ETV Bharat / bharat

बातचीत से ही निकल सकता है नक्सलवाद का समाधान : पूर्व डीजी

नक्सलवाद एक नासूर समस्या बनी हुई है. इस समस्या के हल के लिए तमाम प्रयास असफल नजर आ रहे हैं. ईटीवी भारत की टीम ने BSF के पूर्व डीजी प्रकाश सिंह से खास बातचीत की है. उन्होंने बेबाक अंदाज में इसपर अपनी राय रखी है. उन्होंने कहा कि सभी को मिलकर नक्सलियों से बात करनी होगी. नक्सलियों को भी हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में आना होगा. इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है.

पूर्व डीजी
पूर्व डीजी
author img

By

Published : Mar 28, 2021, 8:52 PM IST

रायपुर : नक्सल समस्या एक नासूर बनकर देश की आंतिरक सुरक्षा के लिए खतरा बनी हुई है. इस समस्या के हल के लिए तमाम प्रयास असफल नजर आ रहे हैं. पिछले दो दशक से नक्सल समस्या का केन्द्र बना बस्तर अब हिंसा से त्रस्त हो चुका है. इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है. इस विषय पर ईटीवी भारत लगातार विशेषज्ञों से बात करता रहा है. इसी कड़ी में ईटीवी भारत की टीम ने बीएसएफ के पूर्व डीजी प्रकाश सिंह से खास बातचीत की है. उन्होंने बेबाक अंदाज में इस समस्या पर अपनी राय रखी है.

सवाल-इस समस्या के हल के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं, क्या वो काफी हैं ? क्या हथियारों के दम पर इस समस्या से डील किया जा सकता है? या फिर आपके हिसाब से कोई दूसरा फॉर्मूला अपनाया जाना चाहिए ?

जवाब-नक्सल समस्या 50 सालों से है. इस दौरान सरकारों ने इस समस्या को खत्म करने के लिए कई तरह के प्रयास किए. वहीं नक्सलियों ने भी इस दौरान अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश जारी रखी. कई बार उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं. 2010 में ये अपने चरम पर था. साल भर में दो हजार से ज्यादा हिंसा की घटनाएं देश भर में हुई थी.उस वक्त डॉ. मनमोहन सिंह ने देश की आंतरिक सुरक्षा को सबसे बड़ी समस्या बताया था. फिर 2010 में ही समस्या से निबटने पी. चिदंबरम ने भारी संख्या में अर्धसैनिक बल को सेंट्रल इंडिया में भेजा. मीडिया ने इसे ऑपरेशन ग्रीनहंट नाम दिया. हालांकि सरकार ने ऐसा कोई नाम नहीं दिया था. उस समय से आज तक यहां पैरा मिलिट्र्री फोर्स यहां तैनात है. इसके बाद फोर्स ने अपना काम किया और नक्सली बैकफुट पर आ गए. आज नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या पचास के आस-पास सिमट गई है. एक वक्त जो 200 से ज्यादा थी. लेकिन सवाल ये है कि क्या ये आंदोलन खत्म होने की कागार पर है.

ईटीवी भारत से बात करते प्रकाश सिंह

कई मौके ऐसे आये, जब सरकार ने नक्सलवाद को खत्म मान लिया

उन्होंने आगे कहा कि किसी समस्या को समझना चाहते हैं, तो उसके ऐतिहासिक फैक्ट को समझना जरूरी है. मैं इस आंदोलन को 1967 से देख रहा हूं.मैंने पाया कि इस दौरान दो बार ऐसे मौके आए जब सरकार ने इस आंदोलन को खत्म मान लिया था. पहली बार 70 के दशक में जब, चारू मजूमदार गिरफ्तार हो गया और पुलिस कस्टडी में उसकी मौत हो गई. कानू सान्याल समेत टॉप लीडरशिप पकड़ी गई और इनके बचे खुचे नेताओं में फूट पड़ गई और ये बिखर गए. सरकार ने कह दिया की ये आंदोलन खत्म.लेकिन हम देखते हैं कि 80 के दशक में ये फिर खड़ा हो जाता है.आंध्रप्रदेश में कोंटापल्ली सीतारमैय्या की अगुवाई में फिर मूवमेंट में तेजी आ जाती है. फिर सीतारमैय्या पकड़े जाते हैं.उनके करीबी सहयोगी गिरफ्तार कर लिए जाते हैं. सरकार बहुत सख्त कदम उठाती है और फिर ये आंदोलन छिन्न-भिन्न हो जाता है. सरकार फिर कहती है कि नक्सल समस्या का समापन हो गया है.लेकिन हमने देखा कि आंदोलन एक बार फिर खड़ा होता है. 2004 में पीपुल्स वॉर माओविस्ट सेंटर कमेटी का विलय होता है. और फिर मूवमेंट ने जोर पकड़ लिया. इसके साथ ही ये भी देखा गया है कि जब-जब ये आंदोलन दोबारा खड़ा हुआ है, पुनर्जिवित हुआ है, तब-तब ये ज्यादा विध्वंसकारी रूप में सामने आया है.

