भोपाल। 83 साल की उम्र में क्या आप दुनिया बदल सकते हैं. ये सवाल इसलिए कि 80 पार की एक महिला अपने कांपते पैरों से भी केरल के कासरगोड़ इलाके के एंडोसल्फान पेस्टिसाइड पीड़ितों के हक के लिए अड़ गई है. दया बाई 83 साल की उम्र में कारसगोड़ के पीड़ितों के लिए 18 दिन की भूख हड़ताल कर चुकी हैं. दया बाई पेस्टीसाइड के जहर से तबाह हो रही केरल के इस इलाके की पीढ़ियों को बचाने के लिए आखिरी गुहार पीएम मोदी से लगाना चाहती है. गुहार इस बात की कि कासरगोड़ इलाके के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिल सकें. केरल में एम्स आसनगोड़ में ही खोला जाए. केरल में जन्मी दया बाई मध्यप्रदेश की बेटी हैं. ETV Bharat से बातचीत में दया बाई खुद कहती हैं कि मर्सी मैथ्यू का पुर्नजन्म छिंदवाड़ा में ही हुआ और वो दया बाई बन गई.
83 वर्ष की उम्र 18 दिन भूख हड़ताल: दया बाई की जिंदगी को जानने से पहले उसके जुनून को जानिए. जुनून है कि केरल के कासरगोड़ इलाके के एंडोसल्फान पेस्टिसाइड पीड़ितों के लिए दया बाई ने छिंदवाड़ा छोड़ दिया और 2018 के बाद से इस लड़ाई में जुट गई. एंडोसल्फान वो पेस्टिसाइड है जिसका छिड़काव केरल के काजू बागानों में होता रहा है. ये पेस्टीसाइड इतना खतरनाक है कि इससे ना केवल बच्चों में शारीरिक मानसिक विकृतियां पैदा हुई बल्कि कैंसर जैसी घातक बीमारी भी बढ़ी और मौतें भी हुईं. आदिवासियों के इंसाफ के लिए सत्तर के दशक से छिंदवाड़ा में रह रही दया बाई 2018 में केरल के कासरगोड़ पहुंची और तब से एक पैर छिंदवाड़ा और दूसरा पैर केरल में ही रहता है. पेस्टीसाइड पीड़ितों के लिए सिस्टम संवेदनशील हो सके इसके लिए दया बाई नुक्कड़ नाटक के जरिए उनकी व्यथा कथा तो सुनाती ही है. सामने आकर भूख हड़ताल के साथ इन पीड़ितों को चिकित्सा सुविधाएं दिलवाने के लिए भी दया बाई लड़ी.
एम्स की मांग: दया कहती हैं न्यूरोलॉजिस्ट, ऑन्कोलॉजिस्ट की यहां जरुरत है. एम्स केरल को मिलने वाला है मैं चाहती हूं एम्स कासरगोड़ को मिले ताकि यहां के जो पीड़ित जो जिंदा लाश की तरह हैं उन्हें ईलाज मिल सके. दया कहती हैं कि मैं इस मांग को लिए दिल्ली तक जाऊंगी. पीएम मोदी से मिलूंगी. दया ये कहानी सुनाते रो देती हैं, बताती हैं एक बच्ची स्कूल से लौट रही थी हेलीकॉप्टर से पेस्टीसाइड का छिड़काव किया जा रहा था, पूरा उसके शरीर पर गिरा यूनिफार्म धोई कई बार नहाई वो बच्ची लेकिन असर ऐसा हुआ कि चालीस साल तक बच्ची बिस्तर पर ही रही और वहीं खत्म हो गई.
छिंदवाड़ा आई तो मर्सी बन गई दया: 17 साल की उम्र में मर्सी मैथ्यू ने घर छोड़ दिया, घर यानि केरल. छोड़ा इसलिए कि वो गांधी बाबा के रास्ते पर चलना चाहती थी. मुंबई में पढ़ रही थी उस दौरान भी बेचैनी बनी रही जो छिंदवाड़ा मे आदिवासियों के बीच आकर खत्म हुई. छिंदवाड़ा में सबसे पहला संघर्ष दया के सामने था आदिवासियों तक लीगल लिट्रेसी पहुंचाने का कि उन पर अत्याचार के खिलाफ वो आवाज उठा सकें. दया बताती हैं मैने नुक्कड़ नाटकों के जरिए आदिवासियों को ये समझाया सिखाया कि एफआईआर कैसे करवानी है. अपनी बात कैसे अदालत तक पहुंचानी है. मैने प्राइमरी स्कूल टीचर भी तैयार किए थे इलाके में. दो महीने ट्रेनिंग दी उन्हें. मेरा घर छिंदवाडा ही है. आदिवासियों की पूरी जिंदगी जी ली मैने. केवल उनकी तरह से खेती बाकी थी अब वो भी शुरु कर दी है. अब मैं अपने खेत में मिलेट्स उगाती हूं.
आखिरी सांस तक नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई: दया बाई 83 की उम्र में पहुंच रही हैं. पिछले दिनों 18 दिन तक भूख हड़ताल पर रहने से शरीर कमजोर हुआ है. वॉकर की मदद से चलती हैं. दया बाई से जब पूछा कि कब तक हर नाइंसाफी के खिलाफ ये लड़ाई कब तक जारी रहेगा. दया बाई हंसते हुए कहती हैं आखिरी सांस तक.