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Delimitation : क्या है डिलिमिटेशन, जानें दक्षिण भारत के राज्यों को क्यों है आपत्ति - डिलिमिटेशन यानी परिसीमन

भाषा के साथ-साथ डिलिमिटेशन यानी परिसीमन ऐसा मुद्दा है, जिस पर दक्षिण के राज्यों को आपत्ति है. उनका मानना है कि अगर इस समय डिलिमिटेशन किया गया तो दक्षिण भारत के राज्यों को काफी नुकसान होगा. उनके अनुसार न सिर्फ संसद में उनका प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा, बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ेगा. दरअसल, डिलिमिटेशन के बाद यूपी और बिहार जैसे राज्यों का दबदबा लोकसभा में बढ़ जाएगा, जबकि तमिलनाडु जैसे राज्यों को नुकसान होगा. इसकी वजह है उत्तर भारत की लगातार बढ़ती आबादी.

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परिसीमन, कॉन्सेप्ट फोटो
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Published : Feb 13, 2023, 6:09 PM IST

नई दिल्ली : डिलिमिटेशन- यानी परिसीमन. अगर आबादी के हिसाब से संसाधनों का वितरण किया गया, तो उत्तर भारत के राज्यों को दक्षिण के राज्यों के मुकाबले अधिक फायदा होगा. तमिलनाडु की सांसद और डीएमके नेता कनिमोझी ने इसका विरोध किया है. उन्होंने कहा कि अगर ऐसा हुआ, तो यह दक्षिण के राज्यों के साथ भेदभाव होगा. उनके अनुसार क्योंकि दक्षिण के राज्यों ने परिवार नियोजन को गंभीरता से लागू किया, और आबादी पर नियंत्रण पाया, जबकि उत्तर भारत के राज्यों ने ऐसा नहीं किया, लिहाजा दंड उत्तर भारत के राज्यों को मिलना चाहिए, न कि दक्षिण भारत के राज्यों को.

क्या है डिलिमिटेशन- यानी परिसीमन- यानी आबादी का सही प्रतिनिधित्व. हमारा देश अल-अलग राज्यों में बंटा हुआ है. प्रत्येक राज्यों की अलग-अलग आबादी है. लोकसभा और विधानसभा में इनका सही प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना डिलिमिटेशन का काम होता है. दरअसल, आबादी के बढ़ने से इसका दायरा भी बदलता रहता है. इसलिए समय-समय पर परिसीमन का कार्य होता रहता है. बढ़ती जनसंख्या के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों का सही तरीके से विभाजन हो सके, परिसीमन प्रक्रिया इसे सुनिश्चित करती है.

परिसीमन को सुनिश्चित करने के लिए परिसीमन आयोग का गठन किया गया था. आपको बता दें कि परिसीमन आयोग (डिलिमिटेशन कमीशन) अधिनियम 1952 में स्थापित किया गया था और केंद्र सरकार को आवश्यकतानुसार परिसीमन आयोग स्थापित करने का अधिकार है. इसका मुख्य उद्देश्य रहा है- प्रत्येक मतदाता के मत का समान वैल्यू. भौगोलिक क्षेत्रों का बंटवारा इस तरह से हो, ताकि किसी भी एक राजनीतिक पार्टी को लाभ न मिले.

क्या है आपत्ति - अगर इस समय डिलिमिटेशन किया गया, तो उत्तरी राज्यों को अधिक पैसों का आवंटन होगा. संसद में उनका प्रतिनिधित्व भी अधिक होगा. दक्षिण के राज्यों को दोनों मोर्चों पर नुकसान उठाना पड़ेगा. क्योंकि आबादी पर नियंत्रण लगाने की वजह से उनके यहां लोकसभा की सीटें कम हो जाएंगी. साथ ही आबादी कम होने से उन्हें संसाधन का हिस्सा भी कम मिलेगा.

हकीकत ये भी है कि द.भारत के राज्यों ने आबादी के साथ-साथ अपनी आर्थिक स्थिति भी मजबूत की है. उन्होंने अपने यहां गरीबी के स्तर को भी घटाया. लोगों की आमदनी बढ़ी. दक्षिण के तीन राज्यों कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु का संयुक्त जीडीपी पूर्व के 13 राज्यों से ज्यादा है. इसी तरह से इन राज्यों ने शिक्षा और स्वास्थ्य में भी उल्लेखनीय कार्य किया है.

