ETV Bharat / bharat

अफगान शांति वार्ता : भारत की नीति से असहज हुआ रूस, चीन-पाक को बचाने के लिए बनाई दूरी

author img

By

Published : Mar 11, 2021, 8:11 PM IST

Updated : Mar 11, 2021, 8:23 PM IST

भारत रणनीतिक दुविधा का सामना कर रहा है और रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) में बंट रही अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के बीच भारत को जल्द ही अपना शिविर चुनना होगा. पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट.

डिजाइन फोटो
डिजाइन फोटो

नई दिल्ली : बिना किसी संदेह के वैश्विक व्यवस्था दो अलग-अलग शिविरों में सिमट रहा है. एक हिस्से का नेतृत्व रूस और चीन द्वारा किया जा रहा है, जबकि दूसरे हिस्से का नेतृत्व अमेरिका कर रहा है. रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) के रूप में इसकी शर्तों को स्थापित करने के लिए भारत को इससे दूर नहीं रखा जा सकता.

भारत परंपरागत रूप से रूस के करीब रहा है. हालांकि, बाद में रूस भारत से चिढ़ गया और पाकिस्तान के करीब हो गया.

हाल की मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि रूस, अफगानिस्तान शांति वार्ता में भारत के लिए बाधा बन सकता है. इन अफवाहों को अब अधिक बल मिल रहा है.

एक डेमेज कंट्रोल मोड में रूस ने मंगलवार को एक बयान दिया, जिसमें कहा गया कि अफगानिस्तान में शांति को आगे बढ़ाने के लिए भारत की भागीदारी अंतिम होगी. रूस के इस स्टेटमेंट में सबसे अहम शब्द 'अंतिम' है, जो तत्काल भारत की भागीदारी को नकारता है.

मंगलवार को रूस के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया जखारोवा ने कहा कि मॉस्को 18 मार्च को अफगानिस्तान शांति वार्ता आयोजित करेगा, जहां विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव इस प्रक्रिया की शुरुआत करेंगे.

जखारोवा ने कहा कि यह सच है कि इंट्रा-अफगान समझौता पर रूस 18 मार्च को एक नियमित बैठक आयोजित करेगा, जिसमें चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान के विशेष प्रतिनिधी शामिल होंगे.

हम उम्मीद करते हैं कि बैठक में इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के प्रतिनिधिमंडल, अफगानिस्तान की उच्च परिषद, राष्ट्रीय सुलह के लिए नियुक्त प्रमुख अफगान राजनीतिक हस्तियां, तालिबान आंदोलन और कतर अतिथि के रूप में शामिल होंगे.

दूसरे शब्दों में भारत को इस बैठक से बाहर कर दिया गया है. यह भारत के लिए रणनीतिक दुविधा है. इसे रूस-चीन के नेतृत्व वाले ब्लॉक और अमेरिका के नेतृत्व वाले कैंप के बीच चयन करना है.

वैसे रूस द्वारा अफगान वार्ता प्रक्रिया से भारत को बाहर करने के कई कारण हैं.

पहला यह कि भारत-अमेरिका के संबंध नई ऊंचाई पर हैं. भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान को मिलाकर क्वाड का निर्माण, बढ़ती चीनी शक्ति और उसके प्रभाव वाले क्षेत्रों के खिलाफ हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और पश्चिमी हितों की रक्षा करना है.

रूस के खिलाफ बाइडेन प्रेसीडेंसी की दुश्मनी ने रूस और चीन के बीच गहरा रिश्ता बना दिया है. रूस के लिए अफगान वार्ता में भारत की मौजूदगी अमेरिका के हितों को बढ़ावा देना है.

दूसरा यह कि रूस-चीन के रिश्ते मजबूत हो गए हैं. पूर्वी लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच सैन्य बढ़ोतरी देखी गई, द्विपक्षीय संबंध एक असहज स्थिति में है. परिणामस्वरूप, भारत और चीन के बीच कई मुद्दों पर विरोधाभासी स्थिति है. ऐसे में रूस नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान वार्ता के दौरान भारत, चीन को न घेर ले.

तीसरी वजह यह है कि रूस अफगान शांति प्रक्रिया के साथ-साथ अफगानिस्तान के साथ होने वाले समझौते में अपने लिए एक बड़ा हिस्सा लेने के लिए बेताब है. इसलिए वह भारत को वार्ता में शामिल कर टेबल पर अमेरिकी हित को बढ़ाकर अपने स्वयं के संभावित हिस्से को कम क्यों करे?

पढ़ें - विशेष : सीरिया में संघर्ष के 10 साल, खतरे में अगली पीढ़ियां

चौथा कारण यह है कि अमेरिका और रूस के परस्पर विरोधी हित थे और इसलिए उसे पश्चिम एशिया (मध्य पूर्व) में विरोध का सामना करना पड़ा. भारत की स्थिति तत्कालीन डोनाल्ड ट्रंप सरकार की पश्चिम एशिया नीति के स्पष्ट समर्थन की थी. इस प्रक्रिया में भारत-ईरान संबंधों में गिरावट आ रही थी, जो परंपरागत रूप से काफी मजबूत थे.

पांचवां यह कि रूस अफगानिस्तान को अपना क्षेत्र मानता है और यह उसके लिए पश्चिम एशिया का प्रवेश द्वार भी है. इसलिए अफगान वार्ता में भारत को शामिल करना, पाकिस्तान को परेशान करने के साथ अमेरिकी हितों को बढ़ावा देना होगा.

