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उल्फा ने इस बार नहीं किया स्वतंत्रता दिवस के बहिष्कार का आह्वान, क्या है संदेश

परेश बरुआ के नेतृत्व वाले उल्फा (स्वतंत्र) ने आगामी 75वें स्वतंत्रता दिवस समारोह के अपने पारंपरिक बहिष्कार के आह्वान को जारी करने से परहेज किया है. क्या यह कोई संदेश है कि असम का सबसे बड़ा विद्रोही संगठन शांति की राह चलना चाहता है. वरिष्ठ पत्रकार संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट

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Published : Aug 11, 2021, 7:55 PM IST

नई दिल्ली : अतीत में हर साल एक ईमेल संदेश प्रतिबंधित परेश बरुआ के नेतृत्व वाले यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा-इंडिपेंडेंट) से आता था, जिसमें आगामी स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के बंद या बहिष्कार के आह्वान की घोषणा की जाती थी. लेकिन यह वर्ष अपवाद रहा है.

बुधवार (11 अगस्त) को प्राप्त एक ईमेल में प्रतिबंधित संगठन ने कहा कि उसने इस साल हिंसक विरोध या बंद का आह्वान नहीं किया है, लेकिन जनता काला झंडा दिखा सकती है या विरोध में काला बैज पहन सकती है. हालांकि इसमें भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने का जिक्र किया गया है.

यह कहते हुए कि यह न तो बातचीत का विरोध करता है और न ही जुझारू सशस्त्र संगठन ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर असम के लिए संप्रभुता की बहाली पर चर्चा की मांग की. कहा कि अगर भारतीय संविधान में इतनी बार संशोधन किया जा सकता है, तो चर्चा के दायरे में संप्रभुता को शामिल क्यों नहीं किया जा सकता है.

स्पष्ट है कि उल्फा (आई) कमजोरी की स्थिति से बात कर रहा है. संगठनात्मक अव्यवस्था की इस स्थिति के कई प्राथमिक कारण हैं. सबसे पहले, पिछले दो महीनों में यह कई प्रमुख नेताओं के परित्याग की चपेट में आ गया है. जिसमें जिबोन मोरन और मोंटू सैकिया जैसे अनुभवी गुरिल्ला लड़ाके शामिल हैं. जिन्होंने इसे एक दिन छोड़ने का फैसला किया और माना जाता है कि वे असम से बाहर जा चुके हैं. संभवतः म्यांमार के नागा बहुल सागिंग क्षेत्र के जंगल शिविरों में.

दूसरा, उल्फा (आई) का वित्त बहुत खराब स्थिति में है. न केवल प्रावधानों और हथियारों के साथ एक उग्रवाद को वित्तपोषित करने के बारे में बल्कि शिविरों में कैडरों को भोजन उपलब्ध कराने के बारे में भी हालात खराब हैं. यह भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा एक प्रभावी काउंटर-इंसर्जेंसी ग्रिड के कारण हुआ है, जिसने धन के स्रोत को काटने पर ध्यान केंद्रित किया था.

तीसरा, 29 जनवरी और 16 मई 2019 को म्यांमार की सेना या टाटामाड द्वारा तागा के पास संयुक्त पूर्वोत्तर भारतीय विद्रोही मुख्यालय पर किए गए हमलों ने उल्फा (आई), खापलांग गुट की क्षमताओं, संगठनात्मक रसद और एकजुटता को प्रमुख रूप से प्रभावित किया था. मणिपुर के नागा और मैतेई विद्रोहियों की जो कभी सभी समूहों का संयुक्त मुख्यालय हुआ करता था, वह अचानक हुए हमले में पूरी तरह से चकनाचूर हो गया है.

चौथा, भारतीय सेना द्वारा टाटामाड के साथ निकट समन्वय में एक सैन्य-राजनयिक प्रयास सभी पक्षों से पूर्वोत्तर विद्रोही समूहों पर दबाव बनाने में सफल रहा है. जबकि म्यांमार में सैन्य जुंटा द्वारा फरवरी 2021 के तख्तापलट ने परिस्थितियों को कुछ हद तक बदल दिया है, पूर्वोत्तर विद्रोहियों को नुकसान पहले ही हो चुका था.

परेश बरुआ के नेतृत्व में, जो चीन-म्यांमार सीमा पर स्थित माना जाता है, उल्फा (आई) में भारत-म्यांमार सीमा के पास जंगलों में कई शिविरों में लगभग 150 लड़ाके शामिल हैं. जबकि बरुआ के नेतृत्व वाला गुट अभी भी एक स्वतंत्र असम चाहता है.

यह भी पढ़ें-क्या बातचीत के लिए एक मेज पर आएंगे सरकार और उल्फा गुट ?

