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छह दशक में तिब्बत से अधिक भारत के हो गए दलाई लामा, मजबूत हुआ भरोसे का पुल - 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो

14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो आज यानी 6 जुलाई को 86 साल के हो गए हैं. विश्व भर में सम्मानित दलाई लामा 31 मार्च 1959 को अपनी मिट्टी से अलग होकर भारत आए थे. उन्हें भारत में रहते हुए छह दशक से अधिक समय हो गया है. बौद्ध धर्म की जिज्ञासा रखने वालों में तो दलाई लामा लोकप्रिय हैं ही, भारत की जनता भी इस धर्मगुरु के आध्यात्मिक प्रकाश से लाभ लेने की इच्छुक रहती है.

14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो
14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो
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Published : Jul 6, 2021, 8:44 AM IST

शिमला: चीन की विस्तारवादी क्रूर सोच से त्रस्त होकर दलाई लामा ने जब भारत में शरण लेने का निर्णय लिया, तो उनके अंतर्मन में केवल और केवल एक ही शब्द गूंज रहा था, और ये शब्द था भरोसा. दलाई लामा और उनके अनुयायियों का भारत वास छह दशक से अधिक के अंतराल में फैला है. अब दलाई लामा और भारत को अलग-अलग होकर नहीं देख सकते? इस अवधि में दलाई लामा तिब्बत से अधिक भारत के हो गए हैं. भारत-तिब्बत मैत्री में भरोसे का ये पुल लगातार मजबूत हुआ है.

बौद्ध धर्म की जिज्ञासा रखने वालों में तो दलाई लामा लोकप्रिय हैं ही, भारत की जनता भी इस धर्मगुरु के आध्यात्मिक प्रकाश से लाभ लेने की इच्छुक रहती है. इन्हीं दलाई लामा का मंगल के दिन मंगल जन्मदिवस मनाया जा रहा है. यहां आग के शब्दों में दलाई लामा, भारत, तिब्बत और खासकर हिमाचल के साथ उनके रिश्तों की पड़ताल का प्रयास किया जा रहा है.

थैंक्यू इंडिया के 22 हजार से अधिक दिवस

चीन की दमनकारी नीतियों से अपनी मिट्टी छोड़ने के लिए मजबूर हुए दलाई लामा अपने कुछ अनुयायियों के साथ भारत आए. कठिन समय में जिस भरोसे के साथ धर्मगुरु दलाई लामा भारत आए, वो भरोसा उनके भारत प्रवास के दौरान दिन प्रति दिन मजबूत हुआ है. दलाई लामा को भारत में शरण लिए 22 हजार से अधिक दिन हो गए हैं. तिब्बती समुदाय के लोग थैंक्यू इंडिया कहते हैं. कहा जा सकता है कि तिब्बत के निवासियों के लिए थैंक्यू इंडिया के 22 हजार से अधिक दिवस हो गए हैं.

भारत ने इस पावन मेहमान को बिठाया है पलक-पांवड़ों पर

इस समुदाय के लोग भारत भर में फैले हैं, लेकिन सभी का खास लगाव धर्मशाला से है. यथा नाम, तथा गुण के तौर पर धर्मशाला ने तिब्बत को अपने यहां रखा है, जैसे थके हुए मुसाफिर धर्मशाला में शरण लेते हैं. भारत ने भी इस पावन मेहमान को पलक-पांवड़ों पर बिठाया है. देश-विदेश से श्रद्धालु दलाई लामा का संग हासिल करने को धर्मशाला आते हैं. देश या विदेश के किसी भी कोने की यात्रा करने के बाद दलाई लामा जब धर्मशाला लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए कतार में खड़े तिब्बती लोगों के साथ स्थानीय निवासी भी आदर से गुरुजी-गुरुजी बुदबुदाते हैं.

