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नेताजी का उत्तराखंड से था खास नाता, गढ़वाली सैनिकों को करते थे पसंद

आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का पूरा संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज है. उत्तराखंड के साथ उनका लगाव भी कम नहीं था. नेताजी को आजाद हिंद फौज के गठन के दौरान उन्हें देहरादून के राजा महेंद्र प्रताप सिंह और पेशावर कांड के हीरो चंद्र सिंह गढ़वाली से ही प्रेरणा मिली थी. उत्तराखंड के साथ उनके संबधों पर पढ़ें खास रिपोर्ट...

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Published : Jan 23, 2021, 4:00 AM IST

Updated : Jan 24, 2021, 2:39 PM IST

देहरादून: 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा'... स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के इस नारे ने क्रांतिकारियों के दिलों में आजादी की चाह की चिंगारी को ज्वाला बना दिया था. शायद ही देश का कोई ऐसा नागरिक हो जिसने नेताजी के इस नारे को नहीं सुना हो. आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती (23 जनवरी) को इस बार केंद्र सरकार पराक्रम दिवस के रूप में मनाने जा रही है. देवभूमि उत्तराखंड से भी नेताजी और आजाद हिंद फौज का गहरा नाता रहा है, जो इतिहास के पन्नों में अमर है.

आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का पूरा संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज है. इन्हीं में उत्तराखंड का जिक्र भी है. कहा जाता है कि साल 1977 तक नेताजी ने साधु के भेष में कुछ समय देहरादून में बिताया था लेकिन इसकी कहीं पुष्टि नहीं हुई है. यही नहीं, नेताजी का उत्तराखंड से लगाव इसलिए भी रहा है, क्योंकि आजाद हिंद फौज बनाने के दौरान उन्हें देहरादून के राजा महेंद्र प्रताप सिंह और पेशावर कांड के हीरो चंद्र सिंह गढ़वाली से ही प्रेरणा मिली थी, जिसके बाद गढ़वालियों की दो बटालियन को आजाद हिंद फौज में शामिल किया था.

देखें खास रिपोर्ट...

1983 में हुआ आजाद हिंद सरकार का गठन

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु से जुड़े कई तथ्य भी हैं, जो आजतक जांच एजेंसियों और आयोगों के सामने नहीं आ पाए. ऐसे में उनका अपने जीवनकाल की अंतिम लड़ाई में उत्तराखंड कनेक्शन को लेकर इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1983 को सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार का गठन किया था. इसके बाद फिर उस सरकार की राजधानी को 7 जनवरी 1944 को सिंगापुर से रंगून स्थानांतरित किया गया लेकिन, इससे पहले आजाद भारत की निर्वासित सरकार का गठन राजा महेन्द्र प्रताप ने काबुल में 1915 में कर दिया था, जिसके प्रधानमंत्री बरकतुल्ला थे.

संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज
संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज.

आजाद हिंद फौज में गढ़वाल से थे तीन कमांडर

जनरल मोहन सिंह के सेनापतित्व में गठित आजाद हिन्द फौज की गढ़वाली अफसरों और सैनिकों की दो बटालियनें बनाई गईं थीं, जिसने गढ़वाल राइफल्स की दो बटालियन में 26 सैनिकों को शामिल किया गया था. हालांकि, इनमें से करीब 600 सैनिक ब्रिटिश सेना से लड़ाई के दौरान शहीद हो गए थे. आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल रायफल्स के गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व करने के लिए तीन जांबाज कमाण्डरों ने कर्नल चन्द्र सिंह नेगी, कर्नल बुद्धि सिंह रावत और कर्नल पितृशरण रतूड़ी को जिम्मेदारी सौंपी गई थी जो उत्तराखंड के ही थे.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गढ़वाली सैनिकों को बहुत पसन्द करते थे. यही वजह रही कि मेजर बुद्धिसिंह रावत को उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटेंट और रतूड़ी को गढ़वाली यूनिट का कमाडेंट बना दिया था. इसी तरह मेजर देबसिंह दानू पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर के तौर पर तैनात थे. तीन जांबाज कमांडरों के साथ ही आजाद हिंद फौज में लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र सिंह बागड़ी, मेजर पद्मसिंह गुसाईं और मेजर देवसिंह दाणू की भी बड़ी भूमिका रही थी.

