नई दिल्ली : बीते पांच वर्षों में देश में तिलहन के फसल उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हुई है लेकिन इसके बावजूद पिछले एक वर्ष में खाद्य तेल की कीमतों में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है. ऐसे समय के जब कि लोग कोरोना महामारी से परेशान होने के साथ कहीं आमदनी में गिरावट तो कहीं नौकरी जाने के कारण संघर्षरत हैं तो कई व्यवसाय चौपट होने से व्यथित हैं. वहीं घटती आमदनी के साथ रसोई खर्च में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हो जाने से आम आदमी को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है.
जिस खाद्य तेल की कीमत पिछले वर्ष मई महीने में 134 रुपये प्रति लीटर तक थी वह जून 2021 में 200 रुपये के आस पास पहुंच गई. विशेषज्ञ कहते हैं कि पिछले 11 वर्षों में खाद्य तेल की कीमतें पहली बार औसतन 46 फीसद तक बढ़ी हैं.
इस विषय पर ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए इंडियन चैम्बर्स ऑफ फ़ूड एंड एग्रीकल्चर के अध्यक्ष और कृषि विशेषज्ञ एमजे खान ने कहा कि इसका सबसे प्रमुख कारण है कि भारत आज भी देश में खाद्य तेल की कुल आवश्यकता का 60 फीसद आयात करता है.
उन्होंने कहा कि हमारे देश में खाद्य तेल की कुल खपत 25 मिलियन टन के आस पास है जिसमें से हम 14.5 मिलियन टन आयात करते हैं. इनमें आयात मुख्यतः इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्राजील, लैटिन अमेरिका, यूक्रेन और रूस से होता है. वहीं खाद्य तेल के आयात के लिए भारत इन पर अपनी आवश्यकता के लिए निर्भर है.
क्यों बढ़ी कीमतें ?
विशेषज्ञ खाद्य तेल की बढ़ी कीमतों के पीछे पांच प्रमुख कारण बता रहे हैं. इस बारे में एमजे खान का कहना है कि कोरोना महामारी के दौरान लोगों को अपने घरों में ही रहना पड़ा जिसकी वजह से खाद्य सामग्री के खपत में भी बढ़ोतरी हुई. वहीं मांग में वृद्धि और महामारी के कारण आपूर्ति में आ रही समस्याएं भी खाद्य तेल महंगे होने के पीछे का प्रमुख कारण है. इसके अलावा डॉलर के मुकाबले रुपया का लगातार कमजोर होना भी कीमत वृद्धि में एक सहायक बिंदु है. उन्होंने कहा कि डॉलर की बढ़ती वैल्यू के कारण आयात पर खर्च बढ़ जाता है.
यूक्रेन और रूस में तेल उद्योग में काम कर रहे मजदूरों की समस्या
तीसरा कारण यूक्रेन और रूस में तेल उद्योग में काम कर रहे मजदूरों की समस्या भी है. मुख्यतः इन देशों में खाद्य तेल उद्योग या कृषि के क्षेत्र में पलायन किए हुए मजदूर काम करते हैं. कोरोना के कारण इस क्षेत्र में मजदूरों की समस्या कृषि और उद्योग दोनों को झेलनी पड़ी. फलस्वरूप मजदूरी महंगी भी हुई और इसकी वजह से भी कीमतों में इजाफा हुआ. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है कि इंडोनेशिया और मलेशिया ने अपने देश में पाम (ताड़) ऑयल उत्पाद के कुछ हिस्से को बायो फ्यूल बनाने की तरफ खर्च किया. यह एक ऐसा कदम था जिसकी वजह से खाद्य तेल की कीमत लगातार बढ़ी.
देश की खपत का 60 फीसद हिस्सा बाहर देशों से ही आयात करना पड़ता है
हालांकि मोदी सरकार 'आत्मनिर्भर भारत' की बात करती है और तिलहन की खेती को बढ़ाने की बात भी करती है जिससे खाद्य तेल में भी देश आत्मनिर्भर हो सके, इसके बावजूद देश की खपत का 60 फीसद हिस्सा बाहर देशों से ही आयात करना पड़ता है. इस पर विशेषज्ञ कहते हैं कि घरेलू खाद्य तेल उत्पादन को बढ़ावा देने की बात बहुत जोर शोर से शुरू हुई थी, इसके लिए सरकार ने टेक्नोलॉजी मिशन भी लॉन्च किया था लेकिन अभी इस क्षेत्र में बहुत काम करने की जरूरत है. ऐसा नहीं है कि देश में तिलहन की खेती और तेल के उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हुई है.
2016 के मुकाबले 2021 में तिलहन की खेती लगभग 45 फीसदी तक बढ़ी
साल 2016 के मुकाबले 2021 में तिलहन की खेती लगभग 45 फीसदी तक बढ़ी है और इसके मुताबिक खाद्य तेल का उत्पादन भी अभी और काम करना होगा. किसान आंदोलन में इसके लिए एक बड़ा अवसर है. किसान आज अपनी फसलों की वाजिब कीमतें न मिलने के कारण आंदोलित हैं. हालांकि ये सभी हरित क्रांति क्षेत्र के किसान हैं जो मुख्यतः धान और गेहूं की खेती करते हैं. साथ ही आज देश में धान और गेहूँ घरेलू खपत से कहीं ज्यादा है.
60-70 हजार करोड़ खाद्य तेल के निर्यात पर होता है खर्च
ऐसे में सरकार पर दबाव है कि कैसे साल दर साल अनाज की खरीद को बढ़ाया जाए जबकि निर्यात में सीमित अवसरों के कारण इतनी बड़ी मात्रा में अनाज बाहर भी नहीं बिक सकता. ऐसे में जब देश 60-70 हजार करोड़ खाद्य तेल के निर्यात पर खर्च कर रहा है तब सरकार पर किसानों से प्रति वर्ष 3-3.5 लाख के अनाज खरीद करने का दबाव है.
विशेषज्ञ की राय में हरित क्रांति क्षेत्रो में विशेष ऑइल सीड ज़ोन बना कर वहां तिलहन की खेती को प्रोत्साहन देना चाहिए. ऐसा करने से दोहरे उद्देश्य की पूर्ति होगी. इससे एक तरफ हमारे देश से विदेशी मुद्रा खर्च में कमी आएगी वहीं जब तिलहन खेती का दायरा बढ़ेगा तब अनाज के खरीद का दबाव भी सरकार पर कम होगा. इस प्रकार बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने के लिये ये सरकार के पास बेहतर विकल्प है.