तमिलनाडु और केरल की सीटें हो जाएंगी कम - 'इंडियाज एमर्जिंग क्राइसिस ऑफ रिप्रेजेंटेशन 2019' की एक रिपोर्ट ने डिलिमिटेशन का एक अध्ययन किया है. इसके मुताबिक अगर 2031 में डिलिमिटेशन किया गया, तो बिहार और उत्तर प्रदेश को 21 सीटों का फायदा होगा, जबकि तमिलनाडु और केरल को 16 सीटों का नुकसान उठाना पड़ेगा. यानी पॉलिटिकल पावर शिफ्टिंग उत्तर भारत के पक्ष में और अधिक होगा. द, राज्यों में रहने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति की सीटें भी प्रभावित होंगी. 15वें वित्तीय कमीशन ने 2011 की जनगणना को आधार बनाकर कुछ अनुशंसा की थी. दक्षिण के राज्यों ने इसका खूब विरोध किया.

कब-कब हुआ डिलिमिटेशन - प्रत्येक जनगणना (सेंसस) के बाद केंद्र सरकार डिलिमिटेशन कमीशन का गठन करती है. ऐसा संविधान के अनुच्छेद 82 और अनुच्छेद 170 के तहत किया जाता है. वैसे, डिलिमिटेशन 1976 के बाद से नहीं हुआ है. इसे 2031 के बाद ही किया जाएगा.

अभी तक 1952, 1963, 1973 और 2002 में डिलिमिटेशन कमीशन का गठन किया गया है. पहला डिलिमिटेशन एक्सरसाइज 1950-51 में चुनाव आयोग की मदद से राष्ट्रपति ने करवाया था. आखिरी बार 1971 की जनगणना के आधार पर 1976 में करवाया गया था. लोकसभा में सीटों का आवंटन भारत के संविधान द्वारा प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर अनिवार्य है, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति का वोट उनके राज्य की परवाह किए बिना समान वैल्यू रखता है.

इमरजेंसी (1975-77) के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 में डिलिमिटेशन को 2001 तक के लिए फ्रीज कर दिया था. बाद में इस अवधि को बढ़ाकर 2026 कर दिया गया. उम्मीद की गई थी कि इस समय तक सब जगह पर आबादी की समान बढ़ोतरी होगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

डिलिमिटेशन कमीशन राष्ट्रपति के द्वारा गठित किया जाता है. यह चुनाव आयोग से मिलकर काम करता है. इस कमीशन में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज, मुख्य चुनाव आयुक्त और सभी राज्यों के निर्वाचन आयुक्त शामिल होते हैं. मतभेद के मामले में, बहुमत की राय मान्य होगी. आयोग के आदेश कानून की तरह होते हैं, इसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है.

ये भी पढ़ें : Delimitation of assembly seats in JK: जम्मू कश्मीर में गठित परिसीमन आयोग के खिलाफ याचिका SC में खारिज

नई दिल्ली : डिलिमिटेशन- यानी परिसीमन. अगर आबादी के हिसाब से संसाधनों का वितरण किया गया, तो उत्तर भारत के राज्यों को दक्षिण के राज्यों के मुकाबले अधिक फायदा होगा. तमिलनाडु की सांसद और डीएमके नेता कनिमोझी ने इसका विरोध किया है. उन्होंने कहा कि अगर ऐसा हुआ, तो यह दक्षिण के राज्यों के साथ भेदभाव होगा. उनके अनुसार क्योंकि दक्षिण के राज्यों ने परिवार नियोजन को गंभीरता से लागू किया, और आबादी पर नियंत्रण पाया, जबकि उत्तर भारत के राज्यों ने ऐसा नहीं किया, लिहाजा दंड उत्तर भारत के राज्यों को मिलना चाहिए, न कि दक्षिण भारत के राज्यों को.

क्या है डिलिमिटेशन- यानी परिसीमन- यानी आबादी का सही प्रतिनिधित्व. हमारा देश अल-अलग राज्यों में बंटा हुआ है. प्रत्येक राज्यों की अलग-अलग आबादी है. लोकसभा और विधानसभा में इनका सही प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना डिलिमिटेशन का काम होता है. दरअसल, आबादी के बढ़ने से इसका दायरा भी बदलता रहता है. इसलिए समय-समय पर परिसीमन का कार्य होता रहता है. बढ़ती जनसंख्या के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों का सही तरीके से विभाजन हो सके, परिसीमन प्रक्रिया इसे सुनिश्चित करती है.