सरकार और अरबिंद राजखोवा के नेतृत्व वाले उल्फा के एक गुट के बीच एक दशक पुरानी बातचीत प्रक्रिया अब तक कुछ भी हासिल करने में विफल रही है, जिससे कई लोगों में थकान की भावना पैदा हो गई है.

नई दिल्ली : अतीत में हर साल एक ईमेल संदेश प्रतिबंधित परेश बरुआ के नेतृत्व वाले यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा-इंडिपेंडेंट) से आता था, जिसमें आगामी स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के बंद या बहिष्कार के आह्वान की घोषणा की जाती थी. लेकिन यह वर्ष अपवाद रहा है.

बुधवार (11 अगस्त) को प्राप्त एक ईमेल में प्रतिबंधित संगठन ने कहा कि उसने इस साल हिंसक विरोध या बंद का आह्वान नहीं किया है, लेकिन जनता काला झंडा दिखा सकती है या विरोध में काला बैज पहन सकती है. हालांकि इसमें भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने का जिक्र किया गया है.

यह कहते हुए कि यह न तो बातचीत का विरोध करता है और न ही जुझारू सशस्त्र संगठन ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर असम के लिए संप्रभुता की बहाली पर चर्चा की मांग की. कहा कि अगर भारतीय संविधान में इतनी बार संशोधन किया जा सकता है, तो चर्चा के दायरे में संप्रभुता को शामिल क्यों नहीं किया जा सकता है.

स्पष्ट है कि उल्फा (आई) कमजोरी की स्थिति से बात कर रहा है. संगठनात्मक अव्यवस्था की इस स्थिति के कई प्राथमिक कारण हैं. सबसे पहले, पिछले दो महीनों में यह कई प्रमुख नेताओं के परित्याग की चपेट में आ गया है. जिसमें जिबोन मोरन और मोंटू सैकिया जैसे अनुभवी गुरिल्ला लड़ाके शामिल हैं. जिन्होंने इसे एक दिन छोड़ने का फैसला किया और माना जाता है कि वे असम से बाहर जा चुके हैं. संभवतः म्यांमार के नागा बहुल सागिंग क्षेत्र के जंगल शिविरों में.

दूसरा, उल्फा (आई) का वित्त बहुत खराब स्थिति में है. न केवल प्रावधानों और हथियारों के साथ एक उग्रवाद को वित्तपोषित करने के बारे में बल्कि शिविरों में कैडरों को भोजन उपलब्ध कराने के बारे में भी हालात खराब हैं. यह भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा एक प्रभावी काउंटर-इंसर्जेंसी ग्रिड के कारण हुआ है, जिसने धन के स्रोत को काटने पर ध्यान केंद्रित किया था.

तीसरा, 29 जनवरी और 16 मई 2019 को म्यांमार की सेना या टाटामाड द्वारा तागा के पास संयुक्त पूर्वोत्तर भारतीय विद्रोही मुख्यालय पर किए गए हमलों ने उल्फा (आई), खापलांग गुट की क्षमताओं, संगठनात्मक रसद और एकजुटता को प्रमुख रूप से प्रभावित किया था. मणिपुर के नागा और मैतेई विद्रोहियों की जो कभी सभी समूहों का संयुक्त मुख्यालय हुआ करता था, वह अचानक हुए हमले में पूरी तरह से चकनाचूर हो गया है.

चौथा, भारतीय सेना द्वारा टाटामाड के साथ निकट समन्वय में एक सैन्य-राजनयिक प्रयास सभी पक्षों से पूर्वोत्तर विद्रोही समूहों पर दबाव बनाने में सफल रहा है. जबकि म्यांमार में सैन्य जुंटा द्वारा फरवरी 2021 के तख्तापलट ने परिस्थितियों को कुछ हद तक बदल दिया है, पूर्वोत्तर विद्रोहियों को नुकसान पहले ही हो चुका था.

परेश बरुआ के नेतृत्व में, जो चीन-म्यांमार सीमा पर स्थित माना जाता है, उल्फा (आई) में भारत-म्यांमार सीमा के पास जंगलों में कई शिविरों में लगभग 150 लड़ाके शामिल हैं. जबकि बरुआ के नेतृत्व वाला गुट अभी भी एक स्वतंत्र असम चाहता है.

यह भी पढ़ें-क्या बातचीत के लिए एक मेज पर आएंगे सरकार और उल्फा गुट ?

सरकार और अरबिंद राजखोवा के नेतृत्व वाले उल्फा के एक गुट के बीच एक दशक पुरानी बातचीत प्रक्रिया अब तक कुछ भी हासिल करने में विफल रही है, जिससे कई लोगों में थकान की भावना पैदा हो गई है.

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