नेताजी का उत्तराखंड से नाता.
नेताजी का उत्तराखंड से नाता.

जापान ने बताई विमान दुर्घटना में मौत

दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आज़ाद हिन्द फौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा. आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया. जिसके बाद 1945 में आजाद हिंद फौज के सैनिकों और अधिकारियों पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया गया. आजाद हिंद फौज के पकड़े गए सैनिकों और अधिकारियों पर मुकदमा चलाने से पहले ही अंग्रेजी सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की खोजबीन शुरू की थी, लेकिन उस दौरान जापान में सबसे पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा कर दी थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गई.

नेता जी की मृत्यु पर विवाद बरकरार

देश के आजाद होने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मृत्यु को लेकर तमाम तरह के बयानों से संदेह उत्पन्न हो गया था, जिसके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 3 दिसंबर 1955 को 3 सदस्य जांच समिति का गठन किया, जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एनएन मैत्रा को शामिल किया गया था. उस दौरान नेताजी के करीबी रहे शाहनवाज खान और एनएन मित्रा ने नेता जी के निधन को लेकर जापान द्वारा की गई घोषणा को सही ठहराया था तो, वहीं नेता जी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस ने जापान की घोषणा पर असहमति व्यक्त की थी. इसके बाद से ही नेताजी के मृत्यु का विवाद बरकरार है.

गुमनामी बाबा की कहानी में भी गहराया रहस्य

वहीं, नेताजी की मृत्यु की गुत्थी सुलझाने के लिए फिर कई आयोगों का गठन भी किया गया, जिसमें साल 1970 में जस्टिस जीडी खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बनाया गया और फिर साल 1999 में सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बनाया गया. बावजूद इसके नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की गुत्थी सुलझ नहीं पाई. यही नहीं, गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत भी नहीं मिला. चर्चा थी कि देहरादून के राजपुर रोड स्थित शोलमारी आश्रम में अपने जीवन का अंतिम समय बिताया था, लेकिन शोलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदानंद ने भी नेता जी के होने की पुष्टि नहीं की थी.

देहरादून: 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा'... स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के इस नारे ने क्रांतिकारियों के दिलों में आजादी की चाह की चिंगारी को ज्वाला बना दिया था. शायद ही देश का कोई ऐसा नागरिक हो जिसने नेताजी के इस नारे को नहीं सुना हो. आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती (23 जनवरी) को इस बार केंद्र सरकार पराक्रम दिवस के रूप में मनाने जा रही है. देवभूमि उत्तराखंड से भी नेताजी और आजाद हिंद फौज का गहरा नाता रहा है, जो इतिहास के पन्नों में अमर है.

आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का पूरा संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज है. इन्हीं में उत्तराखंड का जिक्र भी है. कहा जाता है कि साल 1977 तक नेताजी ने साधु के भेष में कुछ समय देहरादून में बिताया था लेकिन इसकी कहीं पुष्टि नहीं हुई है. यही नहीं, नेताजी का उत्तराखंड से लगाव इसलिए भी रहा है, क्योंकि आजाद हिंद फौज बनाने के दौरान उन्हें देहरादून के राजा महेंद्र प्रताप सिंह और पेशावर कांड के हीरो चंद्र सिंह गढ़वाली से ही प्रेरणा मिली थी, जिसके बाद गढ़वालियों की दो बटालियन को आजाद हिंद फौज में शामिल किया था.

देखें खास रिपोर्ट...