नोबल पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं दलाई लामा

विश्व भर में सम्मानित दलाई लामा 31 मार्च 1959 को अपनी मिट्टी से अलग होकर भारत आए थे. भारत आए हुए दलाई लामा को साठ साल से अधिक का समय हो गया है. दलाई लामा और उनके अनुयायी बेशक अपनी मिट्टी से दूर हैं, लेकिन भारत की मिट्टी ने उन्हें आदर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. दलाई लामा भारत में कर्म कर रहे हैं और विश्व शांति के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. वहीं, समय-समय पर हिमाचल सहित भारत के कई हिस्सों से दलाई लामा को भारत रत्न सम्मान दिए जाने का भी आग्रह किया जा रहा है.

चीन ने नहीं पढ़ा नेहरू के पंचशील का पाठ

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू विस्तारवादी चीन को पंचशील का पाठ पढ़ाने के लिए उत्सुक थे. चीन को ये पाठ समझ नहीं आया और न ही उसका इरादा इस पाठ को पढ़ने का था. चीन का मानना है कि तिब्बत शुरू से ही उसका हिस्सा है. चीन से युद्ध से पहले ही तनावपूर्ण माहौल में दलाई लामा 1959 में भारत आ गए थे. उन्हें भारत ने अपना लिया और दलाई लामा भी भारत में शरण लेकर खुद को यहां की धरती का ऋणि समझते हैं. दलाई लामा को शरण देने के कारण भारत और चीन के संबंधों में कड़वाहट बरकरार रहती है. भारत ने चीन को पंचशील का पाठ पढ़ाना चाहा, लेकिन चीन ने भारत को 1962 के जख्म दिए. उसके बाद से भी चीन दलाई लामा की गतिविधियों को लेकर समय-समय पर भारत को आंखें दिखाने की कोशिश करता रहता है.

चौदहवें दलाई लामा और भारत-तिब्बत संबंध

दलाई लामा के नाम से मशहूर तिब्बतियों के धर्मगुरु का पूरा नाम तेनजिन ग्यात्सो है. उनका जन्म जुलाई माह की छह तारीख को वर्ष 1935 में तिब्बत में हुआ. तेनजिन को 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो का अवतार माना जाता है. तिब्बतियों की आध्यात्मिक परंपरा के अनुसार ही 14वें दलाई लामा को पूर्व के संकेतों के माध्यम से पहचान लिया गया था. उसके बाद तेनजिन को पोटाला राजमहल में ले जाया गया. यहां उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई. बदलती परिस्थितियों में पचास के दशक में चीन व तिब्बत के बीच तनातनी शुरू हुई. विस्तारवादी सोच के मुल्क चीन के सैनिकों ने तिब्बत को अपने शिकंजे में लेना शुरू किया. माहौल जब तनावपूर्ण होने लगा तो भविष्य के खतरे को भांपते हुए दलाई लामा के शुभचिंतकों ने उन्हें ल्हासा से निकलने की राय दी.

कुलदीप नायर ने अपने एक लेख में किया है रोचक परिस्थितियों का वर्णन

सारी स्थितियों पर विचार करने के बाद वे अपने करीबियों व अन्य तिब्बतियों के साथ भारत में शरण लेने के लिए आए. उस समय की रोचक परिस्थितियों का वर्णन कुलदीप नायर ने अपने एक लेख में किया है. खैर, दलाई लामा कलिंपोंग व तवांग के बाद हिमाचल के धर्मशाला में स्थित मैक्लोडगंज में रहने लगे. यहीं से उनकी गतिविधियां चलने लगीं. तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय भी यहीं है. साठ साल में तिब्बती मूल के लोग हिमाचल के धर्मशाला, शिमला, सोलन सहित देश के अन्य हिस्सों में रहने और छोटा मोटा व्यापार करने लगे.

धर्मशाला में है तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक गुरु का निवास

कर्नाटक में बहुत अधिक संख्या में तिब्बती रहते हैं, लेकिन जो स्थान धर्मशाला को हासिल है, वो किसी को नहीं. कारण ये है कि धर्मशाला में तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक गुरु का निवास है. दलाई लामा के साथ ही जिस शख्स को समूची दुनिया जानती है, वे निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री रहे सामदोंग रिन्पोचे हैं. वे कई भाषाओं के ज्ञाता व अद्वितीय विद्वान हैं. साथ ही दलाई लामा के निजी चिकित्सक रहे यशी धौंडेन भी देश-विदेश में एक परिचित नाम रहे हैं. यशी धौंडेन तिब्बती पद्धति से जटिल रोगों का इलाज करने के लिए मशहूर रहे हैं. वे अब देह त्याग चुके हैं. कैंसर रोगियों को ठीक करने में उन्होंने बहुत योगदान दिया. वे तिब्बती चिकित्सा के मर्मज्ञ विद्वान थे.

