ETV Bharat / bharat

विधायिका कानून के प्रभाव का आकलन नहीं करती, जिससे 'बड़े मुद्दे' पैदा होते हैं : प्रधान न्यायाधीश

सीजेआई एन वी रमण ने कहा कि विधायिका कानूनों के प्रभाव का आकलन या अध्ययन नहीं करती है. पढ़ें पूरी खबर...

CJI N V Ramana
सीजेआई एन वी रमण
author img

By

Published : Nov 27, 2021, 6:04 PM IST

नई दिल्ली : प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एन वी रमण ने शनिवार को कहा कि विधायिका कानूनों के प्रभाव का आकलन या अध्ययन नहीं करती है, जो कभी-कभी बड़े मुद्दों की ओर ले जाते हैं और परिणामस्वरूप न्यायपालिका पर मामलों का अधिक बोझ पड़ता है.

प्रधान न्यायाधीश ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना मौजूदा अदालतों को वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. न्यायाधीशों और वकीलों को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति रमण ने कहा, हमें याद रखना चाहिए कि जो भी आलोचना हो या हमारे सामने बाधा आए, न्याय प्रदान करने का हमारा मिशन नहीं रुक सकता है. हमें न्यायपालिका को मजबूत करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करने को लेकर आगे बढ़ना होगा.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की उपस्थिति में संविधान दिवस समारोह के समापन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि न्यायपालिका में मामलों के लंबित होने का मुद्दा बहुआयामी प्रकृति का है और उम्मीद है कि सरकार इस दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान प्राप्त सुझावों पर विचार करेगी तथा मौजूदा मुद्दों का समाधान करेगी.

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, एक और मुद्दा यह है कि विधायिका अपने द्वारा पारित कानूनों के प्रभाव का अध्ययन या आकलन नहीं करती है. यह कभी-कभी बड़े मुद्दों की ओर ले जाता है. परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 की शुरूआत इसका एक उदाहरण है. पहले से मुकदमों का बोझ झेल रहे मजिस्ट्रेट इन हजारों मामलों के बोझ से दब गए हैं. इसी तरह, मौजूदा अदालतों को एक विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.

परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 बैंक खातों में पर्याप्त धन नहीं रहने पर चेक बाउन्स होने से संबंधित मामलों से जुड़ी है.

पढ़ें :- न्यायपालिका की स्वतंत्रता की सभी स्तरों पर रक्षा करना अत्यंत आवश्यक : CJI

प्रधान न्यायाधीश ने केंद्रीय कानून मंत्री की घोषणा की सराहना की कि सरकार ने न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 9,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है. न्यायमूर्ति रमण ने कहा, जैसा कि मैंने कल बताया था, धन की समस्या नहीं है. समस्या कुछ राज्यों के अनुदान की बराबरी करने के लिए आगे नहीं आने के कारण है. नतीजतन, केंद्रीय धन का काफी हद तक इस्तेमाल नहीं होता है.

उन्होंने कहा, यही कारण है कि मैं न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण की एक सहायक कंपनी (एसपीवी) का प्रस्ताव कर रहा हूं. मैं मंत्री से आग्रह करता हूं कि इस प्रस्ताव को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाएं. मैं उनसे न्यायिक रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया में तेजी लाने का भी आग्रह करता हूं.

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि देश में कई लोग ऐसा मानते हैं कि अदालतें कानून बनाती हैं तथा एक और गलतफहमी है कि बरी किए जाने और स्थगन के लिए अदालतें जिम्मेदार हैं. उन्होंने कहा, हकीकत यह है कि सरकारी वकील, अधिवक्ता और पक्षकारों, सभी को न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग करना होता है. असहयोग, प्रक्रियात्मक चूक और दोषपूर्ण जांच के लिए अदालतों को दोष नहीं दिया जा सकता है. न्यायपालिका के साथ ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.

न्यायिक प्रणाली के पुनर्गठन और अदालतों के पदानुक्रम में बदलाव के प्रस्ताव को लेकर अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल द्वारा शुक्रवार को दिए गए सुझावों का उल्लेख करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह कुछ ऐसा है, जिस पर सरकार को विचार करना होगा. उन्होंने कहा, स्वतंत्रता के बाद से, भारत में न्यायपालिका का संरचनात्मक पदानुक्रम वास्तव में क्या होना चाहिए, मुझे नहीं लगता कि इस पर विचार करने के लिए कोई गंभीर अध्ययन किया गया है.

