नई दिल्ली : हर छात्र को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के इरादे से राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 तैयार की गई है. इस नीति में शिक्षा के ढांचे के सभी पहलुओं को जिस तरह से सुधारकर नया करने का प्रस्ताव है, यह विचार करने के लिए महत्वपूर्ण है कि क्या इसे लागू करने के लिए मौजूदा बुनियादी ढांचा पर्याप्त है ? आधिकारिक रिपोर्टों के अनुसार भारत में 6 करोड़ ऐसे बच्चे हैं जिनका स्कूल में दाखिला ही नहीं हुआ है. प्रारंभिक शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्रों के पास अपना भवन नहीं हैं. पांच करोड़ ऐसे बच्चे हैं, जिनमें सीखने की बुनियादी क्षमता ही नहीं है. इसके लिए इंतजार करना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या एनईपी-2020 जड़ जमाए इन चुनौतियों से पार पा सकता है ?
सामाजिक और आर्थिक रूप से सुविधा से वंचितों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलना सुनिश्चित हो इसके लिए इसमें पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं. नीति को बेहतर तरीके से लागू करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच प्रभावी तालमेल की जरूरत है. वास्तविक शिक्षा प्रणाली में सबसे बड़ी खामी यह है कि स्थानीय शिक्षा अधिकारियों को जवाबदेह बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया है.
डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डीआईएसई) के अनुसार देश भर में कुल 14.67 लाख स्कूल हैं. इनमें से 73.09 फीसद सरकारी स्कूल हैं. इन सरकारी स्कूलों में 18.98 करोड़ छात्र पढ़ते हैं. एनईपी- 2020 में सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन किस तरह से बढ़ाया जाएगा इसके बारे में विस्तार से चर्चा नहीं की गई है. कोविड-19 महामारी के दौरान पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या बढ़ना देखते हुए उन्हें फिर से स्कूल में लाने के लिए पहले से सक्रिय दृष्टिकोण की जरूरत होती है. उच्च विद्यालय के स्तर पर अनुसूचित जाति के 22.25 फीसद अनुसूचित जनजाति के 26.97 फीसद और पिछड़ी जाति के 20.04 फीसद छात्र पढ़ाई छोड़ रहे हैं.
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि 9.97 फीसद मुस्लिम छात्र कभी स्कूल नहीं गए. भाषा की बाधा और पाठों को समझने में परेशानी छात्रों के स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने का प्रमुख कारण हैं. आदिवासी बस्तियों में क्षेत्रीय शिक्षकों को ही नियुक्त करने और 10वीं और 12वीं कक्षा के लिए व्यावसायिक शिक्षा पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रस्ताव सराहनीय है, लेकिन उपलब्ध शिक्षकों की योग्यता के आकलन और जरूरत के मुताबिक नए पेशेवरों को नियुक्त करने के लिए व्यापक स्तर पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
देशभर के 4.3 फीसद दस स्कूलों में पढ़ाने के लिए केवल एक ही कमरा है, जबकि 18 फीसद स्कूल अपने सभी छात्रों को 2 कमरों में पढ़ाते हैं. 10.20 फीसद प्राथमिक विद्यालयों में सभी विषयों को पढ़ाने के लिए एक ही शिक्षक है. करीब 37 फीसद ऐसे स्कूल हैं, जिनमें शारीरिक रूप से दिव्यांग छात्र-छात्राओं के लिए न्यूनतम सुविधाएं नहीं हैं. स्वच्छता की स्थिति और शौचालयों की दयनीय अवस्था की नए सिरे से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है. एनईपी- 2020 के तहत सुझाए गए नए पाठ्यक्रम में छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उनके सीखने के स्तर का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने की जरूरत है. हर स्कूल में पूरी तरह से प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं और परामर्शदाताओं को नियुक्त करने का विचार स्वागत योग्य है पर प्रस्ताव कितना व्यावहारिक है इसका और अधिक अध्ययन करने की जरूरत है. भारत में परामर्शदाताओं की भारी कमी है. जब तक सरकार बड़े पैमाने पर परामर्शदाताओं को नियुक्त करने की योजना नहीं बनाती है, तब तक स्कूली बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे का समाधान नहीं होगा.
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हालांकि, यह नीति अपने आप में वंचित विद्यार्थियों के लिए लाभदायक रही है, लेकिन इसे लागू करने की राह में आने वाली बहुत सी चुनौतियों को पार करना पड़ेगा. मंडल शिक्षा अधिकारियों के रूप में जो शिक्षक नहीं है वैसे लोगों को नियुक्त करने से बेहतर परिणाम मिल सकता है. पढ़ाने वाले शिक्षकों की उपस्थिति की निगरानी सख्ती से की जानी चाहिए. समर्पित शिक्षकों की पहचान करके उन्हें सम्मानित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. अभिभावकों को विद्यालय की प्रगति का हिस्सा बनाने के लिए अभिभावक समितियां गठित की जा सकती हैं. 21वीं सदी के छात्रों को प्रमुख कौशल से लैस, समग्र और पूर्ण विकसित व्यक्ति बनाने के लिए एनईपी 2020 में प्रस्ताव न केवल कागज पर अच्छे लगने चाहिए, बल्कि वास्तव में भी उसी तरह के साबित होने चाहिए.