चीजें पश्चिम बंगाल में नहीं चढ़े गेरुआ रंग की कितनी चटक कहानी यूपी में लिखेगा, अब यह भाजपा की नई राजनीतिक तैयारी का नया वार रूम ही समझे. क्योंकि मंथन जारी है.

हालांकि, 2 मई को ही उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव की हो रही गणना इस बात को जरूर बताएगी कि विकास का गेरुआ रंग गांवों की पगडंडी तक पहुंचा कितना है जो योगी के यूपी के सजाने की पहली कड़ी है और सियासत की वह नब्ज जो यूपी के आगे कि सियासी धड़कन को नए साल से थिरकन देगा.

बंगाल चुनाव परिणाम भाजपा के लिए बढ़त, दीदी को फिर से गद्दी, वाम दलों को उनकी राजनीतिक करनी का फल दे गया. लेकिन यहीं से एक नई सियासी गठजोड़ की राजनीतिक खेती भी शुरू हो रही है, जो यूपी चुनाव आने तक कोई नया आधार ले. क्योंकि, यूपी में सपा से राजद की रिश्तेदारी और भाजपा को रोकने की तैयारी बंगाल से तैयार होगा और यूपी में बदलाव को रूप देगा जो अब भाजपा की सबसे बड़ी परीक्षा है. हालांकि, भाजपा को यह भरोसा है कि मोदी मुमकिन कर देंगे. पश्चिम बंगाल में सीटों की संख्या बढ़ाकर भाजपा खुश तो जरूर होगी, लेकिन आगे की चिंता ज्यादा बड़ी है.

पटना : पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम ने देश की राजनीति को एक बार फिर सोचने की दिशा दी है. दरअसल, भाजपा ने सत्ता की जिस जरूरत के लिए पश्चिम बंगाल में मेहनत की उसका बहुत हद तक परिणाम तो भाजपा की झोली में आ गया. लेकिन कई सवाल सियासत में नए खड़े हो गए. दो बड़े राज्यों के चुनाव परिणाम को देखा जाए, तो भाजपा बढ़त में है. इसमें दो राय नहीं है कि बिहार और बंगाल में भाजपा ने जिस राजनीतिक बढ़ोतरी को दर्ज किया है वो निश्चित तौर पर पार्टी के लिए उत्साह का विषय है. दोनों राज्यों में पार्टी नेतृत्व की राजनीति के विभेद को ही झेल रही है. बंगाल के चुनाव परिणाम ने भाजपा को सत्ता तक तो नहीं पहुंचाया, लेकिन कई चीजों को फिर से एक बार समझने का मौका दे दिया.

समन्वय की सीख

बात बिहार की करें तो एनडीए के सभी घटक दल चाहे जदयू हो या फिर 'हम' पश्चिम बंगाल में चुनावी तैयारी के लिए गोलबंदी कर रहे थे, लेकिन भाजपा ने इन राजनीतिक दलों को जिस तरीके से किनारे रखा उसका सीधे तौर पर पश्चिम बंगाल से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, लेकिन भाजपा जीत की जिस सियासत को जोड़कर चल रही थी, उसके राजनीतिक भविष्य को जरूर देखा जा रहा है. क्योंकि, जितनी सीट पार्टी लेकर आई है यह निश्चित तौर पर किसी राजनीतिक दल के लिए फायदे का सबसे बड़ा बिजनेस कहा जा सकता है. लेकिन, बिहार और बंगाल की सियासत में जो लोग राजनीति करते रहे हैं, उन्हें साथ न लेकर पार्टी ने अकेले की राजनीति का संकेत दिया है. या यह भी कह सकते हैं कि दल एक नया मजमून खड़ा कर रहा है. हालांकि, भरोसे को जोड़ने में भाजपा साथियों की सियासत में थोड़ी कमजोर हुई है और इस चूक का असर भी आगे पड़ेगा.

वाम का काम तमाम

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम में वामदलों का सूपड़ा साफ हो गया. बिहार में वाम दल ने जिस तरीके से मजबूती लाई थी, उससे एक बार फिर सियासी चर्चा शुरू हो गई थी कि बिहार चुनाव के बाद जब बंगाल में चुनाव होंगे तो वामदलों का एक बार फिर से मजबूत होना लगभग तय है. हालांकि, तेजस्वी यादव ने ममता बनर्जी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात जरूर कही थी, लेकिन ममता ने किसी को साथ नहीं लिया. ममता को इस बात का विश्वास था कि पश्चिम बंगाल में उनकी सरकार से जो काम हुआ है, वह उन्हें चुनाव परिणामों में निश्चित तौर पर लाभ देगा.