'सुरक्षाबल एक सीमा तक ही काम कर सकते हैं'

पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने बताया कि 2010 में नक्सलवाद पीक पर था. तात्कालिक गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने अपने कार्यकाल में बयान दिया था कि, तीन साल में ये आंदोलन खत्म हो जाएगा. लेकिन इसे बीते कई साल हो गए. राजनाथ सिंह ने भी कहा कि, ये खत्म होने वाला है. अमित शाह ने भी कहा कि, हम इसे जमीन के अंदर 20 फीट नीचे दबा देंगे.
यानी सरकार में ये इंप्रेशन बन गया है कि ये आंदोलन खत्म होने की कागार पर है. मैंने इस मूवमेंट पर गहराई में अध्ययन किया है. सुरक्षाबल एक सीमा तक ही अपना काम कर सकते हैं. कानून व्यवस्था स्थापित कर सकते हैं.एरिया डॉमिनेशन स्थापित कर सकते हैं. लेकिन उसके बाद प्रशासनिक स्तर पर जो फॉलोअप एक्शन होना चाहिए वो नजर नहीं आता. नतीजा ये है कि सुरक्षाबलों के हटते ही वापस नक्सल फिर वहीं आ जाते हैं.

'खामियाजा आम आदिवासी भोग रहे हैं'

जब तक इस समस्या के पीछे के मूलभूत कारण को नहीं पहचानेंगे, जब तक सामाजिक और आर्थिक कारणों का निदान नहीं करेंगे. इसका हल नहीं निकल पाएगा. मेरा ये मानना है कि फिलहाल नक्सल समस्या खत्म नहीं हो रहा है. यदि गृह मंत्रालय ये मानता है कि वो इसे दफना देगा तो धोखे में है. इसके साथ ही नक्सली यदि सोच रहे हैं कि वो भारत सरकार को हरा कर अपनी सत्ता स्थापित कर लेंगे तो वो भी धोखे में है. भारत सरकार की ताकत का अंदाजा उन्हें होना चाहिए. यानि दोनों पक्ष धोखे में काम कर रहे हैं. इसका खामियाजा आम आदिवासी भोग रहे हैं.

सवाल- समाधान क्या है ?

जवाब-बातचीत एक जरिया है. सरकार नक्सलियों की कुछ जायज मांगों पर विचार करें और नक्सली भी हिंसा का रास्ता छोड़ें.

सवाल- नक्सलियों को विदेशी फंडिंग भी होती है, क्या इस बारे में कुछ पता चल सका है ?

जवाब-मुझे विदेश से फंडिंग के संबंध में जानकारी नहीं है. लेकिन इन्हें सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान उगाही से बड़ी फंडिंग होती है. इनके प्रभाव क्षेत्र में कोई भी काम इन्हें उगाही दिए बिना नहीं किया जा सकता. यानी कह सकते हैं कि भारत सरकार की तरफ से इन्हें अप्रत्यक्ष रूप से फंडिंग मिल जाती है. विकास योजनाओं को लागू करने के दौरान ये उगाही से पैसा जुटा लेते हैं.

सवाल-आपको क्या लगता है कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार आपस में बैठकर कोई योजना बना रहे हैं या फिर सिर्फ सब सुरक्षा बलों पर ही छोड़ दिया गया है ?

जवाब- थोड़ी बहुत ही पहल यहां दिखाई दे रही है. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह दोनों पक्षों को बातचीत के टेबल पर लाया जाए. इसी के लिए अभी एक पदयात्र भी हुई. शांति के लिए प्रयास स्थानीय स्तर पर हो रहे हैं. लेकिन पूरी समस्या से डील करने की बात है तो इसके लिए केन्द्र सरकार को शामिल होना होगा. क्योंकि ये एक राज्य की समस्या नहीं है. ये 9 प्रदेशों में चल रहा है. इन सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को शामिल करना होगा. सभी को मिलकर नक्सलियों से बात करनी होगी. नक्सलियों को भी हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में आना होगा. इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है. या फिर लड़ते रहिए कोई हल नहीं निकलने वाला. आम गरीब मरता रहेगा.

