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क्लर्क का इस्तीफा अस्वीकार करने वाले जिला जज पर 21 हजार रुपए हाई कोर्ट ने लगाया जुर्माना - जिला न्यायाधीश

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक जिला न्यायाधीश पर 21 हजार रुपये का जुर्माना लगाया, जिन्होंने कोर्ट के एक क्लर्क का इस्तीफा सिर्फ इसलिए मंजूर करने से इनकार कर दिया क्योंकि उसने तीन महीने का नोटिस पीरियड पूरा नहीं किया था. इतना ही नहीं हाई कोर्ट ने मामले में कहा कि जालौन के जिला न्यायाधीश के खिलाफ जांच शुरू की जानी चाहिए.

इलाहाबाद हाईकोर्ट
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Published : Nov 13, 2021, 4:52 PM IST

इलाहाबाद : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक जिला न्यायाधीश पर 21 हजार रुपये का जुर्माना लगाया, जिन्होंने कोर्ट के एक क्लर्क का इस्तीफा मंजूर करने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि क्लर्क ने इस्तीफा देने के बाद तीन महीने का नोटिस पीरियड पूरा नहीं किया.

साथ ही क्लर्क पर सरकारी सेवा नियम, 2000 के नियम 4 के तहत तीन महीने का नोटिस देने में विफल रहने के कारण अनुशासनात्मक जांच करने के आदेश भी दिए गए. न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की खंडपीठ ने यह देखते हुए कि क्लर्क के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच करना मानसिक उत्पीड़न के समान होगा. न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की खंडपीठ ने जालौन के जिला न्यायाधीश पर जुर्माना लगाया और उन्हें कर्मचारी के इस्तीफे को स्वीकार करने का भी निर्देश दिया.

क्या है मामला

याचिकाकर्ता, खूब सिंह वर्ष 2015 में उरई में जालौन के जजशिप में क्लर्क के रूप में कार्यरत थे. इसके बाद, स्टेनोग्राफर (रेलवे भर्ती बोर्ड) के पद के लिए चुने जाने पर उन्होंने 17 जुलाई 2020 को अपना इस्तीफा दे दिया. इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि चूंकि उनका रेलवे में स्टेनोग्राफर (हिंदी) के पद पर चयन हो गया है, उन्हें उक्त पद पर कार्यभार ग्रहण करने के लिए कोर्ट क्लर्क के पद से मुक्त किया जाए.

ये भी पढ़ें - दिल्ली में प्रदूषण ने बिगाड़े हालात, सुप्रीम कोर्ट ने कहा- संभव हो तो 2 दिन का लॉकडाउन लगा दें

त्याग पत्र देने के बाद याचिकाकर्ता ने इस धारणा पर कि उनका इस्तीफा 1 अप्रैल 2020 से स्वीकार कर लिया गया होगा, उन्होंने 14 अगस्त 2020 को रेलवे की नौकरी ज्वॉइन कर ली. हालांकि, जिला न्यायाधीश ने 20 अगस्त, 2020 को आक्षेपित आदेश पारित किया, यह देखते हुए कि उत्तर प्रदेश सरकार सेवा नियम, 2000 के नियम (4) के तहत, चूंकि याचिकाकर्ता ने तीन महीने के नोटिस पर सेवा से अपना इस्तीफा नहीं दिया था, परिणामस्वरूप, उनका इस्तीफा खारिज कर दिया गया.

याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध जजशिप पर सेवाएं देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और उसने परीक्षा से पहले अधिकारियों को विधिवत सूचित किया था और एनओसी प्रस्तुत किए जाने पर याचिकाकर्ता परीक्षा में उपस्थित हुआ था.

इसके बाद, यह तर्क दिया गया कि नियम (4) के प्रावधान में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि नियुक्ति प्राधिकारी सरकारी कर्मचारी को बिना किसी नोटिस या कम समय के नोटिस पर इस्तीफा देने की अनुमति दे सकता है.

ये भी पढ़ें - राजस्थान फोन टैपिंग मामला : CM गहलोत के OSD लोकेश शर्मा की गिरफ्तारी पर 13 जनवरी तक की रोक

मामले पर कोर्ट की टिप्पणियां

दूसरे प्रतिवादी (जिला न्यायाधीश, जालौन) के आचरण को न केवल मनमाना बल्कि अत्यधिक अनुचित बताते हुए, न्यायालय ने कहा-'एक कर्मचारी किसी भी सरकारी संगठन में आवेदन करके अपने करियर की बेहतरी की तलाश करने का हकदार है. यह प्रतिवादियों का मामला नहीं है कि याचिकाकर्ता ने परीक्षा में शामिल होने से पहले सक्षम प्राधिकारी (द्वितीय प्रतिवादी) से सूचित नहीं किया था या पूर्व अनुमति नहीं ली थी. याचिकाकर्ता को परीक्षा में बैठने के लिए एनओसी विधिवत जारी की गई थी.'