अब भारत और हिमाचल के ही होते जा रहे तिब्बती

तिब्बतियों को भारत में रहते हुए साठ साल से अधिक का समय हो रहा है. हिमाचल में धर्मशाला, शिमला, कांगड़ा, सोलन सहित कई स्थानों में तिब्बती लोग रहते हैं. कभी-कभार तिब्बतियों का स्थानीय लोगों के साथ छिटपुट तनाव जरूर होता आया है, लेकिन आपसी विश्वास कभी नहीं टूटा. ये बात अलग है कि यहां नब्बे के दशक में एक गद्दी युवा की हत्या से माहौल खराब हुआ था. तब दलाई लामा को स्थानीय लोगों ने भरोसा दिलाया था कि आपसी रिश्ते में तनाव को स्थान नहीं बनाने दिया जाएगा.

नई पीढ़ी के मन में तिब्बत की अनदेखी तस्वीर

इस समय तिब्बती समुदाय के लोग हिमाचल के कई शहरों में अपना कारोबार करते हैं. तिब्बतियों के मठों में प्रार्थनाएं होती हैं और स्थानीय लोग उनमें शामिल होते हैं. एक पूरी पीढ़ी भारत में जन्म लेकर युवा हो चुकी है. सैंकड़ों तिब्बती लोगों के नाम वोटर लिस्ट में हैं. नई पीढ़ी के मन में तिब्बत की अनदेखी तस्वीर है, परंतु अधिकांश युवा हिमाचल व भारत के अन्य हिस्सों में रहकर खुश हैं. हिमाचल में भारत-तिब्बत के बीच अच्छे संबंधों की पैरवी करने वाली संस्थाएं भी हैं. तिब्बती मूल के लोगों ने दलाई लामा जैसी पावन हस्ती के संपर्क में रहते हुए उस देश के प्रति कृतज्ञ होना सीखा है, जिस देश ने उन्हें मुसीबत के समय शरण दी.

समय-समय पर तिब्बत के लोग आयोजित करते हैं थैंक्यू इंडिया कार्यक्रम

दलाई लामा भारत को बड़ा भाई और गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं. ये सही है कि चीन के साथ भारत के संबंधों में दलाई लामा को लेकर कड़वाहट पलती रही है, लेकिन भारत ने भी शरणागत के प्रति अपना धर्म निभाया है. तिब्बती लोगों को यहां की खुली हवा में सांस लेते देखकर भारतवासी भी शरणागत की रक्षा के अपने सूत्र पर गर्व करते हैं. धर्मशाला में हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु दलाई लामा के वचन सुनने के लिए आते हैं. कभी दलाई लामा की सेहत को लेकर चिंता होती है तो तिब्बतियों सहित हिमाचल व भारत के अनेक लोगों के हाथ प्रार्थना के लिए उठते हैं. समय-समय पर तिब्बत के लोग धर्मशाला में थैंक्यू इंडिया कार्यक्रम का आयोजन होता है. तिब्बत के लोग ऐसे आयोजनों में भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं. विगत में भारत की सरकार ने भी चीन के दबाव के बावजूद इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने का फैसला लिया था.

पढ़ें: 14वें बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा का आज 86वां जन्मदिन

वंचितों की सेवा में लीन तिब्बती युवा

तिब्बत के कई युवा हिमाचल सहित भारत भर में सेवा यज्ञ में भी आहूति डाल रहे हैं. टेड कुंचुक, पैंपा सहित युवतियां अपने सोशल मीडिया अकाउंट के जरिए सेवा कार्य कर रहे हैं. ये युवा जरूरतमंदों की कई तरीके से मदद करते हैं. उनके ब्लॉग में ऐसे सेवाकार्यों के उदाहरण दिखते हैं. दरअसल, ये युवा दलाई लामा के करुणा के उपदेश को सार्थक कर रहे हैं. नई पीढ़ी के मन में बेशक अपनी भूमि के लिए वैसी टीस न हो, जैसी पलायन करके आई पीढ़ी के मन में रही, परंतु भारत में ही उन्होंने तिब्बत की मिट्टी की खुशबू तलाश कर ली है.

