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मशीनरी कचरा से पलता है पेट, लोहे के टुकड़ों से मिलती है दो वक्त की रोटी - poor people collect iron ]pieces

झारखंड के सरायकेला स्थित आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र हजारों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से रोजगार दे रहा है. कारखाना से निकलने वाला स्क्रैप और कचरा इलाके के कई लोगों का पेट पाल रहा है. आइये जानते हैं कैसे ?

मशीनरी कचरा से पलता है पेटः
मशीनरी कचरा से पलता है पेटः
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Published : Jan 15, 2021, 10:01 AM IST

रांची : कहते हैं इंसान की गरीबी उससे कुछ भी करा लेती है. विपरीत परिस्थिति में उन काम करने के लिए लोगों को मजबूर होना पड़ता है जिनसे वो अक्सर दूर भागते हैं. जिस स्थान पर कोई आदमी एक मिनट तक खड़ा नहीं हो सकता. वहां कई ऐसे लोग हैं, जो अपना और अपने परिवार के पेट पालने के लिए दिनभर रहकर काम करते हैं. झारखंड के सरायकेला जिला के आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र में लगभग हर दिन ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है. यहां मशीनों से निकलने वाले कल-पुर्जों के कचरे से कई परिवार का पेट पलता है. लोग इसको बेचकर परिवारों का पेट पाल रहे हैं. इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को सुबह से इंतजार रहता है कि कब कारखाना से कचरा बाहर निकलेगा और यह उस कचरे से लोहा चुनकर अपने दिनभर का गुजारा कर सकेंगे.

कचरे से मिटती है भूख !
30 से 40 लोग अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैंऔद्योगिक क्षेत्र के मशीनों से निकलने वाले इन कचरों को आम बोलचाल की भाषा में स्क्रैप भी कहा जाता है. एशिया महादेश के सबसे बड़े स्मॉल इंडस्ट्रियल एरिया में शुमार आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र के तकरीबन 13 कारखाने हैं. यहां से सैकड़ों परिवार मशीनी कचरा चुनकर और बेचकर अप्रत्यक्ष रूप से आमदनी कर रहे हैं. अनुमानित आंकड़े के मुताबिक प्रतिदिन 30 से 40 लोग अलग-अलग स्थान पर सड़क से लेकर फैक्ट्रियों से निकलने वाले मशीन के लोहे के कचरे को चुंबक के सहारे जमा करते हैं. बाद में इन कचड़ों में शामिल लोहे के कण और बुरादा को अलग किया जाता है. दिनभर बैठ कर जमा किए गए मशीनी कचरे को लोग चुनते हैं और शाम होने पर इसे लोहे के टाल में बेच दिया जाता है, जिससे इन सैकड़ों परिवारों को दो वक्त की रोटी नसीब हो पाती है.50 किलो तक निकलता लोहे का कण, 7 से 25 रुपये किलो बिकता है कचराऔद्योगिक क्षेत्र के सड़कों पर प्रतिदिन दर्जनों लोग चुंबक और झाड़ू मार कर एकत्र किए गए लोहे के बुरादे को जमा करते हैं. जिन्हें अलग करने के बाद 50 किलो तक लोहे का बारीक कचरा निकलता है. कचरा से निकलने वाले लोहे के इन बारीक कणों की कीमत भी उनकी क्वालिटी के मुताबिक अलग-अलग है. लोहे का यह कचरा 7 से लेकर 25 रुपए किलो ग्राम तक बाजार में बिकता है. इन कचरों को दोबारा री-साइकिल कर लोहा बाजार में प्रयोग में लाया जाता है.200-200 रुपये की होती है आमदनीसड़क से लेकर उद्योगों के डस्टबिन से लोहे बुरादे कचड़े चुनने और बेचने का काम भी बड़ा दिलचस्प है. इस धंधे से जुड़े लोग बताते हैं कि उद्योगों के मशीन से जितना अधिक लोहे का बारीक कचरा निकलेगा उतना ही अधिक इससे जुड़े लोगों की कमाई होती है. अमूमन 50 से 60 किलो लोहे का कचरा निकलने से एक व्यक्ति 200 से 300 रुपए तक कमा लेता है. जबकि इसके ठीक विपरीत जब कचरा कम निकलता है तो कमाई भी उसके अनुसार कम ही होती है. जबकि 1 से 2 दिन तक कारखाना बंद रहने या छुट्टी होने की स्थिति में अगले दिन मशीन चलने पर अधिक मात्रा में लोहे का बारीक कचरा निकलता है. ऐसे में इससे जुड़े लोगों की यही आस बनी रहती है कि प्रतिदिन अधिक से अधिक लोहे का बारीक कचरा उद्योगों से बाहर निकले.