ममता बनर्जी वाम दल के ही किले को गिराकर पश्चिम बंगाल की गद्दी को तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़ा किया था. लेकिन बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में जिस तरीके से गठबंधन का समीकरण बना उसमें बिहार की राजनीति वाम दल, राजद और कांग्रेस के साथ जुड़ गई जो माना जा रहा था कि पश्चिम बंगाल में शायद किसी गठजोड़ के साथ खड़ा हो. लेकिन ममता के अकेले चुनाव में जाने के बाद यह साफ हो गया कि गठबंधन का कोई समीकरण खड़ा नहीं हो रहा है. ऐसे में वामदलों के लिए चुनौती भी बड़ी हो गई थी.

पढ़ेंः विपक्षी पार्टियाें ने की मुफ्त सामूहिक टीकाकरण की मांग

वाम दलों का एजेंडा साफ नहीं था और जिस एजेंडे के साथ वाम दल गठबंधन लिए खड़ा था, उसका कोई वजूद पश्चिम बंगाल में दिखा नहीं. हालांकि, बीजेपी सहित दूसरे राजनीतिक दल इस बात को लेकर जरूर चिंतन कर रहे थे कि बिहार में जिस तरीके से वाम दल ने कमबैक किया है. बंगाल की राजनीति में उसका असर जरूर देखने को मिलेगा. लेकिन, चुनाव परिणाम ने एक बार फिर साबित कर दिया कि पश्चिम बंगाल में वाम दल का अब काम तमाम हो चुका है. क्योंकि सियासत में सिर्फ फायदे की राजनीति करने वाली वाम पार्टियों को बिहार में थोड़ी जगह तो जरूर मिली. लेकिन बंगाल में सफाई के बाद एक बात तो अब तय हो गया है कि वामदल के नेताओं को पिछलग्गू होकर सियासत करना अब मजबूरी है और बचे रहने के लिए जरूरी भी.

कांग्रेस की सियासी करवट

कांग्रेस कभी बिहार में बहुत मजबूती से सरकार बनाने और चलाने की स्थिति में थी तब भी पश्चिम बंगाल की राजनीति पर उसका बहुत ज्यादा जोर नहीं था. बिहार कांग्रेस की राजनीतिक जमीन होती थी. लेकिन, उसके बाद भी पश्चिम बंगाल में वाम दलों का मजबूत किला बना ही रहा. हालांकि, ममता बनर्जी ने जब पश्चिम बंगाल से वाम का किला गिराया तो यह माना जा रहा था कि नई राजनीति में उन राजनीतिक दलों को भी जगह मिलेगी जो कहने के लिए सबसे पुरानी है और राजनीतिक दखल के रूप में कुछ शेयर तो इन राजनीतिक दलों को मिलेगा. लेकिन, इस बार के चुनाव परिणाम में भी कांग्रेस के हाथ खाली ही रह गए. क्योंकि जिस सोच के साथ पश्चिम बंगाल में कांग्रेस गई थी उसका कोई आधार ही नहीं खड़ा हो पाया. बिहार में 2015 के चुनाव में मिली सीट 2020 में कांग्रेस अपनी मजबूत उपस्थिति तो दर्ज करा ली और यही माना जा रहा था कि जिस तरीके से राजनीतिक जनाधार को कांग्रेस ने जिन-जिन स्थानों पर खोया है वहां फिर से उसे मिल जाएगी. लेकिन कमजोर केंद्रीय नेतृत्व और मुद्दों से भटक चुकी कांग्रेस पश्चिम बंगाल में कुछ खास नहीं कर पाई. यह निश्चित है कि बिहार वाले गठबंधन के नाते मुद्दों पर ममता का साथ कांग्रेस को मिल जाए.

एजेंडा राम का...

पश्चिम बंगाल में चुनाव को लेकर भाजपा ने जिस स्टैंड को उठाया था उसमें हर मंच से राम-राम के एजेंडे को ही भुनाने की कोशिश हुई. इसकी एक बड़ी वजह कही जा सकती है कि भाजपा को यह भरोसा था कि जिस तरीके से ममता बनर्जी ने बंगाल में काम किया है. मुस्लिम राजनीति को बंगाल में जो हवा मिली और उससे एक खास वर्ग में जो गुस्सा था वह राम के नाम पर ही भाजपा का वोट बैंक बन जाएगा.

नीतीश को साथ नहीं लेना पड़ा महंगा!