शिमला: चीन की विस्तारवादी क्रूर सोच से त्रस्त होकर दलाई लामा ने जब भारत में शरण लेने का निर्णय लिया, तो उनके अंतर्मन में केवल और केवल एक ही शब्द गूंज रहा था, और ये शब्द था भरोसा. दलाई लामा और उनके अनुयायियों का भारत वास छह दशक से अधिक के अंतराल में फैला है. अब दलाई लामा और भारत को अलग-अलग होकर नहीं देख सकते? इस अवधि में दलाई लामा तिब्बत से अधिक भारत के हो गए हैं. भारत-तिब्बत मैत्री में भरोसे का ये पुल लगातार मजबूत हुआ है.

बौद्ध धर्म की जिज्ञासा रखने वालों में तो दलाई लामा लोकप्रिय हैं ही, भारत की जनता भी इस धर्मगुरु के आध्यात्मिक प्रकाश से लाभ लेने की इच्छुक रहती है. इन्हीं दलाई लामा का मंगल के दिन मंगल जन्मदिवस मनाया जा रहा है. यहां आग के शब्दों में दलाई लामा, भारत, तिब्बत और खासकर हिमाचल के साथ उनके रिश्तों की पड़ताल का प्रयास किया जा रहा है.

थैंक्यू इंडिया के 22 हजार से अधिक दिवस

चीन की दमनकारी नीतियों से अपनी मिट्टी छोड़ने के लिए मजबूर हुए दलाई लामा अपने कुछ अनुयायियों के साथ भारत आए. कठिन समय में जिस भरोसे के साथ धर्मगुरु दलाई लामा भारत आए, वो भरोसा उनके भारत प्रवास के दौरान दिन प्रति दिन मजबूत हुआ है. दलाई लामा को भारत में शरण लिए 22 हजार से अधिक दिन हो गए हैं. तिब्बती समुदाय के लोग थैंक्यू इंडिया कहते हैं. कहा जा सकता है कि तिब्बत के निवासियों के लिए थैंक्यू इंडिया के 22 हजार से अधिक दिवस हो गए हैं.

भारत ने इस पावन मेहमान को बिठाया है पलक-पांवड़ों पर

इस समुदाय के लोग भारत भर में फैले हैं, लेकिन सभी का खास लगाव धर्मशाला से है. यथा नाम, तथा गुण के तौर पर धर्मशाला ने तिब्बत को अपने यहां रखा है, जैसे थके हुए मुसाफिर धर्मशाला में शरण लेते हैं. भारत ने भी इस पावन मेहमान को पलक-पांवड़ों पर बिठाया है. देश-विदेश से श्रद्धालु दलाई लामा का संग हासिल करने को धर्मशाला आते हैं. देश या विदेश के किसी भी कोने की यात्रा करने के बाद दलाई लामा जब धर्मशाला लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए कतार में खड़े तिब्बती लोगों के साथ स्थानीय निवासी भी आदर से गुरुजी-गुरुजी बुदबुदाते हैं.

नोबल पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं दलाई लामा

विश्व भर में सम्मानित दलाई लामा 31 मार्च 1959 को अपनी मिट्टी से अलग होकर भारत आए थे. भारत आए हुए दलाई लामा को साठ साल से अधिक का समय हो गया है. दलाई लामा और उनके अनुयायी बेशक अपनी मिट्टी से दूर हैं, लेकिन भारत की मिट्टी ने उन्हें आदर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. दलाई लामा भारत में कर्म कर रहे हैं और विश्व शांति के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. वहीं, समय-समय पर हिमाचल सहित भारत के कई हिस्सों से दलाई लामा को भारत रत्न सम्मान दिए जाने का भी आग्रह किया जा रहा है.

