वाराणसी : उत्तर प्रदेश का काशी वह पुरातन शहर जिसे भगवान शिव ने अपने आनंदवन के रूप में स्थापित किया था. हिमालय और पहाड़ों की कंदराओं से निकलकर भोलेनाथ अपनी अर्धांगिनी माता पार्वती के साथ काशी में आनंद की अनुभूति करने के लिए आते हैं. आज भी काशी मोक्ष की नगरी है और मोक्ष की चाह ले कर लोग काश्याम मरणयाम मुक्ति के मंत्र के साथ काशी में पहुंचते हैं. काशी के कण-कण में शिव हैं. शिव काशी में तारक मंत्र देकर हर जीव को मोक्ष प्रदान करते हैं.
मोक्ष की प्राप्ति के लिए मुमुक्षु भवन: इसी उम्मीद के साथ काशी में सैकड़ों साल पहले एक ऐसे भवन का निर्माण करवाया गया, जिसका उद्देश्य केवल काशीवास करने वाले लोगों को धर्म-कर्म से जोड़ते हुए अपने जीवन के बचे हुए समय को काशी में बिताने का मौका देना था, ताकि शेष जीवन के पूरे वक्त में वह शिव की भक्ति के साथ-साथ जीवन के अंतिम क्षणों में वह काशी में ही रहें और अपने प्राणों को काशी में त्याग कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकें. इस भवन का नाम काशी मुमुक्षु भवन है. मुमुक्षु का अर्थ ही मोक्ष की चाह रखने वाला है और इसी मोक्ष की चाह की कामना करने वाले लोगों के लिए 1920 में इस भवन का निर्माण करवाया गया था, तो आइए काशी के इस मुमुक्षु भवन और इससे जुड़ी कुछ रोचक कहानियां आपको बताते हैं.
मुमुक्षु भवन में जीवन के अंत तक : काशी मुमुक्षु भवन वह अद्भुत स्थान जहां पर अब तक न जाने हजारों की संख्या में लोगों ने मोक्ष की चाह में आकर यहां रहते हुए अपने प्राण त्यागे हैं. वर्तमान समय में भी काशी मुमुक्षु भवन में ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं जो लंबे वक्त से मोक्ष की कामना लेकर यहां रह रहे हैं. इनमें कोई हैदराबाद से आया है तो कोई कर्नाटक से, कोई मध्यप्रदेश का है तो कोई पश्चिम बंगाल से. यूं कहिए, देश के अलग-अलग हिस्से से काशी में रहकर धर्म-कर्म के कामों से खुद को जोड़ते हुए काशीवास का लाभ लेकर यह सभी बस एक ही कामना के साथ काशी में रह रहे हैं. वह है जीवन का अंत यहां हो और मोक्ष की प्राप्ति कर जीवन-मृत्यु के बंधनों से भी मुक्ति मिल जाए.
मुमुक्षु भवन के बारे में : काशी मुमुक्षु भवन के बारे में इस ट्रस्ट के ट्रस्टी और सेक्रेटरी कृष्ण कुमार काबरा बताते हैं कि काशी मुमुक्षु भवन 1920 में लगभग 7 एकड़ के क्षेत्र में स्थापित किया गया था. यह काशी के मध्य में अस्सी घाट के निकट स्थित है. राजा बलदेव दास बिरला के प्रयासों से दंडी स्वामी घनश्याम जी महाराज ने इस स्थान पर पहले दंडी स्वामियों के रहने के लिए स्थान उपलब्ध करवाकर दंडी स्वामियों के विशेष आश्रम की व्यवस्था की थी, लेकिन बाद में जब काशीवास करने वाले लोगों का यहां आना शुरू हुआ तो उनके लिए अलग-अलग कमरे की व्यवस्था की जाने लगी.
कृष्ण कुमार का कहना है कि वर्तमान में यहां 55 से ज्यादा कमरे तीन अलग-अलग हिस्से में मौजूद हैं. जिनमें 100 से ज्यादा लोग काशीवास का लाभ ले रहे हैं. यहां आने वाले लोगों से किसी तरह का कोई कमरे का किराया या रहन-सहन के लिए आर्थिक सहयोग मांगा नहीं जाता, बल्कि 60 वर्ष की अवस्था के बाद जो भी पति-पत्नी मोक्ष की इच्छा लेकर यहां आते हैं उनको यहां रहने के लिए कमरा यदि उपलब्ध होता है तो दे दिया जाता है. बदले में उनके द्वारा जो भी सहयोग राशि दी जाती है संस्था उसे स्वीकार लेती है. किसी के लिए कोई भी बाध्यता नहीं है.