पढ़ें- जंगल में युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म, पुलिस छानबीन में जुटी

लॉकडाउन और औद्योगिक मंदी में हुआ था बुरा हाल
कोरोना काल के दौरान लॉकडाउन में अधिकांश उद्योग और कल-कारखाने बंद थे. लिहाजा मशीनरी और कलपुर्जे भी नहीं चलते थे. ऐसे वक्त में इससे जुड़े कई लोगों को अपना और अपने आश्रितों का पेट पालने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. इस धंधे से जुड़े कुछ मजदूर बताते हैं कि उस वक्त सरकार की ओर से जो चावल आपूर्ति की जाती थी, उसे ही खा कर ये गुजर-बसर कर रहे थे. हालांकि अब धीरे-धीरे परिस्थितियां सामान्य हो रही है और उद्योग धंधे भी रफ्तार पकड़ रही है. ऐसे में मशीनरी कचरा बेचने वाले लोगों का कामकाज भी धीरे-धीरे ठीक-ठाक हो रहा है.

आज औद्योगिक क्षेत्र के इन हजारों कंपनियों में प्रत्यक्ष रूप से लाखों मजदूर और कर्मचारी जुड़कर अपना गुजारा कर रहे हैं. लेकिन यह बड़ा रोचक है कि उद्योगों से निकलने वाले इन कचड़ों से भी सैकड़ों लोग अप्रत्यक्ष रूप से जुड़कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हैं. जरूरत है एक एक बेहतरीन प्रयास की ताकि मशीनों के कचड़ों को चुनने वाले इन लोगों के जिंदगी में बदलाव आए और ये भी सम्मान से जिंदगी जी सके.

रांची : कहते हैं इंसान की गरीबी उससे कुछ भी करा लेती है. विपरीत परिस्थिति में उन काम करने के लिए लोगों को मजबूर होना पड़ता है जिनसे वो अक्सर दूर भागते हैं. जिस स्थान पर कोई आदमी एक मिनट तक खड़ा नहीं हो सकता. वहां कई ऐसे लोग हैं, जो अपना और अपने परिवार के पेट पालने के लिए दिनभर रहकर काम करते हैं. झारखंड के सरायकेला जिला के आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र में लगभग हर दिन ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है. यहां मशीनों से निकलने वाले कल-पुर्जों के कचरे से कई परिवार का पेट पलता है. लोग इसको बेचकर परिवारों का पेट पाल रहे हैं. इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को सुबह से इंतजार रहता है कि कब कारखाना से कचरा बाहर निकलेगा और यह उस कचरे से लोहा चुनकर अपने दिनभर का गुजारा कर सकेंगे.

