सिरोही : ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की मुखिया राजयोगिनी दादी हृदयमोहिनी के पार्थिव शरीर को एयर एंबुलेंस से शांतिवन लाया गया. अंतिम संस्कार संस्थान के शांतिवन में 13 मार्च को किया जाएगा. दादी के निधन पर राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने शोक व्यक्त करते हुए भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी है.
ब्रह्माकुमारीज के सूचना निदेशक बीके करुणा ने बताया कि राजयोगिनी दादी हृदयमोहिनी का स्वास्थ्य कुछ समय से ठीक नहीं चल रहा था. मुम्बई के सैफी हॉस्पिटल में उनका इलाज चल रहा था. दीदी के निधन की सूचना पर संस्थान के भारत सहित विश्व के 140 देशों में स्थित सेवा केन्द्रों पर शोक की लहर दौड़ गई. साथ ही ब्रह्माकुमारीज के आगामी कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया गया है.
वर्ष 1928 में कराची में हुआ था जन्म
दादी हृदयमोहिनी के बचपन का नाम शोभा था. उनका जन्म वर्ष 1928 में कराची में हुआ था. वे जब 8 वर्ष की थीं तब संस्था के साकार संस्थापक ब्रह्मा बाबा के ओम निवास बोर्डिंग स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया.
यहां उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की. स्कूल में बाबा और संस्थान की प्रथम मुख्य प्रशासिका के स्नेह, प्यार और दुलार ने इतना प्रभावित किया कि छोटी सी उम्र में ही अपना जीवन उनके समान बनाने की निश्चय किया.
चौथी कक्षा तक की थी पढ़ाई
दादी हृदयमोहिनी ने मात्र चौथी कक्षा तक ही पढ़ाई की थी. लेकिन तीक्ष्ण बुद्धि होने से वे जब भी ध्यान में बैठतीं तो शुरुआत के समय से ही दिव्य अनुभूतियां होने लगीं. यहां तक कि उन्हें कई बार ध्यान के दौरान दिव्य आत्माओं के साक्षात्कार हुए. जिनका जिक्र उन्होंने ध्यान के बाद ब्रह्मा बाबा और अपनी साथी बहनों से भी किया.
सादगी, सरलता और सौम्यता की थीं मिसाल
दादी का पूरा जीवन सादगी, सरलता और सौम्यता की मिसाल रहा. बचपन से ही विशेष योग-साधना के चलते दादी का व्यक्तित्व इतना दिव्य हो गया था कि उनके संपर्क में आने वाले लोगों को उनकी तपस्या और साधना की अनुभूति होती थी. उनके चेहरे पर तेज का आभामंडल उनकी तपस्या की कहानी साफ बयां करता था.
1969 में ब्रह्मा बाबा के निधन के बाद बनीं परमात्म दूत
18 जनवरी 1969 में संस्था के संस्थापक ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने के बाद परमात्म आदेशानुसार दादी हृदयमोहिनी ने परमात्मा संदेशवाहक और दूत बनकर लोगों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान और दिव्य प्रेरणा देने की भूमिका निभाई.
दादीजी ने 2016 तक संस्थान के मुख्यालय माउंट आबू में हर वर्ष आने वाले लाखों भाई-बहनों के लिए परमात्मा का दिव्य संदेश देकर योग-तपस्या बढ़ाने के लिए प्रेरित किया. एक बार चर्चा के दौरान दादीजी ने बताया था कि जब मैं मन की शक्ति से वतन में जाती हूं, तो आत्मा तो शरीर में रहती है, लेकिन मुझे इस शरीर का भान नहीं रहता. उस दौरान उच्चारित वचन मुझे भी याद नहीं रहते.
बाबा से दादीजी को हुए थे साक्षात्कार
एक साक्षात्कार के दौरान दादी ने बताया था कि जब वह 9 वर्ष की थीं और अपने मामा के यहां गईं थीं. तभी उनके घर ब्रह्मा बाबा का आना हुआ. यहां बाबा से उन्हें दिव्य साक्षात्कार हुआ था. बाबा हम बच्चों का इतना ख्याल रखते थे कि खुद अपने हाथ से दूध में काजू-बादाम डालकर खिलाते थे. बाबा का प्यार, स्नेह इतना मिला कि कभी भी लौकिक मां-बाप की याद नहीं आई.
14 साल तक हैदराबाद में रहकर की कठिन साधना
दादी हृदयमोहिनी ने 14 वर्ष तक बाबा के सानिध्य में रहकर कठिन योग-साधना की. इन वर्षों में खाने-पीने को छोड़कर दिन-रात योग साधना में वह लगी रहती थीं. इसके साथ ही बाबा एक-एक सप्ताह का मौन कराते थे. तभी से दादी का स्वभाव बन गया था कि जितना काम हो उतना ही बात करती थीं. अंत समय तक वह मौन में रहीं.
नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय ने प्रदान की डिग्री
राजयोगिनी दादी हृदयमोहिनी को नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय, बारीपाड़ा ने डी लिट की उपाधि से विभूषित किया. दादी को यह उपाधि उड़ीसा में प्रभु के संदेशवाहक के रूप में लोगों में आध्यात्मिकता का प्रचार-प्रसार करने और समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान पर प्रदान की गई.
प्रात:काल से शुरू होता था ध्यान साधना का दौर
ब्रह्माकुमारी नीलू बहन ने बताया कि दादी हमेशा तीन बजे ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाती थीं. इसके साथ ही उनकी दिनचर्या की शुरुआत साधना के साथ होती थी. यहां तक कि चलते-फिरते, खाते-पीते ईश्वर के ध्यान में मग्न रहतीं.