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Story Of Guna Mahto : 35 साल बाद हत्या के आरोप से हुआ बरी - Jharkhand High Court

जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर निर्मित मामले में गंभीर कमियों को खोजने के बाद कहा कि हमारे विचार से, नीचे की अदालतों ने सबूतों की गलत और अधूरी सराहना के आधार पर दोषसिद्धि के आदेश को पारित करने में गंभीरता से चूक की है.

Story Of Guna Mahto
सुप्रीम कोर्ट
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Published : Mar 31, 2023, 7:49 PM IST

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने 16 मार्च को डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट और झारखंड हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया जिसमें एक व्यक्ति (गुणा महतो) को 1988 में अपनी पत्नी की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था. 35 साल बाद, अपीलकर्ता गुणा महतो को सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की हत्या के आरोपों से बरी कर दिया है. यह आदेश न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति संजय करोल की खंड पीठ ने दिया. गुणा महतो ने याचिका दायर कर झारखंड उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी.

झारखंड उच्च न्यायालय महतो को अपनी पत्नी की हत्या के लिए उम्रकैद की सजा के निचली अदालत (डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट) के फैसले को सही ठहराया था. 2001 में 10 मई को डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट ने गुना महतो को पत्नी की हत्या का दोषी पाया था. उनपर आरोप था कि साल 1988 में उन्होंने पत्नी की हत्या कर शव को गांव के बाहर कुंएं में फेंक दिया था. इसके साथ ही महतो पर पुलिस को गुमराह करने के लिए पत्नी की गुमशुदगी की झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने का भी आरोप था. डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट ने गुना महतो को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

पढ़ें : Supreme Court News: उच्चतम न्यायालय में 1 मार्च 2023 तक लंबित हैं 69,379 मामले

निचली अदालत के आदेश के बाद, महतो ने झारखंड उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन वहां से उन्हें वहां भी राहत नहीं मिली. शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में कहा कि यह आपराधिक न्यायशास्त्र का एक स्थापित सिद्धांत है कि एक मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य के साथ-साथ अभियोजन पक्ष को उचित संदेह से परे जाकर अपराध को साबिक करना होता है. सिर्फ शक के आधर पर किसी को अपराधी नहीं माना जा सकता है.

अदालत ने कहा कि इसमें केस में जांच अधिकारी से पूछताछ नहीं की गई. और ना ही इस बात को साबित करने के लिए कोई सबूत या दस्तावेज साबित प्रस्तुत किया गया कि आरोपी ने पुलिस को गुमराह करने के लिए कोई झूठी कहानी गढ़ी. अदालत ने नोट किया कि आरोपी ससूर और पीड़िता के पिता ने भी आरोपी के खिलाफ कोई शक जाहिर नहीं किया. पीड़िता के चाचा ने भी सिर्फ संदेह ही व्यक्त किया और उस संदेह के स्रोत का कोई खुलासा नहीं किया.

पढ़ें : प. बंगाल पंचायत चुनाव की घोषणा से पहले सुवेंदु अधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया

अदालत ने कहा कि जांच अधिकारी से पूछताछ ना करने ने अभियोजन पक्ष के मामले को संदिग्ध बना दिया है. कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त को अपराध से जोड़ने वाली परिस्थितियां बिल्कुल भी साबित नहीं हुई हैं, और यह संदेह से परे तो बिलकुल भी नहीं है. अपराध साबित करने के लिए साक्ष्यों का संदेह से परे होना बहुत जरुरी है. अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि मामला महतो के प्रति गंभीर पूर्वाग्रह से ग्रसित था. जिससे न्याय का उपहास हुआ. यह हमारा कर्तव्य है कि हम न्याय के गर्भपात को सुधारें.

पढ़ें : SEBI on Adani: अडाणी- हिंडनबर्ग विवाद पर सेबी चीफ की चुप्पी, कहा सुप्रीम कोर्ट में देंगे जांच रिपोर्ट

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने 16 मार्च को डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट और झारखंड हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया जिसमें एक व्यक्ति (गुणा महतो) को 1988 में अपनी पत्नी की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था. 35 साल बाद, अपीलकर्ता गुणा महतो को सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की हत्या के आरोपों से बरी कर दिया है. यह आदेश न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति संजय करोल की खंड पीठ ने दिया. गुणा महतो ने याचिका दायर कर झारखंड उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी.

झारखंड उच्च न्यायालय महतो को अपनी पत्नी की हत्या के लिए उम्रकैद की सजा के निचली अदालत (डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट) के फैसले को सही ठहराया था. 2001 में 10 मई को डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट ने गुना महतो को पत्नी की हत्या का दोषी पाया था. उनपर आरोप था कि साल 1988 में उन्होंने पत्नी की हत्या कर शव को गांव के बाहर कुंएं में फेंक दिया था. इसके साथ ही महतो पर पुलिस को गुमराह करने के लिए पत्नी की गुमशुदगी की झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने का भी आरोप था. डाल्टनगंज ट्रायल कोर्ट ने गुना महतो को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

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निचली अदालत के आदेश के बाद, महतो ने झारखंड उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन वहां से उन्हें वहां भी राहत नहीं मिली. शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में कहा कि यह आपराधिक न्यायशास्त्र का एक स्थापित सिद्धांत है कि एक मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य के साथ-साथ अभियोजन पक्ष को उचित संदेह से परे जाकर अपराध को साबिक करना होता है. सिर्फ शक के आधर पर किसी को अपराधी नहीं माना जा सकता है.

अदालत ने कहा कि इसमें केस में जांच अधिकारी से पूछताछ नहीं की गई. और ना ही इस बात को साबित करने के लिए कोई सबूत या दस्तावेज साबित प्रस्तुत किया गया कि आरोपी ने पुलिस को गुमराह करने के लिए कोई झूठी कहानी गढ़ी. अदालत ने नोट किया कि आरोपी ससूर और पीड़िता के पिता ने भी आरोपी के खिलाफ कोई शक जाहिर नहीं किया. पीड़िता के चाचा ने भी सिर्फ संदेह ही व्यक्त किया और उस संदेह के स्रोत का कोई खुलासा नहीं किया.

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अदालत ने कहा कि जांच अधिकारी से पूछताछ ना करने ने अभियोजन पक्ष के मामले को संदिग्ध बना दिया है. कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त को अपराध से जोड़ने वाली परिस्थितियां बिल्कुल भी साबित नहीं हुई हैं, और यह संदेह से परे तो बिलकुल भी नहीं है. अपराध साबित करने के लिए साक्ष्यों का संदेह से परे होना बहुत जरुरी है. अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि मामला महतो के प्रति गंभीर पूर्वाग्रह से ग्रसित था. जिससे न्याय का उपहास हुआ. यह हमारा कर्तव्य है कि हम न्याय के गर्भपात को सुधारें.

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