कचरे से मिटती है भूख !
30 से 40 लोग अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैंऔद्योगिक क्षेत्र के मशीनों से निकलने वाले इन कचरों को आम बोलचाल की भाषा में स्क्रैप भी कहा जाता है. एशिया महादेश के सबसे बड़े स्मॉल इंडस्ट्रियल एरिया में शुमार आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र के तकरीबन 13 कारखाने हैं. यहां से सैकड़ों परिवार मशीनी कचरा चुनकर और बेचकर अप्रत्यक्ष रूप से आमदनी कर रहे हैं. अनुमानित आंकड़े के मुताबिक प्रतिदिन 30 से 40 लोग अलग-अलग स्थान पर सड़क से लेकर फैक्ट्रियों से निकलने वाले मशीन के लोहे के कचरे को चुंबक के सहारे जमा करते हैं. बाद में इन कचड़ों में शामिल लोहे के कण और बुरादा को अलग किया जाता है. दिनभर बैठ कर जमा किए गए मशीनी कचरे को लोग चुनते हैं और शाम होने पर इसे लोहे के टाल में बेच दिया जाता है, जिससे इन सैकड़ों परिवारों को दो वक्त की रोटी नसीब हो पाती है.50 किलो तक निकलता लोहे का कण, 7 से 25 रुपये किलो बिकता है कचराऔद्योगिक क्षेत्र के सड़कों पर प्रतिदिन दर्जनों लोग चुंबक और झाड़ू मार कर एकत्र किए गए लोहे के बुरादे को जमा करते हैं. जिन्हें अलग करने के बाद 50 किलो तक लोहे का बारीक कचरा निकलता है. कचरा से निकलने वाले लोहे के इन बारीक कणों की कीमत भी उनकी क्वालिटी के मुताबिक अलग-अलग है. लोहे का यह कचरा 7 से लेकर 25 रुपए किलो ग्राम तक बाजार में बिकता है. इन कचरों को दोबारा री-साइकिल कर लोहा बाजार में प्रयोग में लाया जाता है.200-200 रुपये की होती है आमदनीसड़क से लेकर उद्योगों के डस्टबिन से लोहे बुरादे कचड़े चुनने और बेचने का काम भी बड़ा दिलचस्प है. इस धंधे से जुड़े लोग बताते हैं कि उद्योगों के मशीन से जितना अधिक लोहे का बारीक कचरा निकलेगा उतना ही अधिक इससे जुड़े लोगों की कमाई होती है. अमूमन 50 से 60 किलो लोहे का कचरा निकलने से एक व्यक्ति 200 से 300 रुपए तक कमा लेता है. जबकि इसके ठीक विपरीत जब कचरा कम निकलता है तो कमाई भी उसके अनुसार कम ही होती है. जबकि 1 से 2 दिन तक कारखाना बंद रहने या छुट्टी होने की स्थिति में अगले दिन मशीन चलने पर अधिक मात्रा में लोहे का बारीक कचरा निकलता है. ऐसे में इससे जुड़े लोगों की यही आस बनी रहती है कि प्रतिदिन अधिक से अधिक लोहे का बारीक कचरा उद्योगों से बाहर निकले.

पढ़ें- जंगल में युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म, पुलिस छानबीन में जुटी

लॉकडाउन और औद्योगिक मंदी में हुआ था बुरा हाल
कोरोना काल के दौरान लॉकडाउन में अधिकांश उद्योग और कल-कारखाने बंद थे. लिहाजा मशीनरी और कलपुर्जे भी नहीं चलते थे. ऐसे वक्त में इससे जुड़े कई लोगों को अपना और अपने आश्रितों का पेट पालने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. इस धंधे से जुड़े कुछ मजदूर बताते हैं कि उस वक्त सरकार की ओर से जो चावल आपूर्ति की जाती थी, उसे ही खा कर ये गुजर-बसर कर रहे थे. हालांकि अब धीरे-धीरे परिस्थितियां सामान्य हो रही है और उद्योग धंधे भी रफ्तार पकड़ रही है. ऐसे में मशीनरी कचरा बेचने वाले लोगों का कामकाज भी धीरे-धीरे ठीक-ठाक हो रहा है.

आज औद्योगिक क्षेत्र के इन हजारों कंपनियों में प्रत्यक्ष रूप से लाखों मजदूर और कर्मचारी जुड़कर अपना गुजारा कर रहे हैं. लेकिन यह बड़ा रोचक है कि उद्योगों से निकलने वाले इन कचड़ों से भी सैकड़ों लोग अप्रत्यक्ष रूप से जुड़कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हैं. जरूरत है एक एक बेहतरीन प्रयास की ताकि मशीनों के कचड़ों को चुनने वाले इन लोगों के जिंदगी में बदलाव आए और ये भी सम्मान से जिंदगी जी सके.

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