चीन ने नहीं पढ़ा नेहरू के पंचशील का पाठ

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू विस्तारवादी चीन को पंचशील का पाठ पढ़ाने के लिए उत्सुक थे. चीन को ये पाठ समझ नहीं आया और न ही उसका इरादा इस पाठ को पढ़ने का था. चीन का मानना है कि तिब्बत शुरू से ही उसका हिस्सा है. चीन से युद्ध से पहले ही तनावपूर्ण माहौल में दलाई लामा 1959 में भारत आ गए थे. उन्हें भारत ने अपना लिया और दलाई लामा भी भारत में शरण लेकर खुद को यहां की धरती का ऋणि समझते हैं. दलाई लामा को शरण देने के कारण भारत और चीन के संबंधों में कड़वाहट बरकरार रहती है. भारत ने चीन को पंचशील का पाठ पढ़ाना चाहा, लेकिन चीन ने भारत को 1962 के जख्म दिए. उसके बाद से भी चीन दलाई लामा की गतिविधियों को लेकर समय-समय पर भारत को आंखें दिखाने की कोशिश करता रहता है.

चौदहवें दलाई लामा और भारत-तिब्बत संबंध

दलाई लामा के नाम से मशहूर तिब्बतियों के धर्मगुरु का पूरा नाम तेनजिन ग्यात्सो है. उनका जन्म जुलाई माह की छह तारीख को वर्ष 1935 में तिब्बत में हुआ. तेनजिन को 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो का अवतार माना जाता है. तिब्बतियों की आध्यात्मिक परंपरा के अनुसार ही 14वें दलाई लामा को पूर्व के संकेतों के माध्यम से पहचान लिया गया था. उसके बाद तेनजिन को पोटाला राजमहल में ले जाया गया. यहां उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई. बदलती परिस्थितियों में पचास के दशक में चीन व तिब्बत के बीच तनातनी शुरू हुई. विस्तारवादी सोच के मुल्क चीन के सैनिकों ने तिब्बत को अपने शिकंजे में लेना शुरू किया. माहौल जब तनावपूर्ण होने लगा तो भविष्य के खतरे को भांपते हुए दलाई लामा के शुभचिंतकों ने उन्हें ल्हासा से निकलने की राय दी.

कुलदीप नायर ने अपने एक लेख में किया है रोचक परिस्थितियों का वर्णन

सारी स्थितियों पर विचार करने के बाद वे अपने करीबियों व अन्य तिब्बतियों के साथ भारत में शरण लेने के लिए आए. उस समय की रोचक परिस्थितियों का वर्णन कुलदीप नायर ने अपने एक लेख में किया है. खैर, दलाई लामा कलिंपोंग व तवांग के बाद हिमाचल के धर्मशाला में स्थित मैक्लोडगंज में रहने लगे. यहीं से उनकी गतिविधियां चलने लगीं. तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय भी यहीं है. साठ साल में तिब्बती मूल के लोग हिमाचल के धर्मशाला, शिमला, सोलन सहित देश के अन्य हिस्सों में रहने और छोटा मोटा व्यापार करने लगे.

धर्मशाला में है तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक गुरु का निवास

कर्नाटक में बहुत अधिक संख्या में तिब्बती रहते हैं, लेकिन जो स्थान धर्मशाला को हासिल है, वो किसी को नहीं. कारण ये है कि धर्मशाला में तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक गुरु का निवास है. दलाई लामा के साथ ही जिस शख्स को समूची दुनिया जानती है, वे निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री रहे सामदोंग रिन्पोचे हैं. वे कई भाषाओं के ज्ञाता व अद्वितीय विद्वान हैं. साथ ही दलाई लामा के निजी चिकित्सक रहे यशी धौंडेन भी देश-विदेश में एक परिचित नाम रहे हैं. यशी धौंडेन तिब्बती पद्धति से जटिल रोगों का इलाज करने के लिए मशहूर रहे हैं. वे अब देह त्याग चुके हैं. कैंसर रोगियों को ठीक करने में उन्होंने बहुत योगदान दिया. वे तिब्बती चिकित्सा के मर्मज्ञ विद्वान थे.