1983 में हुआ आजाद हिंद सरकार का गठन

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु से जुड़े कई तथ्य भी हैं, जो आजतक जांच एजेंसियों और आयोगों के सामने नहीं आ पाए. ऐसे में उनका अपने जीवनकाल की अंतिम लड़ाई में उत्तराखंड कनेक्शन को लेकर इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1983 को सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार का गठन किया था. इसके बाद फिर उस सरकार की राजधानी को 7 जनवरी 1944 को सिंगापुर से रंगून स्थानांतरित किया गया लेकिन, इससे पहले आजाद भारत की निर्वासित सरकार का गठन राजा महेन्द्र प्रताप ने काबुल में 1915 में कर दिया था, जिसके प्रधानमंत्री बरकतुल्ला थे.

संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज
संघर्ष इतिहास के पन्नों में दर्ज.

आजाद हिंद फौज में गढ़वाल से थे तीन कमांडर

जनरल मोहन सिंह के सेनापतित्व में गठित आजाद हिन्द फौज की गढ़वाली अफसरों और सैनिकों की दो बटालियनें बनाई गईं थीं, जिसने गढ़वाल राइफल्स की दो बटालियन में 26 सैनिकों को शामिल किया गया था. हालांकि, इनमें से करीब 600 सैनिक ब्रिटिश सेना से लड़ाई के दौरान शहीद हो गए थे. आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल रायफल्स के गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व करने के लिए तीन जांबाज कमाण्डरों ने कर्नल चन्द्र सिंह नेगी, कर्नल बुद्धि सिंह रावत और कर्नल पितृशरण रतूड़ी को जिम्मेदारी सौंपी गई थी जो उत्तराखंड के ही थे.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गढ़वाली सैनिकों को बहुत पसन्द करते थे. यही वजह रही कि मेजर बुद्धिसिंह रावत को उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटेंट और रतूड़ी को गढ़वाली यूनिट का कमाडेंट बना दिया था. इसी तरह मेजर देबसिंह दानू पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर के तौर पर तैनात थे. तीन जांबाज कमांडरों के साथ ही आजाद हिंद फौज में लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र सिंह बागड़ी, मेजर पद्मसिंह गुसाईं और मेजर देवसिंह दाणू की भी बड़ी भूमिका रही थी.

नेताजी का उत्तराखंड से नाता.
नेताजी का उत्तराखंड से नाता.

जापान ने बताई विमान दुर्घटना में मौत

दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आज़ाद हिन्द फौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा. आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया. जिसके बाद 1945 में आजाद हिंद फौज के सैनिकों और अधिकारियों पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया गया. आजाद हिंद फौज के पकड़े गए सैनिकों और अधिकारियों पर मुकदमा चलाने से पहले ही अंग्रेजी सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की खोजबीन शुरू की थी, लेकिन उस दौरान जापान में सबसे पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा कर दी थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गई.

नेता जी की मृत्यु पर विवाद बरकरार

देश के आजाद होने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मृत्यु को लेकर तमाम तरह के बयानों से संदेह उत्पन्न हो गया था, जिसके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 3 दिसंबर 1955 को 3 सदस्य जांच समिति का गठन किया, जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एनएन मैत्रा को शामिल किया गया था. उस दौरान नेताजी के करीबी रहे शाहनवाज खान और एनएन मित्रा ने नेता जी के निधन को लेकर जापान द्वारा की गई घोषणा को सही ठहराया था तो, वहीं नेता जी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस ने जापान की घोषणा पर असहमति व्यक्त की थी. इसके बाद से ही नेताजी के मृत्यु का विवाद बरकरार है.

गुमनामी बाबा की कहानी में भी गहराया रहस्य

वहीं, नेताजी की मृत्यु की गुत्थी सुलझाने के लिए फिर कई आयोगों का गठन भी किया गया, जिसमें साल 1970 में जस्टिस जीडी खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बनाया गया और फिर साल 1999 में सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बनाया गया. बावजूद इसके नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की गुत्थी सुलझ नहीं पाई. यही नहीं, गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत भी नहीं मिला. चर्चा थी कि देहरादून के राजपुर रोड स्थित शोलमारी आश्रम में अपने जीवन का अंतिम समय बिताया था, लेकिन शोलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदानंद ने भी नेता जी के होने की पुष्टि नहीं की थी.

Last Updated : Jan 24, 2021, 2:39 PM IST
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