रायपुर : नक्सल समस्या एक नासूर बनकर देश की आंतिरक सुरक्षा के लिए खतरा बनी हुई है. इस समस्या के हल के लिए तमाम प्रयास असफल नजर आ रहे हैं. पिछले दो दशक से नक्सल समस्या का केन्द्र बना बस्तर अब हिंसा से त्रस्त हो चुका है. इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है. इस विषय पर ईटीवी भारत लगातार विशेषज्ञों से बात करता रहा है. इसी कड़ी में ईटीवी भारत की टीम ने बीएसएफ के पूर्व डीजी प्रकाश सिंह से खास बातचीत की है. उन्होंने बेबाक अंदाज में इस समस्या पर अपनी राय रखी है.

सवाल-इस समस्या के हल के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं, क्या वो काफी हैं ? क्या हथियारों के दम पर इस समस्या से डील किया जा सकता है? या फिर आपके हिसाब से कोई दूसरा फॉर्मूला अपनाया जाना चाहिए ?

जवाब-नक्सल समस्या 50 सालों से है. इस दौरान सरकारों ने इस समस्या को खत्म करने के लिए कई तरह के प्रयास किए. वहीं नक्सलियों ने भी इस दौरान अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश जारी रखी. कई बार उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं. 2010 में ये अपने चरम पर था. साल भर में दो हजार से ज्यादा हिंसा की घटनाएं देश भर में हुई थी.उस वक्त डॉ. मनमोहन सिंह ने देश की आंतरिक सुरक्षा को सबसे बड़ी समस्या बताया था. फिर 2010 में ही समस्या से निबटने पी. चिदंबरम ने भारी संख्या में अर्धसैनिक बल को सेंट्रल इंडिया में भेजा. मीडिया ने इसे ऑपरेशन ग्रीनहंट नाम दिया. हालांकि सरकार ने ऐसा कोई नाम नहीं दिया था. उस समय से आज तक यहां पैरा मिलिट्र्री फोर्स यहां तैनात है. इसके बाद फोर्स ने अपना काम किया और नक्सली बैकफुट पर आ गए. आज नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या पचास के आस-पास सिमट गई है. एक वक्त जो 200 से ज्यादा थी. लेकिन सवाल ये है कि क्या ये आंदोलन खत्म होने की कागार पर है.

ईटीवी भारत से बात करते प्रकाश सिंह

कई मौके ऐसे आये, जब सरकार ने नक्सलवाद को खत्म मान लिया

उन्होंने आगे कहा कि किसी समस्या को समझना चाहते हैं, तो उसके ऐतिहासिक फैक्ट को समझना जरूरी है. मैं इस आंदोलन को 1967 से देख रहा हूं.मैंने पाया कि इस दौरान दो बार ऐसे मौके आए जब सरकार ने इस आंदोलन को खत्म मान लिया था. पहली बार 70 के दशक में जब, चारू मजूमदार गिरफ्तार हो गया और पुलिस कस्टडी में उसकी मौत हो गई. कानू सान्याल समेत टॉप लीडरशिप पकड़ी गई और इनके बचे खुचे नेताओं में फूट पड़ गई और ये बिखर गए. सरकार ने कह दिया की ये आंदोलन खत्म.लेकिन हम देखते हैं कि 80 के दशक में ये फिर खड़ा हो जाता है.आंध्रप्रदेश में कोंटापल्ली सीतारमैय्या की अगुवाई में फिर मूवमेंट में तेजी आ जाती है. फिर सीतारमैय्या पकड़े जाते हैं.उनके करीबी सहयोगी गिरफ्तार कर लिए जाते हैं. सरकार बहुत सख्त कदम उठाती है और फिर ये आंदोलन छिन्न-भिन्न हो जाता है. सरकार फिर कहती है कि नक्सल समस्या का समापन हो गया है.लेकिन हमने देखा कि आंदोलन एक बार फिर खड़ा होता है. 2004 में पीपुल्स वॉर माओविस्ट सेंटर कमेटी का विलय होता है. और फिर मूवमेंट ने जोर पकड़ लिया. इसके साथ ही ये भी देखा गया है कि जब-जब ये आंदोलन दोबारा खड़ा हुआ है, पुनर्जिवित हुआ है, तब-तब ये ज्यादा विध्वंसकारी रूप में सामने आया है.