इन सब में जो बाइडेन के नेतृत्व वाला अमेरिकी प्रशासन अपने लिए रास्ता बना रहा है. उसने भारत और रूस के बीच स्पष्ट सीमांकन के प्रयासों को आगे बढ़ाया.

नई दिल्ली : बिना किसी संदेह के वैश्विक व्यवस्था दो अलग-अलग शिविरों में सिमट रहा है. एक हिस्से का नेतृत्व रूस और चीन द्वारा किया जा रहा है, जबकि दूसरे हिस्से का नेतृत्व अमेरिका कर रहा है. रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) के रूप में इसकी शर्तों को स्थापित करने के लिए भारत को इससे दूर नहीं रखा जा सकता.

भारत परंपरागत रूप से रूस के करीब रहा है. हालांकि, बाद में रूस भारत से चिढ़ गया और पाकिस्तान के करीब हो गया.

हाल की मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि रूस, अफगानिस्तान शांति वार्ता में भारत के लिए बाधा बन सकता है. इन अफवाहों को अब अधिक बल मिल रहा है.

एक डेमेज कंट्रोल मोड में रूस ने मंगलवार को एक बयान दिया, जिसमें कहा गया कि अफगानिस्तान में शांति को आगे बढ़ाने के लिए भारत की भागीदारी अंतिम होगी. रूस के इस स्टेटमेंट में सबसे अहम शब्द 'अंतिम' है, जो तत्काल भारत की भागीदारी को नकारता है.

मंगलवार को रूस के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया जखारोवा ने कहा कि मॉस्को 18 मार्च को अफगानिस्तान शांति वार्ता आयोजित करेगा, जहां विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव इस प्रक्रिया की शुरुआत करेंगे.

जखारोवा ने कहा कि यह सच है कि इंट्रा-अफगान समझौता पर रूस 18 मार्च को एक नियमित बैठक आयोजित करेगा, जिसमें चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान के विशेष प्रतिनिधी शामिल होंगे.

हम उम्मीद करते हैं कि बैठक में इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के प्रतिनिधिमंडल, अफगानिस्तान की उच्च परिषद, राष्ट्रीय सुलह के लिए नियुक्त प्रमुख अफगान राजनीतिक हस्तियां, तालिबान आंदोलन और कतर अतिथि के रूप में शामिल होंगे.

दूसरे शब्दों में भारत को इस बैठक से बाहर कर दिया गया है. यह भारत के लिए रणनीतिक दुविधा है. इसे रूस-चीन के नेतृत्व वाले ब्लॉक और अमेरिका के नेतृत्व वाले कैंप के बीच चयन करना है.

वैसे रूस द्वारा अफगान वार्ता प्रक्रिया से भारत को बाहर करने के कई कारण हैं.

पहला यह कि भारत-अमेरिका के संबंध नई ऊंचाई पर हैं. भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान को मिलाकर क्वाड का निर्माण, बढ़ती चीनी शक्ति और उसके प्रभाव वाले क्षेत्रों के खिलाफ हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और पश्चिमी हितों की रक्षा करना है.

रूस के खिलाफ बाइडेन प्रेसीडेंसी की दुश्मनी ने रूस और चीन के बीच गहरा रिश्ता बना दिया है. रूस के लिए अफगान वार्ता में भारत की मौजूदगी अमेरिका के हितों को बढ़ावा देना है.

दूसरा यह कि रूस-चीन के रिश्ते मजबूत हो गए हैं. पूर्वी लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच सैन्य बढ़ोतरी देखी गई, द्विपक्षीय संबंध एक असहज स्थिति में है. परिणामस्वरूप, भारत और चीन के बीच कई मुद्दों पर विरोधाभासी स्थिति है. ऐसे में रूस नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान वार्ता के दौरान भारत, चीन को न घेर ले.

तीसरी वजह यह है कि रूस अफगान शांति प्रक्रिया के साथ-साथ अफगानिस्तान के साथ होने वाले समझौते में अपने लिए एक बड़ा हिस्सा लेने के लिए बेताब है. इसलिए वह भारत को वार्ता में शामिल कर टेबल पर अमेरिकी हित को बढ़ाकर अपने स्वयं के संभावित हिस्से को कम क्यों करे?

पढ़ें - विशेष : सीरिया में संघर्ष के 10 साल, खतरे में अगली पीढ़ियां

चौथा कारण यह है कि अमेरिका और रूस के परस्पर विरोधी हित थे और इसलिए उसे पश्चिम एशिया (मध्य पूर्व) में विरोध का सामना करना पड़ा. भारत की स्थिति तत्कालीन डोनाल्ड ट्रंप सरकार की पश्चिम एशिया नीति के स्पष्ट समर्थन की थी. इस प्रक्रिया में भारत-ईरान संबंधों में गिरावट आ रही थी, जो परंपरागत रूप से काफी मजबूत थे.

पांचवां यह कि रूस अफगानिस्तान को अपना क्षेत्र मानता है और यह उसके लिए पश्चिम एशिया का प्रवेश द्वार भी है. इसलिए अफगान वार्ता में भारत को शामिल करना, पाकिस्तान को परेशान करने के साथ अमेरिकी हितों को बढ़ावा देना होगा.

इन सब में जो बाइडेन के नेतृत्व वाला अमेरिकी प्रशासन अपने लिए रास्ता बना रहा है. उसने भारत और रूस के बीच स्पष्ट सीमांकन के प्रयासों को आगे बढ़ाया.

Last Updated : Mar 11, 2021, 8:23 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.