अदालत ने कहा कि जिला न्यायाधीश के खिलाफ एक जांच शुरू की जानी चाहिए कि याचिकाकर्ता को नियम 4 के प्रावधान 2 के तहत शक्ति के प्रयोग में तुरंत इस्तीफा देने की अनुमति नहीं देने में बाधा क्यों पैदा की गई. इसके अलावा, यह कहते हुए कि याचिकाकर्ता को मानसिक उत्पीड़न का शिकार बनाया गया है और दूसरे प्रतिवादी के आचरण के लिए पीड़ित किया गया है.

इलाहाबाद : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक जिला न्यायाधीश पर 21 हजार रुपये का जुर्माना लगाया, जिन्होंने कोर्ट के एक क्लर्क का इस्तीफा मंजूर करने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि क्लर्क ने इस्तीफा देने के बाद तीन महीने का नोटिस पीरियड पूरा नहीं किया.

साथ ही क्लर्क पर सरकारी सेवा नियम, 2000 के नियम 4 के तहत तीन महीने का नोटिस देने में विफल रहने के कारण अनुशासनात्मक जांच करने के आदेश भी दिए गए. न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की खंडपीठ ने यह देखते हुए कि क्लर्क के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच करना मानसिक उत्पीड़न के समान होगा. न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की खंडपीठ ने जालौन के जिला न्यायाधीश पर जुर्माना लगाया और उन्हें कर्मचारी के इस्तीफे को स्वीकार करने का भी निर्देश दिया.

क्या है मामला

याचिकाकर्ता, खूब सिंह वर्ष 2015 में उरई में जालौन के जजशिप में क्लर्क के रूप में कार्यरत थे. इसके बाद, स्टेनोग्राफर (रेलवे भर्ती बोर्ड) के पद के लिए चुने जाने पर उन्होंने 17 जुलाई 2020 को अपना इस्तीफा दे दिया. इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि चूंकि उनका रेलवे में स्टेनोग्राफर (हिंदी) के पद पर चयन हो गया है, उन्हें उक्त पद पर कार्यभार ग्रहण करने के लिए कोर्ट क्लर्क के पद से मुक्त किया जाए.

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त्याग पत्र देने के बाद याचिकाकर्ता ने इस धारणा पर कि उनका इस्तीफा 1 अप्रैल 2020 से स्वीकार कर लिया गया होगा, उन्होंने 14 अगस्त 2020 को रेलवे की नौकरी ज्वॉइन कर ली. हालांकि, जिला न्यायाधीश ने 20 अगस्त, 2020 को आक्षेपित आदेश पारित किया, यह देखते हुए कि उत्तर प्रदेश सरकार सेवा नियम, 2000 के नियम (4) के तहत, चूंकि याचिकाकर्ता ने तीन महीने के नोटिस पर सेवा से अपना इस्तीफा नहीं दिया था, परिणामस्वरूप, उनका इस्तीफा खारिज कर दिया गया.

याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध जजशिप पर सेवाएं देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और उसने परीक्षा से पहले अधिकारियों को विधिवत सूचित किया था और एनओसी प्रस्तुत किए जाने पर याचिकाकर्ता परीक्षा में उपस्थित हुआ था.

इसके बाद, यह तर्क दिया गया कि नियम (4) के प्रावधान में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि नियुक्ति प्राधिकारी सरकारी कर्मचारी को बिना किसी नोटिस या कम समय के नोटिस पर इस्तीफा देने की अनुमति दे सकता है.

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मामले पर कोर्ट की टिप्पणियां

दूसरे प्रतिवादी (जिला न्यायाधीश, जालौन) के आचरण को न केवल मनमाना बल्कि अत्यधिक अनुचित बताते हुए, न्यायालय ने कहा-'एक कर्मचारी किसी भी सरकारी संगठन में आवेदन करके अपने करियर की बेहतरी की तलाश करने का हकदार है. यह प्रतिवादियों का मामला नहीं है कि याचिकाकर्ता ने परीक्षा में शामिल होने से पहले सक्षम प्राधिकारी (द्वितीय प्रतिवादी) से सूचित नहीं किया था या पूर्व अनुमति नहीं ली थी. याचिकाकर्ता को परीक्षा में बैठने के लिए एनओसी विधिवत जारी की गई थी.'

अदालत ने कहा कि जिला न्यायाधीश के खिलाफ एक जांच शुरू की जानी चाहिए कि याचिकाकर्ता को नियम 4 के प्रावधान 2 के तहत शक्ति के प्रयोग में तुरंत इस्तीफा देने की अनुमति नहीं देने में बाधा क्यों पैदा की गई. इसके अलावा, यह कहते हुए कि याचिकाकर्ता को मानसिक उत्पीड़न का शिकार बनाया गया है और दूसरे प्रतिवादी के आचरण के लिए पीड़ित किया गया है.

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