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लैंगिक समानता सूचकांक में क्यों नीचे आया भारत ? - विश्व आर्थिक फोरम लैंगिक समानता सूची

लैंगिक समानता सूचकांक में भारत एक साल में 28 स्थान नीचे फिसल गया. आखिर एक साल में ऐसा क्या हुआ कि भारत की रैंकिंग इतनी नीचे गिर गई. यह सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण है. और हर कोई इसका जवाब जानना चाहता है. क्या सारा ठीकरा कोरोना पर फोड़ा जा सकता है ?

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लैंगिक समानता सूची में भारत पिछड़ा
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Published : Apr 4, 2021, 2:07 PM IST

हैदराबाद : विश्व आर्थिक फोरम की सबसे ताजा रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है. पिछले साल भारत की रैंकिंग 112वीं थी. एक साल में भारत की स्थिति इतनी अधिक क्यों खराब हो गई. भारत 28 स्थान नीचे चला गया. क्या सारा ठीकरा कोरोना पर फोड़ा जा सकता है.

हम अपने पड़ोसी देशों को देखें, तो सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान की ही रैंकिंग भारत से खराब है. पाकिस्तान 153वें और अफगानिस्तान 156वें स्थान पर है. बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें और श्रीलंका 116 वें स्थान पर है. भूटान की रैंकिंग भी भारत से अच्छी है. भूटान 130वें स्थान पर है.

अंतरराष्ट्रीय अनुमान के मुताबिक महिलाओं की आमदनी पुरुषों के मुकाबले पांचवां हिस्सा है. भारत नीचे से उन 10 देशों में शामिल है, जहां पर महिलाओं की आमदनी सबसे कम है. हालांकि, लड़के और लड़कियों के बीच शिक्षा का गैप घटा है.

आखिर एक साल में ऐसा क्या हुआ कि भारत की रैंकिंग इतनी नीचे गिर गई. यह सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण है. और हर कोई इसका जवाब जानना चाहता है.

इसकी प्रमुख वजहों में एक है आर्थिक गतिविधि में महिलाओं की घटती भागीदारी. दूसरी वजह राजनीतिक स्तर पर प्रतिनिधित्व में कमी और तीसरा प्रमुख कारण है रोजगार के घटते अवसर.

लैंगिक समानता को लेकर भारत को आइसलैंड, फिनलैंड, नॉर्वे, न्यूजीलैंड, स्वीडन और अन्य देशों से सीखने की जरूरत है. कैसे इन देशों ने लैंगिक समानता को समाप्त किया.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि किसी भी देश की प्रगति मापनी हो, तो वहां पर महिलाओं के विकास की स्थिति देखिए. संविधान निर्माताओं ने भी लैंगिक समानता पर जोर दिया था.

ऐसा लगता है कि देश के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व ने इन सुझावों पर अमल नहीं किया. अन्यथा, ऐसी स्थिति आती ही नहीं. आज महिलाएं कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां पर अपनी सफलता के झंडे नहीं गाड़ रहीं हैं. सेना और पायलट क्षेत्र भी अब अछूता नहीं रह गया है.

श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 22 प्रतिशत तक गिर गई है. उच्च रैंकिंग प्रबंधकों में केवल 8.9 प्रतिशत महिलाएं हैं. यह स्थिति बताती है कि हमें तत्काल सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए. एक तरह जहां बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे दिए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कम उम्र में मां बनने वाली लड़कियों की भी कई खबरें आ रहीं हैं. यह सचमुच चौंकाने वाले तथ्य हैं. मातृ मृत्यु दर और कुपोषण तो बहुत आम है.

लड़कियों की शिक्षा, महिलाओं के स्वास्थ्य, रोजगार और उनकी सुरक्षा पर बजटीय आवंटन लगातार कम किया जाता रहा है. ऐसे कदमों से हम लैंगिक समानता के लक्ष्य को कभी भी हासिल नहीं कर सकते हैं.