(पीटीआई-भाषा)

नई दिल्ली : प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एन वी रमण ने शनिवार को कहा कि विधायिका कानूनों के प्रभाव का आकलन या अध्ययन नहीं करती है, जो कभी-कभी बड़े मुद्दों की ओर ले जाते हैं और परिणामस्वरूप न्यायपालिका पर मामलों का अधिक बोझ पड़ता है.

प्रधान न्यायाधीश ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना मौजूदा अदालतों को वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. न्यायाधीशों और वकीलों को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति रमण ने कहा, हमें याद रखना चाहिए कि जो भी आलोचना हो या हमारे सामने बाधा आए, न्याय प्रदान करने का हमारा मिशन नहीं रुक सकता है. हमें न्यायपालिका को मजबूत करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करने को लेकर आगे बढ़ना होगा.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की उपस्थिति में संविधान दिवस समारोह के समापन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि न्यायपालिका में मामलों के लंबित होने का मुद्दा बहुआयामी प्रकृति का है और उम्मीद है कि सरकार इस दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान प्राप्त सुझावों पर विचार करेगी तथा मौजूदा मुद्दों का समाधान करेगी.

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, एक और मुद्दा यह है कि विधायिका अपने द्वारा पारित कानूनों के प्रभाव का अध्ययन या आकलन नहीं करती है. यह कभी-कभी बड़े मुद्दों की ओर ले जाता है. परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 की शुरूआत इसका एक उदाहरण है. पहले से मुकदमों का बोझ झेल रहे मजिस्ट्रेट इन हजारों मामलों के बोझ से दब गए हैं. इसी तरह, मौजूदा अदालतों को एक विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.

परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 बैंक खातों में पर्याप्त धन नहीं रहने पर चेक बाउन्स होने से संबंधित मामलों से जुड़ी है.

पढ़ें :- न्यायपालिका की स्वतंत्रता की सभी स्तरों पर रक्षा करना अत्यंत आवश्यक : CJI

प्रधान न्यायाधीश ने केंद्रीय कानून मंत्री की घोषणा की सराहना की कि सरकार ने न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 9,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है. न्यायमूर्ति रमण ने कहा, जैसा कि मैंने कल बताया था, धन की समस्या नहीं है. समस्या कुछ राज्यों के अनुदान की बराबरी करने के लिए आगे नहीं आने के कारण है. नतीजतन, केंद्रीय धन का काफी हद तक इस्तेमाल नहीं होता है.

उन्होंने कहा, यही कारण है कि मैं न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण की एक सहायक कंपनी (एसपीवी) का प्रस्ताव कर रहा हूं. मैं मंत्री से आग्रह करता हूं कि इस प्रस्ताव को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाएं. मैं उनसे न्यायिक रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया में तेजी लाने का भी आग्रह करता हूं.

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि देश में कई लोग ऐसा मानते हैं कि अदालतें कानून बनाती हैं तथा एक और गलतफहमी है कि बरी किए जाने और स्थगन के लिए अदालतें जिम्मेदार हैं. उन्होंने कहा, हकीकत यह है कि सरकारी वकील, अधिवक्ता और पक्षकारों, सभी को न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग करना होता है. असहयोग, प्रक्रियात्मक चूक और दोषपूर्ण जांच के लिए अदालतों को दोष नहीं दिया जा सकता है. न्यायपालिका के साथ ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.

न्यायिक प्रणाली के पुनर्गठन और अदालतों के पदानुक्रम में बदलाव के प्रस्ताव को लेकर अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल द्वारा शुक्रवार को दिए गए सुझावों का उल्लेख करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह कुछ ऐसा है, जिस पर सरकार को विचार करना होगा. उन्होंने कहा, स्वतंत्रता के बाद से, भारत में न्यायपालिका का संरचनात्मक पदानुक्रम वास्तव में क्या होना चाहिए, मुझे नहीं लगता कि इस पर विचार करने के लिए कोई गंभीर अध्ययन किया गया है.

(पीटीआई-भाषा)

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.