'सुरक्षाबल एक सीमा तक ही काम कर सकते हैं'

पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने बताया कि 2010 में नक्सलवाद पीक पर था. तात्कालिक गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने अपने कार्यकाल में बयान दिया था कि, तीन साल में ये आंदोलन खत्म हो जाएगा. लेकिन इसे बीते कई साल हो गए. राजनाथ सिंह ने भी कहा कि, ये खत्म होने वाला है. अमित शाह ने भी कहा कि, हम इसे जमीन के अंदर 20 फीट नीचे दबा देंगे.
यानी सरकार में ये इंप्रेशन बन गया है कि ये आंदोलन खत्म होने की कागार पर है. मैंने इस मूवमेंट पर गहराई में अध्ययन किया है. सुरक्षाबल एक सीमा तक ही अपना काम कर सकते हैं. कानून व्यवस्था स्थापित कर सकते हैं.एरिया डॉमिनेशन स्थापित कर सकते हैं. लेकिन उसके बाद प्रशासनिक स्तर पर जो फॉलोअप एक्शन होना चाहिए वो नजर नहीं आता. नतीजा ये है कि सुरक्षाबलों के हटते ही वापस नक्सल फिर वहीं आ जाते हैं.

'खामियाजा आम आदिवासी भोग रहे हैं'

जब तक इस समस्या के पीछे के मूलभूत कारण को नहीं पहचानेंगे, जब तक सामाजिक और आर्थिक कारणों का निदान नहीं करेंगे. इसका हल नहीं निकल पाएगा. मेरा ये मानना है कि फिलहाल नक्सल समस्या खत्म नहीं हो रहा है. यदि गृह मंत्रालय ये मानता है कि वो इसे दफना देगा तो धोखे में है. इसके साथ ही नक्सली यदि सोच रहे हैं कि वो भारत सरकार को हरा कर अपनी सत्ता स्थापित कर लेंगे तो वो भी धोखे में है. भारत सरकार की ताकत का अंदाजा उन्हें होना चाहिए. यानि दोनों पक्ष धोखे में काम कर रहे हैं. इसका खामियाजा आम आदिवासी भोग रहे हैं.

सवाल- समाधान क्या है ?

जवाब-बातचीत एक जरिया है. सरकार नक्सलियों की कुछ जायज मांगों पर विचार करें और नक्सली भी हिंसा का रास्ता छोड़ें.

सवाल- नक्सलियों को विदेशी फंडिंग भी होती है, क्या इस बारे में कुछ पता चल सका है ?

जवाब-मुझे विदेश से फंडिंग के संबंध में जानकारी नहीं है. लेकिन इन्हें सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान उगाही से बड़ी फंडिंग होती है. इनके प्रभाव क्षेत्र में कोई भी काम इन्हें उगाही दिए बिना नहीं किया जा सकता. यानी कह सकते हैं कि भारत सरकार की तरफ से इन्हें अप्रत्यक्ष रूप से फंडिंग मिल जाती है. विकास योजनाओं को लागू करने के दौरान ये उगाही से पैसा जुटा लेते हैं.

सवाल-आपको क्या लगता है कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार आपस में बैठकर कोई योजना बना रहे हैं या फिर सिर्फ सब सुरक्षा बलों पर ही छोड़ दिया गया है ?

जवाब- थोड़ी बहुत ही पहल यहां दिखाई दे रही है. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह दोनों पक्षों को बातचीत के टेबल पर लाया जाए. इसी के लिए अभी एक पदयात्र भी हुई. शांति के लिए प्रयास स्थानीय स्तर पर हो रहे हैं. लेकिन पूरी समस्या से डील करने की बात है तो इसके लिए केन्द्र सरकार को शामिल होना होगा. क्योंकि ये एक राज्य की समस्या नहीं है. ये 9 प्रदेशों में चल रहा है. इन सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को शामिल करना होगा. सभी को मिलकर नक्सलियों से बात करनी होगी. नक्सलियों को भी हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में आना होगा. इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है. या फिर लड़ते रहिए कोई हल नहीं निकलने वाला. आम गरीब मरता रहेगा.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.