1920 से अभी तक यह संस्था केवल ऐसे लोगों की दान दक्षिणा से ही चल रही है. बिरला परिवार अपनी तरफ से जो भी सहयोग करता है वह आज भी जारी है, लेकिन इसके मेंटेनेंस से लेकर अन्य चीजों के लिए लोगों की तरफ से भी सहयोग किया जाता है, क्योंकि 60 वर्ष की अवस्था के बाद जब यह लोग काशी आते हैं और यहां रुकते हैं तो जब तक वह जीवित रहेंगे तब तक उनके लिए वह कमरा रिजर्व हो जाता है.
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इसके लिए बकायदा एक फॉर्म भरवा कर उनका और उनके परिवार के लोगों को अवगत कराते हुए उनका सहमति पत्र भी लिया जाता है. दो कमरे, एक कमरा यहां उपलब्ध हैं. जैसा जो कमरा चाहे वैसा उसे उपलब्ध करवाया जाता है. इसके अतिरिक्त यहां रहने वाले लोग अपने खाने पीने की व्यवस्था स्वयं करते हैं, यदि चाहे तो संस्था की तरफ से भी भोजन उपलब्ध करवाया जाता है वह भी निशुल्क.
संस्था के ट्रस्टी कृष्ण कुमार का कहना है कि वर्तमान समय में यहां पर जितने भी परिवार रह रहे हैं, उनके परिवार के सदस्यों के साथ संस्था के लोग बराबर संपर्क में रहते हैं. परिवार के लोग आते-जाते रहते हैं. यदि किसी के परिवार का कोई सदस्य का निधन हो जाता है और उनके कोई परिजन यहां नहीं आते हैं तो संस्था की तरफ से ही उनका अंतिम संस्कार संपन्न करवाया जाता है. वर्तमान समय में 55 से ज्यादा दंडी स्वामी भी यहां पर मौजूद हैं और उनके रहने खाने-पीने और यहां तक कि उनके जाने के बाद उनकी समाधि तक की व्यवस्था भी मुमुक्षु भवन की तरफ से ही की जाती है.
दक्षिण भारत के लोग ले रहे काशीवास का लाभ : वर्तमान समय में यहां पर दक्षिण भारत से आए कई परिवार काशीवास का लाभ ले रहे हैं. ऐसे ही हैं मुरली मोहन शास्त्री हैं. वह हैदराबाद के एक कॉलेज में पहले लेक्चरर हुआ करते थे, बाद में यह डिपार्टमेंट हेड और फिर रिटायरमेंट से पहले प्रिंसिपल के तौर पर कार्य करते थे. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने काशीवास की इच्छा जताई और परिवार से अनुमति लेकर वह अपनी पत्नी के साथ मुमुक्षु भवन में रहने आ गए, बीते 15 सालों से वह पत्नी के साथ यही रह रहे हैं.
ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए मुरली मोहन ने बताया कि वह तो काशी में रहकर सिर्फ और सिर्फ मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं. मोक्ष की कामना के साथ और काशी में आए और यहां पर रह कर भोले की भक्ति करते हुए मोक्ष की इच्छा ही लगाए बैठे हैं. हैदराबाद से ही रिटायर्ड हेल्थ वर्कर पद्मा लक्ष्मी भी यहां पर बीते 10 सालों से रह रही हैं. उनकी जिंदगी रिटायरमेंट के तब बदली जब उनके पति की मृत्यु हो गई. घर पर दो बेटे, बापू, पोता-पोती सभी कोई मौजूद है लेकिन पति की मृत्यु के बाद उनका मन घर पर नहीं लगा और उन्होंने काशी में आकर काशीवास करते हुए अपने जीवन के अंतिम समय को यही बिताने की प्लानिंग करते हुए मुख्य भवन में आजीवन सदस्यता लेकर एक कमरा ले लिया.
उनका कहना है कि मैं यहां रहती हूं और अपनी पेंशन से अपना खर्च चलाती हूं. सुबह से शाम तक भक्ति और पूजा पाठ में लगी रहती हूं. बस इस इंतजार में किसी दिन शिव मेरी सुनेंगे और मुझे भी तारक मंत्र देकर मोक्ष देंगे. ऐसा नहीं है कि यहां पर आने वाले लोगों का परिवार से संपर्क नहीं होता. परिवार के लोग यहां रहने वाले अपने माता-पिता या अन्य परिवार के सदस्यों से मिलने भी आते हैं ऐसे ही एक परिवार के सदस्य अपने मां बाप से मिलने पहुंचे तो उनसे भी हमने बात की थी. उनका कहना था कि पिताजी रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी हैं. माताजी हाउसवाइफ थीं. रिटायरमेंट के बाद पिताजी काशीवास करना चाहते थे और काशी इतनी पवित्र स्थली है कि यहां पर हर कोई आना चाहता है. इसलिए माता-पिता जी दोनों काशी ही आ गए मैं खुद समय-समय पर यहां आकर अपने स्ट्रेस को दूर करता हूं और अध्यात्म और धर्म से जोड़कर बहुत अच्छा महसूस करता हूं.