परिसीमन को सुनिश्चित करने के लिए परिसीमन आयोग का गठन किया गया था. आपको बता दें कि परिसीमन आयोग (डिलिमिटेशन कमीशन) अधिनियम 1952 में स्थापित किया गया था और केंद्र सरकार को आवश्यकतानुसार परिसीमन आयोग स्थापित करने का अधिकार है. इसका मुख्य उद्देश्य रहा है- प्रत्येक मतदाता के मत का समान वैल्यू. भौगोलिक क्षेत्रों का बंटवारा इस तरह से हो, ताकि किसी भी एक राजनीतिक पार्टी को लाभ न मिले.

क्या है आपत्ति - अगर इस समय डिलिमिटेशन किया गया, तो उत्तरी राज्यों को अधिक पैसों का आवंटन होगा. संसद में उनका प्रतिनिधित्व भी अधिक होगा. दक्षिण के राज्यों को दोनों मोर्चों पर नुकसान उठाना पड़ेगा. क्योंकि आबादी पर नियंत्रण लगाने की वजह से उनके यहां लोकसभा की सीटें कम हो जाएंगी. साथ ही आबादी कम होने से उन्हें संसाधन का हिस्सा भी कम मिलेगा.

हकीकत ये भी है कि द.भारत के राज्यों ने आबादी के साथ-साथ अपनी आर्थिक स्थिति भी मजबूत की है. उन्होंने अपने यहां गरीबी के स्तर को भी घटाया. लोगों की आमदनी बढ़ी. दक्षिण के तीन राज्यों कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु का संयुक्त जीडीपी पूर्व के 13 राज्यों से ज्यादा है. इसी तरह से इन राज्यों ने शिक्षा और स्वास्थ्य में भी उल्लेखनीय कार्य किया है.

तमिलनाडु और केरल की सीटें हो जाएंगी कम - 'इंडियाज एमर्जिंग क्राइसिस ऑफ रिप्रेजेंटेशन 2019' की एक रिपोर्ट ने डिलिमिटेशन का एक अध्ययन किया है. इसके मुताबिक अगर 2031 में डिलिमिटेशन किया गया, तो बिहार और उत्तर प्रदेश को 21 सीटों का फायदा होगा, जबकि तमिलनाडु और केरल को 16 सीटों का नुकसान उठाना पड़ेगा. यानी पॉलिटिकल पावर शिफ्टिंग उत्तर भारत के पक्ष में और अधिक होगा. द, राज्यों में रहने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति की सीटें भी प्रभावित होंगी. 15वें वित्तीय कमीशन ने 2011 की जनगणना को आधार बनाकर कुछ अनुशंसा की थी. दक्षिण के राज्यों ने इसका खूब विरोध किया.

कब-कब हुआ डिलिमिटेशन - प्रत्येक जनगणना (सेंसस) के बाद केंद्र सरकार डिलिमिटेशन कमीशन का गठन करती है. ऐसा संविधान के अनुच्छेद 82 और अनुच्छेद 170 के तहत किया जाता है. वैसे, डिलिमिटेशन 1976 के बाद से नहीं हुआ है. इसे 2031 के बाद ही किया जाएगा.

अभी तक 1952, 1963, 1973 और 2002 में डिलिमिटेशन कमीशन का गठन किया गया है. पहला डिलिमिटेशन एक्सरसाइज 1950-51 में चुनाव आयोग की मदद से राष्ट्रपति ने करवाया था. आखिरी बार 1971 की जनगणना के आधार पर 1976 में करवाया गया था. लोकसभा में सीटों का आवंटन भारत के संविधान द्वारा प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर अनिवार्य है, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति का वोट उनके राज्य की परवाह किए बिना समान वैल्यू रखता है.

इमरजेंसी (1975-77) के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 में डिलिमिटेशन को 2001 तक के लिए फ्रीज कर दिया था. बाद में इस अवधि को बढ़ाकर 2026 कर दिया गया. उम्मीद की गई थी कि इस समय तक सब जगह पर आबादी की समान बढ़ोतरी होगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

डिलिमिटेशन कमीशन राष्ट्रपति के द्वारा गठित किया जाता है. यह चुनाव आयोग से मिलकर काम करता है. इस कमीशन में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज, मुख्य चुनाव आयुक्त और सभी राज्यों के निर्वाचन आयुक्त शामिल होते हैं. मतभेद के मामले में, बहुमत की राय मान्य होगी. आयोग के आदेश कानून की तरह होते हैं, इसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है.

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