नई दिल्ली : समाजवादी पार्टी (सपा) संस्थापक और यूपी के तीन बार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) को आज उनके पैतृक गांव सैफई में भावभीनी विदाई देते हुए अंत्येष्टि की गयी. सोमवार 10 अक्टूबर को लंबी बीमारी के बाद वह इस दुनिया को अलविदा कह गए थे. उत्तर प्रदेश की राजनीति के हरफनमौला खिलाड़ी के जन्म से लेकर निधन तक ऐसे कई घटनाक्रम रहे जिसके कारण वह हमेशा याद किये जाएंगे. 3 बार मुख्यमंत्री के साथ साथ 7 बार सांसद 10 बार विधायक व एक बार विधान परिषद में जाने वाले उत्तर प्रदेश के इकलौते नेता रहे.
बीते 55 वर्षों से उत्तर प्रदेश की राजनीति में र्टी कार्यकतार्ओं के लिए वह हमेशा ही उपलब्ध रहने वाले देश और यूपी के एकमात्र नेता रहे हैं. जेड प्लस सुरक्षा घेरे में रहते हुए भी वह कार्यकतार्ओं से कभी दूर नहीं हुए. उनकी यह सर्वसुलभता ही उन्हें देश के अन्य नेताओं से अलग कर नेताजी का खिताब दिलाती है.
वरिष्ठ पत्रकारों व राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अपने 55 साल के लंबे राजनीतिक करियर में मुलायम सिंह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. यही नहीं वे सात बार सांसद रहे और 10 बार विधायकी का चुनाव जीता. 1967 में विधायक बनने वाले मुलायम ने फिर मुड़कर नहीं देखा. बीते 55 वर्षो में मुलायम सिंह ने कई सरकारें बनायीं और बिगाड़ीं. वह प्रदेश व देश की राजनीति में समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते रहें.
चौधरी चरण सिंह मुलायम सिंह को अपना राजनीतिक वारिस और अपने बेटे अजीत सिंह को अपना कानूनी वारिस कहा करते थे. बाद में परिस्थितियां कुछ ऐसे बनी कि यूपी के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में मुलायम सिंह ने अजीत को पछाड़ा. इसके कुछ वर्षों बाद मंदिर आंदोलन में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती को गिरफ्तार कराके मुलायम सिंह यादव रातों रात धर्मनिरपेक्षता के नए चैंपियन बन गए थे. मंदिर आंदोलन के दौरान उनकी परिंदा पर नहीं मार सकेगा की टिप्पणी आज भी लोग भूले नहीं है. खांटी राजनेता मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक के दांव-पेच उनके सहयोगियों और विरोधियों दोनों को हतप्रभ कर देते थे.
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कुश्ती के शौकीन मुलायम सिंह ने अपनी राजनीति की शुरूआत वर्ष 1967 में की थी. मुलायम ने अपनी चुनावी राजनीति की शुरूआत 1967 में एसएसपी के टिकट पर जसवंतनगर से मैदान में उतरने के साथ की, जो सीट उन्हें नाथू सिंह ने बतौर गिफ्ट दी थी और चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने. लेकिन इसी सीट पर उनको दो बार हार भी मिली थी.
सपा के संस्थापक सदस्य कुंवर रेवती रमण सिंह कहते हैं कि लोहिया, राज नारायण और फिर चरण सिंह के संगठनों ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोला और इन नेताओं के संरक्षण में ही मुलायम सिंह बतौर राजनेता सियासत की सीढ़ियां चढ़े और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार की वजह साबित हुए. ऐसे मुलायम सिंह ने कांशीराम के साथ मिलाकर यूपी में नया इतिहास भी बनाया था, लेकिन बाद में कांशीराम और मुलायम सिंह की मेहनत से बनाया गया सपा-बसपा गठबंधन टूट गया. 1993 की बात है यूपी में पहली बार सपा-बसपा की साझा सरकार बनी थी. सरकार बनने के कुछ ही समय बाद जिला पंचायत चुनावों की प्रक्रिया शुरू हुई तो दोनों पार्टियों के रिश्तों में कड़वाहट आनी शुरू हो गई.
मुलायम सिंह के राजनीतिक सफर के ऐसे किस्से बहुत हैं. एक समय में भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह के साथ मुलायम सिंह का उनकी राजनीतिक अदावत चलती थी, लेकिन 2009 के चुनाव में उन्होंने सारे गिले शिकवे दूर करके लोध वोटों से पिछड़ों की राजनीति को और मजबूत करने के चक्कर में कल्याण सिंह से हाथ मिला लिया. इसकी वजह से आजम खान मुलायम सिंह का खुलेआम विरोध करना शुरू कर दिया तो आजम खान को भी पार्टी से बाहर जाना पड़ा. इसका असर यह हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट कांग्रेस की ओर चला गया और समाजवादी पार्टी के सांसद घट गए और कांग्रेस के सांसदों की संख्या बढ़ गयी. लेकिन चुनाव बाद जब मुलायम सिंह को अपनी गलती का एहसास हुआ तो कल्याण सिंह से दूरी बनाकर फिर आजम खान को पार्टी में ले लिया. इसीलिए मुलायम सिंह को दोस्ती निभाने वाले नेता कहा जाता था. इसी गुण के कारण हर राजनीतिक दल के मुखिया उनका सम्मान करते रहे है. देश की राजनीति में मुलायम सिंह ऐसा सुलभ नेता दूसरा कोई नहीं है.
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