अब भारत और हिमाचल के ही होते जा रहे तिब्बती

तिब्बतियों को भारत में रहते हुए साठ साल से अधिक का समय हो रहा है. हिमाचल में धर्मशाला, शिमला, कांगड़ा, सोलन सहित कई स्थानों में तिब्बती लोग रहते हैं. कभी-कभार तिब्बतियों का स्थानीय लोगों के साथ छिटपुट तनाव जरूर होता आया है, लेकिन आपसी विश्वास कभी नहीं टूटा. ये बात अलग है कि यहां नब्बे के दशक में एक गद्दी युवा की हत्या से माहौल खराब हुआ था. तब दलाई लामा को स्थानीय लोगों ने भरोसा दिलाया था कि आपसी रिश्ते में तनाव को स्थान नहीं बनाने दिया जाएगा.

नई पीढ़ी के मन में तिब्बत की अनदेखी तस्वीर

इस समय तिब्बती समुदाय के लोग हिमाचल के कई शहरों में अपना कारोबार करते हैं. तिब्बतियों के मठों में प्रार्थनाएं होती हैं और स्थानीय लोग उनमें शामिल होते हैं. एक पूरी पीढ़ी भारत में जन्म लेकर युवा हो चुकी है. सैंकड़ों तिब्बती लोगों के नाम वोटर लिस्ट में हैं. नई पीढ़ी के मन में तिब्बत की अनदेखी तस्वीर है, परंतु अधिकांश युवा हिमाचल व भारत के अन्य हिस्सों में रहकर खुश हैं. हिमाचल में भारत-तिब्बत के बीच अच्छे संबंधों की पैरवी करने वाली संस्थाएं भी हैं. तिब्बती मूल के लोगों ने दलाई लामा जैसी पावन हस्ती के संपर्क में रहते हुए उस देश के प्रति कृतज्ञ होना सीखा है, जिस देश ने उन्हें मुसीबत के समय शरण दी.

समय-समय पर तिब्बत के लोग आयोजित करते हैं थैंक्यू इंडिया कार्यक्रम

दलाई लामा भारत को बड़ा भाई और गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं. ये सही है कि चीन के साथ भारत के संबंधों में दलाई लामा को लेकर कड़वाहट पलती रही है, लेकिन भारत ने भी शरणागत के प्रति अपना धर्म निभाया है. तिब्बती लोगों को यहां की खुली हवा में सांस लेते देखकर भारतवासी भी शरणागत की रक्षा के अपने सूत्र पर गर्व करते हैं. धर्मशाला में हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु दलाई लामा के वचन सुनने के लिए आते हैं. कभी दलाई लामा की सेहत को लेकर चिंता होती है तो तिब्बतियों सहित हिमाचल व भारत के अनेक लोगों के हाथ प्रार्थना के लिए उठते हैं. समय-समय पर तिब्बत के लोग धर्मशाला में थैंक्यू इंडिया कार्यक्रम का आयोजन होता है. तिब्बत के लोग ऐसे आयोजनों में भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं. विगत में भारत की सरकार ने भी चीन के दबाव के बावजूद इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने का फैसला लिया था.

पढ़ें: 14वें बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा का आज 86वां जन्मदिन

वंचितों की सेवा में लीन तिब्बती युवा

तिब्बत के कई युवा हिमाचल सहित भारत भर में सेवा यज्ञ में भी आहूति डाल रहे हैं. टेड कुंचुक, पैंपा सहित युवतियां अपने सोशल मीडिया अकाउंट के जरिए सेवा कार्य कर रहे हैं. ये युवा जरूरतमंदों की कई तरीके से मदद करते हैं. उनके ब्लॉग में ऐसे सेवाकार्यों के उदाहरण दिखते हैं. दरअसल, ये युवा दलाई लामा के करुणा के उपदेश को सार्थक कर रहे हैं. नई पीढ़ी के मन में बेशक अपनी भूमि के लिए वैसी टीस न हो, जैसी पलायन करके आई पीढ़ी के मन में रही, परंतु भारत में ही उन्होंने तिब्बत की मिट्टी की खुशबू तलाश कर ली है.

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