होली के त्योहार को लेकर अनेक धार्मिक कहानियां और प्रसंग हमारे हिंदू कथाकारों और साहित्यकारों द्वारा सुनाई और बताई जाती हैं, लेकिन इसमें सबसे प्रसिद्ध और चर्चित कहानी भक्त प्रहलाद की मानी जाती है. जिससे होली का त्योहार जुड़ा हुआ है और इसी के कारण होली का त्योहार मनाया जाता है.
ऐसा इतिहासकारों के द्वारा बताया गया है कि हमारे देश में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर राज करता था. वह अपने बल और अहंकार के चलते खुद को ईश्वर का मानने लगा था. उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर पाबंदी भी लगा रखी थी. ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद खुद ईश्वर का भक्त था और वह हमेशा ईश्वर की भक्ति में लीन रहकर भगवान विष्णु को याद किया करता था. प्रहलाद की भक्ति को देखकर हिरण्यकशिपु उसको अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया करता था, लेकिन इसके बावजूद भी वह अपने भक्ति के मार्ग से नहीं डिगा.
हिरण्यकशिपु ने अपने बेटे प्रहलाद का वध कराने के लिए अपनी बहन का सहारा लेने की सोचा. अपने बेटे की भक्ति को छुड़ाने के लिए और उसे जान से मारने के लिए अपनी बहन को याद किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को अग्नि से न जलने का वरदान था. इसलिए हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन को आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करे. भाई हिरण्यकशिपु का आदेश मानकर होलिका ने प्रहलाद को गोद में बैठाकर अग्नि में प्रवेश किया. इस दौरान भक्त प्रहलाद भगवान को याद करके उनका नाम जपता रहा. आग की लपेटों से होलिका धूं-धूं करके जल गयी, जबकि प्रहलाद को किसी तरह का कोई नुकसान नहीं हुआ. इसीलिए इस दिन होलिका जलायी जाती है और उसके अगले दिन होली का त्योहार हर्ष और उल्लास के साथ मनाने की परंपरा है.
होली की दूसरी कथा
होली का त्योहार मनाने के लिए राजा रघु के राज्य में ढुण्डा नाम की एक राक्षसी की कथा प्रचलित है, जिसे भगवान शिव से अमरत्व का वरदान मिला था. ढुण्डा नाम की एक राक्षसी ने महादेव की पूजा करके प्रसन्न किया और एक ऐसा आशीर्वाद लिया, जिससे वह लगभग अमरत्व हासिल कर लिया था. उसने भोलेनाथ से यह वरदान मांगा था कि उसको देवता, दैत्य और शस्त्रों से अवध्य कर दीजिए. साथ ही उस पर गर्मी-सर्दी, बरसात, दिन-रात, घर-बाहर सभी स्थानों से अभय की प्राप्ति हो जाए. इस पर शिवजी ने पूछा कि तुमने पागलों और बालकों से भी अभय क्यों नहीं मांगा तो ढूंढा नाम की राक्षसी ने हंसते हुए कहा था कि पागल तो पागल होता है. वह उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता और बालकों से उसको कोई खतरा नहीं है, क्योंकि बच्चे उसको बहुत प्रिय हैं. ऐसे बाते सुनकर भगवान शिव तथास्तु कहकर वहां अन्तर्ध्यान हो गये.
ढुण्डा ने भगवान शिव के जाने के बाद उनकी बात पर विचार किया तो वह बच्चों से भविष्य के खतरे को भांपकर बालकों को परेशान करने लगी. वह बच्चों का वध करने का सोचने लगी. साथ ही राज्य में उत्पात मचाना शुरू किया. ढूंढा नाम की राक्षसी के प्रकोप से परेशान लोग राजा रघु के पास गए तो वह राक्षसी से मुक्ति के लिए वशिष्ठ मुनि से मदद मांगी. महर्षि वशिष्ठ ने तब राजा रघु को ढूंढा नाम की राक्षसी के वध का उपाय बताया और कहा कि खेलते हुए बच्चों का शोर-गुल या हुडदंग ही उसकी मृत्यु का कारण बनेगा. उनकी सलाह मानकर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सभी बच्चे एकत्रित होकर नाचने-गाने का कार्यक्रम शुरू किया. फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को राज्य भर बच्चों को एकत्रित करके गोबर के कंडे का ढेर तैयार कराया गया. साथ में वहां पर सूखे पत्ते, पेड़ों की सूखी टहनियों से एक विशाल ढूंढ बनवाया गया. इसी के आसपास एकत्रित होकर बच्चों ने हुड़दंग मचाना शुरू किया. इस दौरान बच्चों का झुंड देखकर ढूंढा नाम की राक्षसी वहां पहुंची और गांव के लोगों द्वारा बनाए गए ढुंढ में छिप गयी. तभी मंत्र से ढुंढ में अग्नि जला दी गयी. ऐसा करते ही ढुण्ढा राक्षसी उसी में जलकर राख हो गयी. तभी से ढुंढ बनाकर होलिका जलाने का कार्य किया जा रहा है. कालान्तर में इसका नाम होली हो गया.
होली की तीसरी कथा
हमारे हिन्दू धर्म की पौराणिक कथाओं में होली की तीसरी कथा के रूप में एक और कथा कही जाती है. प्राचीन काल में ताड़कासुर नाम के एक राक्षस का जिक्र मिलता है, जिसके अत्याचारों से हर कोई परेशान था. इंसान के साथ साथ देवता भी काफी परेशान रहा करते थे. तड़कासुर का अंत केवल भगवान शिव और पार्वती की संतान से ही संभव था. लेकिन भगवान शिव के तपस्या में लीन रहने के कारण उससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं दिख रहा था. ऐसे में कामदेव ने भगवान शिव की तपस्या को भंग करने की पहल की, जिससे उनकी हरकत से नाराज भोलेनाथ ने कामदेव को भस्म कर दिया. इसके बाद जब कामदेव की पत्नी रति ने शिवजी से माफी मांगकर अपनी प्रार्थना की तो शिवजी ने कामदेव को अगले जन्म में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में लोक कल्याण के लिए जन्म लेने का वरदान दिया. ऐसा कहा जाता है कि शिवजी की तपस्या भंग होने और ताड़कासुर के वध की संभावनाओं को देखकर देवताओं ने रंगों से उत्सव मनाया था. इसी उत्सव को कालांतर में होली का त्योहार कहा गया.
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होली की चौथी कथा
इसके साथ साथ भगवान कृष्ण के अनुयायी यह भी मानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने इसी दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था और कंस के द्वारा भेजी गयी राक्षसी का अंत करने की खुशी में गोप गोपियों एक साथ मिलकर रासलीला की थी. साथ ही रंगों का उत्सव मनाया था. तब से पूरे ब्रज में होली का यह पर्व मनाया जाता है.
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