बिहार से मॉडल को लेकर बहुत सारी चर्चा होती रही है. नीतीश कुमार के 'हर घर नल का जल' योजना को नरेंद्र मोदी ने देशभर में उतारा. महिलाओं के आरक्षण को भी खूब सराहा गया. शराबबंदी के मामले को लेकर पूरे देश में चर्चा रही. नीतीश भाजपा के साथ हैं, लेकिन इस पूरे सियासी समर में इन बातों की चर्चा करने के लिए कहीं से भाजपा ने जगह दी ही नहीं. राम के भरोसे जीत का आस लगाकर मैदान में खंभा ठोक दिया गया. आधे राजनीतिक दलों के लिए यह सोचना भी शायद मुश्किल हो गया था कि बंगाल को विकास नहीं जात जीता देगी. सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि नीतीश कुमार भाजपा के लिए बिहार में चेहरा हैं और उस चेहरे के बदौलत उसको फायदा भी मिला है. बिहार से सटे जो जिले पश्चिम बंगाल के हैं, वहां पर भाजपा को बहुत कुछ फायदा मिल सकता था, लेकिन नीतीश के नहीं जाने का मलाल अब भाजपा को कितना होगा यह कहा नहीं जा सकता.

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अब यूपी की बारी

बिहार चुनाव के बाद यह चर्चा की जा रही थी कि पश्चिम बंगाल का चुनाव परिणाम यह बताएगा कि बीजेपी के उत्तर प्रदेश का सियासी रंग क्या होगा? दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति में गेरुआ रंग और उस रंग का ढंग बीजेपी चला रही है. उत्तर प्रदेश में विकास की जिस रफ्तार को भाजपा ने सोचा था, पार्टी यह मानकर, तो चल ही रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वैसे कर भी रहे हैं. यही वजह है कि उस रंग को भुनाने के लिए योगी आदित्यनाथ को पश्चिम बंगाल के चुनाव में स्टार प्रचारकों की सूची में डालकर यूपी के विकास की हर कहानी बताई गई. बीजेपी के लिए निश्चित तौर पर यह मंथन का विषय है कि जो सीटें वे जीत कर आए हैं, उसमें विकास की कौन सी धारणा वोटरों के मन में गई.

यूपी चुनाव भाजपा के लिए अब चुनौती!

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम के बाद अब उत्तर प्रदेश की सियासत इसलिए भी बीजेपी को थोड़ा चिंता में डालेगी, क्योंकि योगी के राम रंग का बहुत असर पश्चिम बंगाल में दिखा नहीं. वामदल भले ही चुनाव में जगह नहीं बना पाया हो, लेकिन यूपी में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां उनकी बात सुनी जाएगी. कांग्रेस का कुनबा बहुत कुछ पश्चिम बंगाल में भले न कर पाया हो, लेकिन यूपी में जिस तरीके से प्रियंका गांधी पूरे उत्तर प्रदेश के सियासी नब्ज को तौल कर तराजू में रख रही हैं, वह 22 के सियासी संग्राम की जरूरी तैयारी भी है, यह भाजपा को समझना होगा. ये तमाम चीजें पश्चिम बंगाल में नहीं चढ़े गेरुआ रंग की कितनी चटक कहानी यूपी में लिखेगा, अब यह भाजपा की नई राजनीतिक तैयारी का नया वार रूम ही समझे. क्योंकि मंथन जारी है.

हालांकि, 2 मई को ही उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव की हो रही गणना इस बात को जरूर बताएगी कि विकास का गेरुआ रंग गांवों की पगडंडी तक पहुंचा कितना है जो योगी के यूपी के सजाने की पहली कड़ी है और सियासत की वह नब्ज जो यूपी के आगे कि सियासी धड़कन को नए साल से थिरकन देगा.

बंगाल चुनाव परिणाम भाजपा के लिए बढ़त, दीदी को फिर से गद्दी, वाम दलों को उनकी राजनीतिक करनी का फल दे गया. लेकिन यहीं से एक नई सियासी गठजोड़ की राजनीतिक खेती भी शुरू हो रही है, जो यूपी चुनाव आने तक कोई नया आधार ले. क्योंकि, यूपी में सपा से राजद की रिश्तेदारी और भाजपा को रोकने की तैयारी बंगाल से तैयार होगा और यूपी में बदलाव को रूप देगा जो अब भाजपा की सबसे बड़ी परीक्षा है. हालांकि, भाजपा को यह भरोसा है कि मोदी मुमकिन कर देंगे. पश्चिम बंगाल में सीटों की संख्या बढ़ाकर भाजपा खुश तो जरूर होगी, लेकिन आगे की चिंता ज्यादा बड़ी है.

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