ये भी पढ़ें : कोविड संकट के बाद नौकरियां और करियर

महिलाओं की 48 फीसदी आबादी होने के बावजूद भारत महिलाओं को प्रभावकारी मानव संसाधन के रूप में उपयोग करने में असफल रहा है. और यही वजह है कि भारत पर अब भी विकासशील देश का ठप्पा लगा है. राजनीति नेतृत्व को लेकर भी महिलाओं को बहुत अधिक स्पेस नहीं दिया जा रहा है. ये सब ऐसे कदम हैं, जिसका हल किए बिना भारत लैंगिक समानता को हासिल नहीं कर सकता है.

हैदराबाद : विश्व आर्थिक फोरम की सबसे ताजा रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है. पिछले साल भारत की रैंकिंग 112वीं थी. एक साल में भारत की स्थिति इतनी अधिक क्यों खराब हो गई. भारत 28 स्थान नीचे चला गया. क्या सारा ठीकरा कोरोना पर फोड़ा जा सकता है.

हम अपने पड़ोसी देशों को देखें, तो सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान की ही रैंकिंग भारत से खराब है. पाकिस्तान 153वें और अफगानिस्तान 156वें स्थान पर है. बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें और श्रीलंका 116 वें स्थान पर है. भूटान की रैंकिंग भी भारत से अच्छी है. भूटान 130वें स्थान पर है.

अंतरराष्ट्रीय अनुमान के मुताबिक महिलाओं की आमदनी पुरुषों के मुकाबले पांचवां हिस्सा है. भारत नीचे से उन 10 देशों में शामिल है, जहां पर महिलाओं की आमदनी सबसे कम है. हालांकि, लड़के और लड़कियों के बीच शिक्षा का गैप घटा है.

आखिर एक साल में ऐसा क्या हुआ कि भारत की रैंकिंग इतनी नीचे गिर गई. यह सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण है. और हर कोई इसका जवाब जानना चाहता है.

इसकी प्रमुख वजहों में एक है आर्थिक गतिविधि में महिलाओं की घटती भागीदारी. दूसरी वजह राजनीतिक स्तर पर प्रतिनिधित्व में कमी और तीसरा प्रमुख कारण है रोजगार के घटते अवसर.

लैंगिक समानता को लेकर भारत को आइसलैंड, फिनलैंड, नॉर्वे, न्यूजीलैंड, स्वीडन और अन्य देशों से सीखने की जरूरत है. कैसे इन देशों ने लैंगिक समानता को समाप्त किया.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि किसी भी देश की प्रगति मापनी हो, तो वहां पर महिलाओं के विकास की स्थिति देखिए. संविधान निर्माताओं ने भी लैंगिक समानता पर जोर दिया था.

ऐसा लगता है कि देश के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व ने इन सुझावों पर अमल नहीं किया. अन्यथा, ऐसी स्थिति आती ही नहीं. आज महिलाएं कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां पर अपनी सफलता के झंडे नहीं गाड़ रहीं हैं. सेना और पायलट क्षेत्र भी अब अछूता नहीं रह गया है.

श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 22 प्रतिशत तक गिर गई है. उच्च रैंकिंग प्रबंधकों में केवल 8.9 प्रतिशत महिलाएं हैं. यह स्थिति बताती है कि हमें तत्काल सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए. एक तरह जहां बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे दिए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कम उम्र में मां बनने वाली लड़कियों की भी कई खबरें आ रहीं हैं. यह सचमुच चौंकाने वाले तथ्य हैं. मातृ मृत्यु दर और कुपोषण तो बहुत आम है.

लड़कियों की शिक्षा, महिलाओं के स्वास्थ्य, रोजगार और उनकी सुरक्षा पर बजटीय आवंटन लगातार कम किया जाता रहा है. ऐसे कदमों से हम लैंगिक समानता के लक्ष्य को कभी भी हासिल नहीं कर सकते हैं.

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महिलाओं की 48 फीसदी आबादी होने के बावजूद भारत महिलाओं को प्रभावकारी मानव संसाधन के रूप में उपयोग करने में असफल रहा है. और यही वजह है कि भारत पर अब भी विकासशील देश का ठप्पा लगा है. राजनीति नेतृत्व को लेकर भी महिलाओं को बहुत अधिक स्पेस नहीं दिया जा रहा है. ये सब ऐसे कदम हैं, जिसका हल किए बिना भारत लैंगिक समानता को हासिल नहीं कर सकता है.

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