शिवमोग्गा: शिवमोग्गा में लोग कई वर्षों से मंकी फीवर से पीड़ित हैं, जिसे क्यासानूर वन रोग (केएफडी) के नाम से जाना जाता है. इस रोग का पता पहली बार 1957 में क्यासानूर में चला था. मंकी फीवर को क्यासानूर फॉरेस्ट डिजीज (KFD) भी कहते हैं. यह क्यासानूर फॉरेस्ट में पहली बार मिला था इसलिए इसका नाम क्यासानूर फॉरेस्ट डिजीज पड़ा. क्योंकि केएफडी से सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है. सागर तालुक अरलागोडु के रामास्वामी करमाने (55) की 3 मई को केएफडी से मृत्यु हो गई. वह ग्राम पंचायत के सदस्य थे. एक 85 वर्षीय महिला की भी पिछले महीने उत्तर कन्नड़ जिले के सिद्धपुर तालुका में केएफडी से मौत हो गई थी.
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क्यासानूर फॉरेस्ट में अचानक बंदरों की मौत होने लगी. दो बंदरों की मौत के बाद जांच की गई तो उनमें यह बीमारी मिली इसलिए इसे मंकी फीवर भी नाम दिया गया. मंकी फीवर का पहला मामला 1957 में सामने आया था. भारत में मंकी फीवर के केसेस अधिकांश कर्नाटक, गोवा और केरल में मिले हैं. ये इलाके सबसे ज्यादा संवेदनशील माने जाते हैं. पिछले साल महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले में मंकी फीवर के कुछ केस मिले थे.
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नीलगिरि और बांदीपुर नैशनल पार्क में भी कुछ मामले सामने आए थे. मंकी फीवर एक वायरस से फैलता है. यह फ्लावि वायरस होता है. इससे होने वाली बीमारी को टिक बॉर्न एन्सेफलाइटिस (टीबीई) कहते हैं. बंदरों के संपर्क में आने से यह वायरस इंसानों को भी अपनी चपेट में ले लेता है. मंकी फीवर को लेकर राहत भरी बात यह है कि यह एक इंसान से दूसरे इंसान में नहीं फैलती है. बल्क संक्रमित जानवरों का पंजा लगने या उसके संपर्क में आने से होता है. मंकी फीवर के मरीज सामान्यता दो हफ्ते के अंदर ठीक हो जाते हैं. हालांकि एक हफ्ते के बाद इसके लक्षण गंभीर भी हो जाते हैं.