हैदराबाद: एक तरफ गुजरात में एशियाई शेरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. वहीं दूसरी ओर राज्य में गधों की संख्या में कमी (number of donkeys decrease) आ रही है. गुजरात में गधों की संख्यामें 70.94 फीसदी गिरावट आई है. ब्रुके इंडिया (Brooke India) चैरिटी के एक सर्वेक्षण में यह मामला सामने आया है. सर्वे में कहा गया है कि 2012 में गुजरात में गधों की आबादी 39000 थी. जो 2019 में घटकर 11000 रह गई है. देश में गधों की संख्या में औसतन 61.23 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.
ब्रुके ने गधे की संख्या में लगातार गिरावट के बारे में बताया कि गधे का अब ज्यादा उपयोग नहीं होता है. चराई भूमि अब नहीं रही. गधों की चोरी हो रही है, गधों को कत्लखाने भेजा जा रहा है. खास यह बात सामने आई है कि गधों की गिरावट का जिम्मेदार चीन भी है. गधों के कत्ल के पीछे चीन का हाथ है. 2019 तक भारत में गधों की कुल संख्या 1.12 लाख थी. यह 2012 में हुई पिछली जनगणना की तुलना में 61.23 प्रतिशत की कमी है. वहीं गुजरात में गधों की आबादी 2012 में 39000 से घटकर 2019 में 11000 रह गई है. गुजरात और नेपाल सीमा सहित छह राज्यों में किए गए क्षेत्र के दौरे से यह पता चला है कि गधों की खाल और मांस के लिए अवैध हत्याएं की जा रही हैं.
पांच गुना बढ़े गधों के दाम
दाहोद जिले के लीलर गांव निवासी गधों के व्यापारी मंगीलाल ने ईटीवी भारत को बताया कि गधे 3000 रुपये से 4000 रुपये में मिलते थे. अब ये 17000 से 18000 रुपये में मिल रहे हैं. इससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि गरीबों को अपना कारोबार बंद करना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि पता चला है कि इन गधों को कत्लखाने ले जा रहे हैं. खासकर राजस्थान के बाड़मेर की तरफ से गधे लाये जा रहे हैं और वौठा, पाला, पुष्कर में गधों को बेचा जा रहा है. जिसे चीन की सीमा से लगे बड़े देशों में ले जाया जाता है. वहां व्यापारी अपंग, घायल गधों का भी मुंहमांग दाम देने को तैयार हैं क्योंकि उन्हें सिर्फ गधों से मतलब होता है.
बिहार में भी छाया गधों पर संकट
पशुओं के लिए काम करने वाली एनजीओ ब्रूक इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में गधों की संख्या (Number Of Donkeys In Bihar) में 47.31% की गिरावट आई है. 2012 की पशुधन जनगणना के अनुसार बिहार में गधों की संख्या 21 हजार थी जो 2019 में घटकर 11000 रह गई है. महाराष्ट्र जैसे राज्य में भी लगभग 40 फ़ीसदी गधों की संख्या में कमी आई है और अब 18000 ही गधे बच गए हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति ऐसी ही रही तो 2030 तक बिहार से गधे विलुप्त हो जाएंगे. विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मशीनों पर बढ़ती हुई निर्भरता एक तरफ जहां गधों की कमी का प्रमुख वजह है. वहीं दूसरे प्रमुख वजह भारत से नेपाल के रास्ते 'चीन में गधों की अवैध तस्करी' होना है. कई इंटरनेशनल मीडिया रिपोर्ट के बारे तो चीन में गधों के मांस का प्रयोग और उनके चमड़े से दवाइयां बनाने के क्रम में प्रतिवर्ष 48 लाख से अधिक की संख्या में गधे काटे जाते हैं.
बीमारियों के जुड़े हैं कई मिथक
पटना के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ दिवाकर तेजस्वी ने बताया कि गधी के दूध की मेडिसिनल वैल्यू है और यह प्रूव्ड है. बहुत बार जब बहुत सारे दूधों के इनग्रेडिएंट से कंपेयर किया गया तो पाया गया कि ह्यूमन मिल्क के काफी करीब है गधी का मिल्क. इसके कई फायदेमंद रोल भी देखने को मिले हैं. गधी के दूध की हिपोक्रेट्स के समय से ही अहमियत रही है. दूसरा यह पहलू है कि चाइना में जब जानवर दूध देना बंद कर देता है तो उस जानवर को मारकर उसके मांस को खाने का प्रचलन है. इसके अलावा चाइनीज मेडिसिन का जो कवरिंग (कोटिंग) किया जाता है जिसे जिलेटिन कहते हैं उसके लिए गधे के चमड़े के खाल का प्रयोग किया जाता है. इसके अलावा चाइना और मिडिल ईस्ट के देशों में नपुंसकता दूर करने, सर्दी जुकाम ठीक करने, एंटी एजिंग इत्यादि कई प्रकार की बीमारियों में चमड़े का इस्तेमाल कर दवाएं तैयार की जाती हैं. हालांकि, यह अभी तक साइंटिफिकली प्रूव नहीं है.
इकोलॉजी बैलेंस के लिए जरूरी
विशेषज्ञों का मानना है कि इकोलॉजी के अंदर सभी जानवरों का एक बैलेंस होना जरूरी है. यदि कोई जानवर विलुप्त होता है या फिर किसी जानवर की संख्या बहुत तेजी से घट जाती है तो इसका दुष्प्रभाव इकोसिस्टम पर देखने को मिलता है. ऐसे में जिन जीवों की संख्या कम हो रही है उन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है. गधा इकोनॉमिक सिस्टम के लिए भी काफी प्रोडक्टिव माना जाता है. दुर्गम स्थानों पर भी आसानी से भारी वजन ढोने के लिए जाना जाता है.
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मशीनों के इस्तेमाल से गधों पर आफत
पटना के मशहूर एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के समाज वैज्ञानिक डॉ बीएन प्रसाद ने कहा कि 'समाज में किसी भी प्रकार का जो परिवर्तन आता है वह सामाजिक विकास से जुड़ा हुआ होता है. हमारा जो परंपरागत समाज था उसमें जानवरों की महत्ता इसलिए अधिक थी क्योंकि उस समय यांत्रिकरण अधिक नहीं हुआ था. समाज में मशीन का इस्तेमाल कम होगा तो जानवरों का इस्तेमाल अधिक होगा. दो दशक पूर्व समाज में गधों की संख्या इसलिए अधिक थी क्योंकि उस समय उनकी आवश्यकता थी. आज समाज में मैकेनाइजेशन अधिक हुआ है ऐसे में गाड़ियों ने 'गधों' और अन्य जानवरों की जगह ले ली है. सामान ढोने के लिए और खासकर धोबी समाज अपने भारी भरकम कपड़ों की गठरी ढोने के लिए गधे पाला करते थे. लेकिन अब 'गधों' की जगह 'गाड़ियों' ने ले ली है. ऐसे में गधे पालने की संख्या कम हो गई है.'