नई दिल्ली: अंग्रेजी हुकुमत से बगावत का परचम बुलंद करने वालों में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की कहानी आज भी लोगों को प्रेरणा देती है. वो बादशाह थे, वो चाहते तो अंग्रेजों से न सिर्फ उनकी बादशाही कायम रखवा लेते और पीढ़ियों से चला आ रहा रुतबा, रुबाब भी बरकरार रहता, लेकिन बहादुर शाह जफर ने मुश्किल रास्ता चुना जो देश की आजादी के सपने को पूरा करने का था.
जाहिर है इसे अंग्रेजों ने अपने खिलाफ बगावत का रास्ता माना और जुल्म-ओ-सितम की वो इंतेहा कर दी कि आज भी उनकी कहानी सुनते हुए रोंगटे खड़े हो जाया करते हैं. अपने मिजाज में शायरी कैफियत रखने वाले बहादुर शाह जफर की उम्र का आखिरी पड़ाव अंग्रेजों से जूझते हुए ही गुजरा. बादशाही शान-ओ-शौकत छोड़कर जेल में रहते हुए बहादुर शाह जफर पर इतना जुल्म किया गया कि जब उन्हें भूख लगी तो अंग्रेजों ने उनके बेटों के सिर काट कर थाली में परोस दिए. अपने बेटों को वतन पर कुर्बान करने वाले ऐसे पिता की दास्तान बताती है कि उन दिनों में आजादी के दीवानों के दिल में आजादी का मतलब क्या था, आजादी के मायने क्या थे.
24 अक्टूबर 1775 को जन्मे बहादुर शाह जफर 82 साल के थे जब वे अंग्रेजों से लड़ने वाले बागी सैनिकों का नेतृत्व स्वीकार किया था. उनके पिता अकबर शाह द्वितीय और मां लालबाई थीं. अपने पिता की मृत्यु के बाद जफर 18 सितंबर 1837 में मुगल बादशाह बने. उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र के सम्राट रह गये थे. मैरठ के सैनिकों ने बगावत के बाद उन्हें अपना नेता चुना और उनकी ताजपोशी की. हालांकि अंग्रेजों की कूटनीति की वजह से ये संग्राम जल्द ही समाप्त हो गया और उनके हाथ से दिल्ली तुरंत ही निकल गई. जफर को हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी. अंग्रेज अधिकारी विलियम हडसन ने षडयंत्रपूर्वक उन्हें गिरफ्तार कर लिया.
अंग्रेजों ने जफर के खिलाफ राजद्रोह और हत्याओं के आरोप लगाए. 27 जनवरी 1858 से लेकर 09 मार्च 1858 तक यानी करीब 40 दिन उनके ऊपर मुकदमा चला. जिसके बाद उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया. हालांकि इतिहासकार बताते हैं इसकी पीछे की वजह ये थी कि अगर उनके हिंदुस्तान में रखा जाता तो वे विद्रोह का केंद्र बन सकते थे.
निर्वासन के दिनों में उनके पास तकलीफें बयां करने का एक ही माध्यम उनके पास था और वो थी शायरी, लेकिन अंग्रेजों ने जेल में उन्हें कलम, रौशनाई और कागज तक के लिए तरसाया. तब जफर ने ईंटों के रोड़ों को कलम और दीवारों को कागज बनाकर अपनी गजलें लिखीं. बहादुर शाह ज़फर अपने देश से बहुत मोहब्बत करते थे. उनकी आखिरी ख्बाहिश थी कि उन्हें महरौली स्थित जफर महल में ही दफनाया जाए, लेकिन ऐसा न हो सका. 7 नवम्बर 1862 को रंगून के कैदखाने में ही उनका इंतकाल हो गया और उन्हें वहीं रंगून के ही एक कब्रिस्तान में दफन कर दिया गया.
अंग्रेजों को इस बात का डर था कि उनकी मौत की खबर अगर हिंदुस्तान में फैल गई तो एक बार फिर बगावत भड़क सकती है. इसलिए उन्हें दफनाने की सभी रस्में गुप्त तरीके से निभाई गईं. 1907 में जफर की कब्र को चिह्नित कर वहां शिलालेख लगाया गया, लेकिन 1991 में खुदाई के वक्त पता चला कि वास्तविक कब्र वहां से 25 फीट दूर थी. अब लोग उसे जफर की दरगाह कहते हैं और म्यामांर में जफर से जुड़े स्थलों की देखरेख बहादुर शाह म्यूजियम कमेटी करती है.
बहादुर शाह जफर का नाम हिंदुस्तान में बहुत अदब से लिया जाता है. दिल्ली में उनके नाम पर कई सड़कें और पार्क हैं तो वहीं पाकिस्तान के लाहौर में भी उनके नाम पर सड़क है. बांग्लादेश ने ढाका के विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया है. एक बादशाह की अपने वतन के लिए इस तरह मर मिटने की ये दास्तान, शायद ही कहीं और मिले. ईटीवी अपनी विशेष सीरीज में ऐसे ही वतन परस्तों को याद कर रहा है, जिनकी बदौलत आज हम जश्न-ए-आजादी मना रहे हैं.
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